रीतारानी पालीवाल

जब कौरव सभा में द्रौपदी को निर्वसन कर अपमानित करने का प्रयास किया गया तो सभा में मौजूद उसके पांच पति, भीष्म पितामह, विदुर और द्रोणाचार्य सिर झुकाए मौन बैठे रहे। द्रौपदी के प्रतिरोध और दृढ़तापूर्वक प्रतिवाद के बावजूद कोई नीति मर्मज्ञ, कोई योद्धा उस असहाय की सहायता के लिए नहीं उठा। आखिर द्रौपदी को कृष्ण से गुहार लगानी पड़ी और कृष्ण को अदृश्य रह कर युक्ति पूर्वक उसकी सहायता करनी पड़ी। पुरुष वर्चस्व के इस अत्याचारपूर्ण प्रदर्शन की गूंज को सभा में मौजूद आंखों पर पट्टी बांधे बैठी माता गांधारी भी चुपचाप सुनती रहीं, स्त्री के अपमान का सख्ती से विरोध किए बगैर!

अहल्या, द्रौपदी, तारा, सीता और मंदोदरी बहुत बुद्धिमान हैं

लेकिन लोकमन ने कौरव सभा में हुए इस अत्याचार की अनदेखी नहीं की। इसका प्रमाण है यह श्लोक- ‘अहल्या द्रौपदी तारा सीता मंदोदरी तथा/ पंचकन्या: स्मरेन्नित्यं महापताकनाशनं।’ सुभाषित कोश में उपलब्ध यह श्लोक भारतीय इतिहास की सर्वाधिक प्रताड़ित स्त्रियों के प्रति किए गए अन्याय से उपजे अपराधबोध की आत्म-स्वीकृति और क्षमायाचना है। पितृसत्ता का दंश झेलती ये पांचों स्त्रियां अत्यधिक बुद्धिमान हैं जो न केवल पुरुष को समुचित सलाह देती हैं, बल्कि वक्त आने पर अपना पक्ष रखती हुई प्रश्न उठाती हैं।

रामधारी सिंह दिनकर ने महिलाओं की ताकत पर लिखा है

भारतीय मन में इन स्त्रियों के प्रति चले आ रहे सहिष्णुता और सम्मान का प्रमाण यह है कि लोकभाषा रूप में इस श्लोक अभी भी उपस्थिति (प्रात: लीजे पंच नाम/ अहल्या तारा…) और आधुनिक साहित्य में इनसे जुड़े प्रसंगों पर सवालिया निशान लगाए गए हैं। रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है- ‘नर की कीर्ति ध्वजा उसी दिन कटी देश में जड़ से/ नारी ने सुर को टेरा जिस दिन निराश हो नर से’, ‘कुरुक्षेत्र’।

प्रसंग के मुताबिक, वह राजतंत्र का जमाना था। भीष्म, विदुर या द्रोणाचार्य शर्म से सिर झुकाए बैठे रहे। राजा के समक्ष मुंह नहीं खोल सके। द्यूत क्रीड़ा में पराजित यशस्वी पांडव मुंह लटकाए बैठे रहे। लेकिन अपमान का दंश तो स्त्री ने झेला। द्रौपदी महारानी थी। उसकी व्यथा-कथा को समाज की संवेदना मिली, सम्मान मिला। उसकी सहायता के लिए कृष्ण मौजूद थे। न जाने कितनी महिलाएं ऐसे अपमान-अत्याचार को युगों-युगों से सहती आई हैं। उनकी व्यथा-कथा इतिहास में दर्ज नहीं है। इसी को देखते हुए आधुनिक भारतीय नवजागरण काल में सती-प्रथा, बाल-विवाह, विधवाओं का सामाजिक शोषण और ऐसी ही अनेक कुप्रथाओं के विरुद्ध बुलंद आवाज उठी और समाज-सुधार हुए।

पर आज हम लोकतंत्र के नागरिक हैं। विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था बन रहे हैं। स्त्री-पुरुष को सम्मानपूर्वक जीने का समान अधिकार है। हमारे पास मानवाधिकार आयोग है, राष्ट्रीय महिला आयोग है, समाज में शिक्षा का व्यापक प्रसार है, महिला सशक्तीकरण की बात जोर-शोर से की जाती है। देश के उच्चतम पदों पर महिलाएं आसीन हैं। फिर भी स्त्री के सम्मान की रक्षा के प्रति समाज की जबावदेही पर सवालिया निशान लगा हुआ है।

स्त्रियों, छोटी बच्चियों के अपमान-बलात्कार, हिंसा की घटनाएं अक्सर सुनाई-दिखाई देती रहती हैं और न जाने कितने मामले अनकहे-अनसुने रह जाते होंगे। गरीब, दलित स्त्री के पति के समक्ष उसे निर्वसन कर घुमाना संपन्न पुरुष अहं की तुष्टि करता होगा। ऐसी खबरें पढ़ कर हर संवेदनशील व्यक्ति का दिल दहलता रहा है। इन घटनाओं की खबर मिलने पर जब-तब थोड़ी-बहुत कानूनी कार्रवाई भी होती सुनी गई है, लेकिन हमारा समाज नहीं सुधरता दिखाई देता। शक्ति और पौरुष का दंभ रह-रह कर जोर मारता है।

चिंता की बात यह है कि पुरुष द्वारा स्त्री के प्रति दरिंदगी का यह अत्याचार घटने के बजाय बढ़ता दिखाई दे रहा है। दलित-आदिवासी स्त्री पर यह दंश और ज्यादा दिखाई देता है जो न केवल पुरुष वर्चस्व, बल्कि सामंती मानसिकता और अहंकार के साथ-साथ यह शिक्षा और विकास के बावजूद हमारी संवेदना-सहिष्णुता के ह्रास का सूचक है।

पिछले दिनों ही पश्चिम बंगाल के मालदा में एक स्त्री को चोरी करने के इल्जाम के कारण निर्वसन करने के बाद घुमाया गया, ताकि उसे सबके सामने शर्मिंदा किया जा सके और वह अपने ऊपर लगे आरोप (सही अथवा गलत) को कबूल कर ले। राजस्थान में एक शिक्षण संस्थान में दलित युवती से सामूहिक बलात्कार किया गया। उत्तर-पूर्व भारत में एक बार फिर से इस दरिंदगी की पुनरावृत्ति अत्यंत हृदय-विदारक है।

लंबे समय तक कोई भी कानूनी कारवाई न होना और फिर राज्य के सत्तासीन अधिकारियों द्वारा इसे राज्य में घटित होने वाली आम घटना कह दिया जाना जले पर नमक की तरह प्रतीत होता है। हर तरह से प्रगति करता इक्कीसवीं सदी का भारत स्त्री का ‘वस्तुकरण’ किए जाने और उससे कुकर्म को सहज स्वीकार्य कैसे मान सकता है, समझ में नहीं आता।

आम भारतीय लोग देश के अन्य भागों की तुलना में पूर्वोत्तर भारत के विषय में अपेक्षाकृत कम जानते हैं। आजादी के बाद पूर्वोत्तर के प्रदेश भारतीय गणतंत्र में शामिल तो कर लिए गए, लेकिन उनकी विशिष्ट समस्याओं की खास विलक्षणताओं का ऐसा समाधान नहीं हो पाया जो सर्वस्वीकार्य होता। आशा और भरोसा है कि भारतीय समाज अपनी भूलों से सबक लेगा।