सुरेश सेठ

शब्दों का खेल खेलना ही जैसे आम आदमी की नियति हो गई है। शब्द ही गरिमा देते हैं, नीचे गिराते हैं। इन शब्दों के मायाजाल से उभरते हैं नए नारे, जो बाद में जयघोष बनकर ऐसी शोभायात्रा में तब्दील हो जाते हैं, जिसका अंत नजर नहीं आता। एक के बाद एक नया आंकड़ा प्रस्तुत होता है और उसके साथ ही आम लोगों के तन-मन को हर्षा देने वाले सफलता के झंडे लहराते हैं। इसलिए उत्सवजीवी शब्दों की माया जीते हैं। जो गरिमा ‘सेवानिवृत्ति’ शब्द में है, वह भला ‘रिटायर’ कर देने या छुटकारा पा लेने में कहां? इसीलिए बड़े-बूढ़े फरमा गए हैं कि किसी को जहर भी देना हो तो मीठी गिल्लौरी में डाल कर देना, वह मजे से निगल जाएगा और रुख्सत होते हुए उसके स्वाद की तारीफ भी कर देगा।

बेकारी की समस्या से पूरा देश दो-चार है। ऐसे भी मामले हैं, जिनमें लोगों ने अपने बच्चे कालेजों में पढ़ाने बंद कर दिए हैं और पढ़ाने के नाम पर ‘आइलैट्स अकादमियों’ में डाल दिए हैं, ताकि वहां सिर्फ औपचारिकता पूरी कर वे विदेश निकल जाएं। भारतीय रुपए के गिरते मूल्य की इतनी कृपा है कि अमेरिका, इंग्लैंड में कमाया गया डालर या पाउंड भारत में आकर अस्सी से बयासी बन कई गुणा कीमती हो जाता है। इंग्लैंड और अमेरिका गया हमारा कामगार भारत का दौरा करता है तो उसकी पराई मुद्रा अपनी धरा की भारतीय मुद्रा में कई गुणा बढ़ जाती है। अमेरिका का आम फहम भारत का करोड़पति बन जाता है। यही तो भेद है कि आज के नौजवानों ने औपचारिक पारंपरिक शिक्षा से छुटकारा नहीं, निवृत्ति पा ‘आइलैट्स’ का दामन थामा।

शिक्षा के नवीनीकरण के नाम पर चेहरा ही बदल गया

कहां कतार तो लगनी चाहिए थी डिजिटल भारत बनाने के लिए नई शिक्षा प्रणाली के विद्या मंदिरों के बाहर, लेकिन आजकल यह कतार कहां लग रही है वैध-अवैध मंत्र पढ़ कर देश की नई पीढ़ी को विदेशी धरती तक पहुंचाने के लिए। देश की अकादमियों में उचित ‘ग्रेड’ दिलवाने के ठेके लग रहे और शर्तिया विदेश पहुंचा देने के दाम घोषित हो रहे हैं। शिक्षा के नवीनीकरण के नाम पर उसका चेहरा ही बदल गया। शायद साम, दाम, दंड, भेद का पाठ्यक्रम बन गया है कि हमारा बच्चा सात समुद्र पार करवा दिया जाएगा। बस, फीस अग्रिम जमा करवा दी जाए। अग्रिम फीस मांगने वाले न जाने कितनी गारंटी देते हैं, कितने युवा लोगों का कल्याण कर देने के दावे करते हैं, लेकिन जब हमारा युवक अमेरिका की जगह म्यांमा में फंस जाता है, तब पता चलता है कि ये दावे और ये गारंटी एक ऐसा अंधेरा थीं, जिसको कोई रोशनी दीप्त नहीं कर सकती। चाहे दीयों के तले अंधेरा होने का जितना भी अहसास फैलाया जाए।

ऊपर से नीचे तक रास्ता पार करवाने वालों की हथेलियां चुपड़नी पड़ती हैं। तब पार-पत्रों का रास्ता हमवार होता है। यह रास्ता बनाने में पूरा परिवार जुटा है। अभी तक सभी यहां बैठे मनरेगा के आसरे जीने की बाट जोह रहे थे। घर का एक भी बशर किसी चोर दरवाजे से निकल गया, तो बाद में ‘बरसों से बैठा ठाला शेष’ परिवार इसे मुख्य द्वार बना इस धरती से उड़ान भर सकेगा।

हर युग का अपना-अपना प्रिय उद्योग होता है। इन दिनों यह उद्योग बना है देश की नई पीढ़ी को विदेश का रास्ता दिखाने का। ज्यों-ज्यों यह रास्ता खुल रहा है, त्यों-त्यों लगता है मुंबई का विरार का इलाका और दूसरे महानगरों के पीछे या भूख से सूखती हुई अंधेरी गलियां विदेश प्रयाण का रास्ता तलाश रही हैं। गांव के गांव खाली हो रहे। युवक गए और पीछे रह गए गांवों के बड़े-बूढ़े। इन युवकों के लिए क्या कहें? उन्होंने तो इस देश के अंधकूप से निवृत्ति पाई और पीछे छोड़ गए निस्तेज लोगों के लिए अपने साथ आ बसने का मुक्ति मार्ग। अब जब हमें विदेश या कथित शालीन देशों में खिसक ही जाना है, तो वहां की दोहरी जुबान और दोहरी मानसिकता को जीने का अंदाज भी सीख लेना चाहिए। यों आजकल यह अंदाज अपने देश के कर्णधार भी अपना रहे हैं। ‘घर के अंदर कुछ और बाहर कुछ’ वाला लोकलुभावन अंदाज उनकी कुर्सियों का भविष्य सुरक्षित कर दे सकता है।

दूसरी बानगी आजकल की इन चुनावी संध्याओं में भी मिलने लगी है। समय के सिपहसालार गद्दी मिलते ही बोलते हैं कि युवा शक्ति ही इस देश का अमूल्य जन है। इसे विदेश खिसकने नहीं दिया जाएगा। इसे अपने देश में ही रोजगार दे दिया जाएगा। अभी देश में इंटरनेट क्रांति हुई है। इसे कामयाब करने के लिए नौजवानों की भारी संख्या में दरकार है, लेकिन दिक्कत यह है कि इन लोगों ने डिजिटल काम सीखा नहीं। इसलिए फिलहाल ये लोग पकौड़े बेच सकते हैं।

सरकार के सामने बेकारों की कतारें खड़ी हैं। उन्हें निजी क्षेत्र में रोजगार मेले लगा कर काम दे दिया जाएगा। सरकारी नौकरी भी मिलेगी। इसके लिए सेवा विस्तार पर काम कर रहे वरिष्ठ लोग तत्काल ‘रिटायर’ नहीं, सेवानिवृत्त कर दिए जाएं, ताकि इस गरिमापूर्ण विदाई से किसी को बुरा न लगे।