मनीष कुमार चौधरी
चिंता मानवीय मन की स्वाभाविक स्थिति जरूर है, लेकिन यह तभी फलदायी सिद्ध होती है, जब इसका जुड़ाव सकारात्मकता से हो। चिंता जब नकारात्मक रूप ले ले तो बोझ बन जाती है। हर बात में सोचने-विचारने और कल्पनाशीलता वाली वृत्ति ही दरअसल चिंता का कारण बनती है। यह चिंता सकारात्मक रूप लेने पर सृजनशीलता को जन्म देती है। वही नकारात्मक होने पर अभिशाप बन जाती है।
जर्मन महाकवि गेटे को एक बार यह चिंता धूनी की तरह लग गई कि वे अच्छी कविता की रचना नहीं कर पाएंगे। उन्हीं दिनों में गेटे ने अपनी महान कृति ‘फाउस्ट’ का सृजन किया। न्यूटन तो अपने अयोग्य होने की आशंका के चलते कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्राध्यापकी के दौरान डेढ़ वर्ष तक विश्वविद्यालय के जीवन से एकदम निवृत्त हो गए थे।
चिंताओं के इसी घटाटोप काल में उन्होंने प्रिज्म के प्रभावों तथा प्रकाश के स्पेक्ट्रम का पता लगाया, गति और गुरुत्वाकर्षण के नियमों की खोज की। जार्ज बर्नार्ड शा तो कलम फेंक कर ही बैठ गए थे। इसके बाद ही उनके दिमाग में ‘पिगमैलियन’ का कथानक उभरा और उन्होंने इस अपूर्व साहित्यिक कृति की रचना की। उधर अमेरिका के प्रसिद्ध कवि जान बेरीमेन ने सत्तावन वर्ष की आयु में अकेलेपन से ऊब कर मिसीसिपी नदी में छलांग लगाकर अपनी इहलीला समाप्त कर ली थी।
चिंता एक वैयक्तिक प्रक्रिया है। सभी पर इसका एक-सा प्रभाव नहीं पड़ता। कोई घटना किसी व्यक्ति में सकारात्मक चिंता पैदा करती है तो किसी पर इसका नकारात्मक प्रभाव देखने में आता है। चिंता का एक ऋणात्मक बिंदु यह भी है कि अधिकांश स्थितियों में यह हम पर अकारण ही सवार हो जाती है। वाल्टर टेम्पल ने एक बड़ी ही सटीक टिप्पणी की है- ‘मनुष्य रोते हुए पैदा होता है, शिकायत करते हुए जीता है और आखिरकार निराश होकर मर जाता है।’
चिंता पर विजय पाने का सबसे जरूरी उपाय है- कल्पित भय से निजात पाना। अधिकांश दुख और तनाव तो काल्पनिक और भविष्य की उन अनिष्टकारी आशंकाओं को लेकर उत्पन्न होते हैं, जिनका कोई आधार नहीं होता। चिंता की जगह चिंतन को दीजिए। केवल सकारात्मक चिंतन। खुद की निंदा और आत्महीनता की प्रवृत्ति को छोड़कर स्वयं का समर्थन कीजिए। तनाव हमारी अपेक्षा और वास्तविकता के बीच का अंतर है। जितना बड़ा अंतर, उतना अधिक तनाव। इसलिए कुछ भी उम्मीद न करें, बस बने रहें। आप अपने साथ होने वाली सभी घटनाओं को नियंत्रित नहीं कर सकते, लेकिन उनसे प्रभावित न होने को निर्णय तो ले ही सकते हैं।
तनाव और नकारात्मक सोच का चोली-दामन का साथ है। हर मुद्दे पर घंटों सोचना, फिर भी किसी एक निर्णय पर नहीं पहुंच पाना तनाव ही पैदा करेगा। आपको अपने संदेहों से अधिक मजबूत होना चाहिए। अक्सर देखा गया है कि हमारी निन्यानबे फीसद चिंताएं वर्तमान को लेकर नहीं, अतीत और भविष्य को लेकर होती हैं। यानी जिस काल का वजूद नहीं, उसे लेकर हम चिंता में घुलते रहते हैं।
रही बात अतीत की विफलताओं को लेकर सोचने की, तो यह व्यर्थ ही अपनी शक्ति का अपव्यय है। जो वक्त गुजर गया, वह कितना ही दुखद या सुखद क्यों न हो, उसकी क्या अहमियत है- सिवाय उससे सबक लेने या ऊर्जा हासिल करने के। चिंता करनी है तो इस क्षण की करनी चाहिए। अतीत पर ताला जड़कर उसकी कुंजी किसी अंधेरे कुएं में फेंक देना चाहिए। बीते कल की चिंता कर कोई भी उसे संवार नहीं पाएगा।
बल्कि चिंता में डूबने वाला व्यक्ति अपने आज को जरूर नष्ट कर डालेगा। खुद को बार-बार पूर्णता की कसौटी पर कसने की जरूरत नहीं है और न ही बारंबार किसी से तुलना के फेर में पड़ना चाहिए। इससे अपने दोष ज्यादा नजर आएंगे, गुण कम। जो अपरिहार्य है और जिसे टाला नहीं जा सकता, उसके प्रति अरुचि दिखाने या घुटन में रहने से जीवन दूभर हो जाएगा। अच्छा हो कि ऐसी चीजों के साथ मनोयोग से सहयोग किया जाए।
थोड़ा गौर करें तब पता चलेगा कि चिंता मन पर पड़ी गांठों के समान है। इन्हें जितना खींचा जाएगा, ये उतनी ही कसती चली जाएंगी। काटना भी इसका उपाय नहीं है। चिंताओं से तो हमें धैर्यपूर्वक मुक्ति पानी ही होगी। दरअसल, हम जिन समस्याओं को लेकर चिंताओं में घिरे रहते हैं, वे इतनी दुरूह नहीं होतीं, जितनी हम उन्हें समझते हैं। अपने जीवन के प्रबंधन में एक सुदृढ़ नियोजक की भूमिका निभाना चाहिए।
किसी विरक्त पर्यटक की तरह जिंदगी को जिए चले जाना जिंदगी नहीं होती। आस्थावान रहकर सही दिशा में सोचना, अपनी प्रतिभा और शक्ति का समुचित उपयोग करना और कर्म करते चले जाना ही चिंताओं से दूर रहने का सुरक्षित उपाय है। कुदरत हमें कभी भी ऐसा कुछ नहीं देगी, जिसे हम संभाल नहीं सकते। इस निस्सार जीवन में कैसी चाह और किसकी चिंता? रहीम कह गए हैं- ‘रहिमन कठिन चिंता न ते, चिंता को चित चेत। चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत।’