संगीता कुमारी

आजकल जिस ओर नजर घुमाइए, हर ओर यंत्र ही यंत्र दिखाई देते हैं। ऐसा लगता है कि मनुष्य की संवेदना पर यंत्रों का जमाना हावी हो गया है। हम मनुष्य प्रकृति द्वारा बनाए गए सांसों के विधान को रोक नहीं सकते, क्योंकि इसके बिना जी नहीं सकते। इसलिए उसको बचाने के लिए कभी-कभार कुछ भले कार्य कर लिए जाते हैं।

अन्यथा हममें से ज्यादातर लोग इतने ज्यादा स्वार्थी हो चुके हैं कि उसको भी बर्बाद करके नकली आक्सीजन बेचकर धन कमाने लग जाएं। विश्व में विकसित देशों द्वारा यंत्र के सहारे अनेक बीमारियों को जन्म दिया जाता है, फिर उसे गरीब आबादी वाले देशों में फैलाया जाता है। मानो गरीब पैदा ही होते हैं परीक्षण करने के लिए। फिर धीरे से उस बीमारी का इलाज खोज लिया है, कह कर बड़े स्तर पर दवा बेचने का कारोबार किया जाता है।

भारत की उपजाऊ जमीन को पिछले चार-पांच दशकों से रसायनों और यंत्रों के जरिए बर्बाद किया गया है। गरीब किसानों को अधिक उपज का लोभ देकर बरगलाया गया है। रसायनों के प्रयोग से अनाज का उत्पादन बढ़ा, मगर इस बात से अनभिज्ञ रहे कि बीमारी कितनी फैल गई। अक्सर खबरें आती रहती हैं कि युवाओं की प्रजनन क्षमता में गिरावट आ रही है। छोटी आयु की युवतियों को थायराइड जैसी बीमारी हो रही है। हारमोन की गड़बड़ी होने से मां बनने में परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। विदेशी बीमारी विदेशी इलाज मुहैया कराने वाले हर महीने खरबों का व्यापार कर रहे हैं।

कई बार ऐसा लगता है कि जिस तरह की बीमारियां अब सामने आ रही हैं, उनका इलाज भी असंभव है। ऐसा नहीं है कि देश की सरकार ने विदेश से चल कर यहां आई बीमारियों के इलाज के लिए स्वयं दवा बनाने का प्रयास नहीं किया। मगर उसमें सफलता का अनुपात बहुत कम रहा है। इस कारण कितने लोगों की समस्या इतनी अधिक बढ़ गई कि वे मरते-मरते बचे हैं। सब यंत्रों का कमाल है।

धन कमाने की लोलुपता ने मनुष्य को संवेदनहीन बना दिया है। अमीर देशों की ओर से अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए गरीब देशों को हथियार बनाया जा रहा है। चंद अदूरदर्शी नेता समझौता कर लेते हैं, जिसका खमियाजा पीढ़ी-दर-पीढ़ी झेलती रहती है। आज घर-घर फैलती बीमारियां भारत की पवित्र भूमि को दूषित कर रही हैं।

विकास की पहचान यही हुई है कि व्यापक पैमाने पर यंत्रों का उपयोग हुआ और इस वजह से जल भी दूषित हुआ। आश्चर्य होता है कि जिस देश में गंगा का शुद्ध पानी हो, वहां प्लास्टिक की बोतलों में पानी खरीदकर पीने की मजबूरी आ चुकी है। सब कारोबार है, इसीलिए पेयजल को दूषित होने दिया गया और अब घर-घर पानी को शुद्ध करने वाली मशीनें अनेक नामों से बेची जा रही हैं। यंत्र का ही कमाल है कि शुद्ध जल दूषित होता जाए, फिर यंत्र द्वारा शुद्ध जल को बेचकर धन कमाया जाए।

यह अच्छी बात है कि भारत की जनता केवल मनुष्यों पर नहीं, थोड़ा मौसमों पर भी निर्भर है। आज भी देश के कई हिस्सों में लोग बरसात के पानी के भरोसे अपना जीवनयापन कर रहे हैं। वहीं शहरों का बुरा हाल है, क्योंकि बड़े-बड़े यंत्रों के सहारे पूरे शहर को कंक्रीट में बदल दिया गया है। वर्षा ऋतु आई नहीं कि लोग भय से कांपने लगते हैं कि कहीं उनका घर जल से भर न जाए! शहरी जीवन मुश्किल हो जाता है, जब बरसात का मौसम आता है।

आखिर ऐसे विकास का क्या फायदा? सड़कें जाम हो जाती हैं। आखिर वर्षा का जल एकत्रित करने की व्यवस्था क्यों नहीं की जाती? शहर में जगह-जगह ढक्कन वाले कुएं क्यों नहीं बनाए जाते? सड़क किनारे ढके हुए कुएं बनाकर ऐसे ढलान क्यों नहीं तैयार किए जाते कि बारिश का जल सड़क पर इकट्ठा होने के बजाय कुएं में एकग्रित हो। वर्षा के पानी की बर्बादी भी नहीं होगी। लोगों को पानी की कमी भी नहीं होगी।

बरसात के मौसम का आनंद भी लिया जा सकेगा। बरसात आते ही लोग डरेंगे नहीं कि कैसे निकलें सड़क पर! यंत्रों का उपयोग सकारात्मक पहलू के लिए भी किया जा सकता है। यंत्र का उपयोग करके प्लास्टिक जैसी भयावह वस्तु बना दी गई है, जिसका सकारात्मक पहलू कम है, नकारात्मक ज्यादा। धरती से न मिटने वाली वस्तु प्लास्टिक को काश कोई नष्ट कर सकता तो कितना अच्छा होता।

पहले प्लास्टिक बनाया जाता है, फिर उसके नुकसान से बचने के लिए उपाय ढूढ़े जाते हैं। दुख होता है जब लोग प्लास्टिक के गमले खरीदते हुए दिखते हैं। जबकि घर में ही अनुपयोगी प्लास्टिक के बहुत सामान हैं, उसी के गमले बनाए जा सकते हैं। उन्हें कबाड़ में बेचा जाता है और नए प्लास्टिक के गमले से घर की शोभा बढ़ाई जाती है।

देश की राजधानी दिल्ली में कूड़े के पहाड़ तैयार हो गए हैं। कूड़े के लिए हरा, नीला, लाल विभाजन कर देना काफी नहीं है। हमें इनके उत्पादन में कमी लानी होगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो हम इतनी सुंदर धरती प्लास्टिक की परतों से ढक देंगे और यंत्रों के सहारे नई धरती की खोज करेंगे!