आलोक सक्सेना
हर मनुष्य द्वारा किया अपना सार्थक कर्म ही सफलता की कुंजी होता है। हां, कभी अथक कर्म के बावजूद अपनी मनचाही सफलता हाथ नहीं लगती। इसका यह मतलब नहीं कि हार मान कर बैठ जाया जाए कि मेरी तो किस्मत ही बेकार है। मेरा कुछ नहीं हो सकता। ऐसे वाक्य सोचना भी नकारात्मकता को जन्म देता है और हार मान कर बैठने वाले कायर होते हैं। मनुष्य जन्म मिला है सार्थक बुद्धि के बल पर अपना कर्तव्य निभाने और सफलता की पताका फहराने के लिए। हमें भरसक अपने अथक प्रयास करने चाहिए।
मनुष्य को वक्त साथ दे या न दे, मगर एक न एक दिन उसकी मेहनत अवश्य साथ देती है। रंग लाती है। इसलिए किसी व्यक्ति के अपने कार्य, परीक्षा आदि पर जाते समय ‘तुम्हारा भाग्य साथ दे’ नहीं, बल्कि ‘तुम्हारा कर्म सबसे बेहतर है, तुम जरूर कामयाबी हासिल करोगे’ कहना चाहिए। ‘भाग्य’ से नहीं, बल्कि सार्थक कर्म के माध्यम से अपना उत्साह निर्धारित करने की प्रेरणा देनी चाहिए।
केवल आशीर्वाद, शुभकामनाएं और प्रोत्साहन के दम पर सफलताएं प्राप्त नहीं की जा सकतीं। कर्मयोगी बनकर ही व्यक्ति अपनी सफलताएं प्राप्त करता है। अभिभावक हों तो वे उस व्यक्ति को उचित सुविधाएं प्रदान कर सकते हैं। दुख का कार्य हो या सुख का। कर्म तो व्यक्ति को खुद ही करना होता है। अगर घर में किसी परिचित व्यक्ति की असमय आकस्मिक मृत्यु हो जाए तो उसके परिवार जनों को लोग सांत्वना देते हैं। लोग कहते हैं, ‘परमपिता परमात्मा यानी ईश्वर शोकाकुल परिवार के सदस्यों को शोक सहने की शक्ति प्रदान करें और आगे के शेष कार्य करने का विश्वास प्रदान करें।’
जब किसी परिवार में असमय कोई पुरुष दुनिया छोड़कर चला जाता है, तो ऐसे में उसकी पत्नी को तो अपनी दुनिया खत्म होती हुई प्रतीत होती है। वह अपने को असहाय महसूस करती है। ऐसी परिस्थिति में अगर उसे संभालने वाले उसके परिचित न हों तो वह अवसाद में भी जा सकती है। इसके परिणामस्वरूप उसके बच्चों पर भी गहन शोक का मानसिक आघात हो सकता है।
इसलिए घर के किसी सदस्य की असमय आकस्मिक मृत्यु हो जाने पर परिवार के बाकी सदस्यों को अपना मनोबल बढ़ाना चाहिए। विश्वास रखना चाहिए कि उन पर जो दुख आया है, उसकी भरपाई तो कभी नहीं हो सकती, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उनकी दुनिया भी खत्म हो गई। ऐसे दुखद मौके पर धीरज और शोक सहन करने की शक्तियां बढ़ानी चाहिए। ध्यान के माध्यम से बलशाली बनने का प्रयास करना चाहिए। जाने वाला कभी लौटकर नहीं आता, इसलिए उसके अधूरे कार्यां को सार्थक अंजाम देना जरूरी होता है।
असमय अचानक किसी के चले जाने से परिवार के सदस्यों को भी लगने लगता है कि अब तो सब खत्म हो गया। अब क्या होगा? अब ये नहीं तो कुछ भी नहीं। मगर देखा जाए तो किसी के चले जाने से दुनिया नहीं थमती, न जिंदगी रुकती है। किसी व्यक्ति के चले जाने से बाकी लोगों में से किसी एक को अपने परिवार का योग्य जिम्मेदार व्यक्ति बनना पड़ता है। पति-पत्नी के रिश्ते के लिहाज से देखें तो पहले पति जिम्मेदारी निभा रहे थे तो अब पति के न रहने पर पत्नी और बच्चों को समझदारी से अपना भविष्य सुधारना चाहिए।
किसी भी परिवार में किसी व्यक्ति मृत्यु हो जाती है तो यह निश्चित रूप से बेहद दुख की बात है। मगर उसके बाद जीवन का यथार्थ यही है कि हमें मृतक की यादों को संचित करने और बनाए रखने के लिए आगे की ओर देखना चाहिए। दुनिया में जितनी जटिलताएं हैं, उसके मुताबिक देखें तो हर तरफ दुख पसरा हुआ है। इसी के बीच हम जीवन की तलाश करते हैं। अगर हमारे किसी प्रिय की मौत के बाद उनके अंश से किसी को जीवन मिल सकता है तो यह हमारी स्मृतियों और संवेदनाओं के लिए भी शायद जीवंत होने के अवसर मुहैया करा सकेगा।
इसलिए अगर हम अंगदान जैसी अवधारणा के मर्म को समझ सकें तो अपनी ही जीवन स्थितियों को समृद्ध कर सकेंगे। फिर मृतक के शव के निपटान की विधि में अगर हम पर्यावरण की सुरक्षा के अनुकूल कुछ कर सकें, तो यह दुनिया की भलाई का रास्ता तैयार करने की तरह देखा जाएगा। हालांकि ऐसे समय में मृतक के संबंध में कानूनी औपचारिकताएं पूरी करने, मसलन, मृत्यु प्रमाण-पत्र बनवाना, बैंकों आदि के काम को दस्तावेजी रूप से दुरुस्त कराना भी ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि यह शेष सदस्यों के लिए उपयोगी होता है।
कोई भी व्यक्ति या जीव, जो दुनिया में आया है, वह जाएगा। सवाल है कि एक समाज के रूप में हम सबने जो संवेदना ग्रहण की है, उसे और मजबूत करने के लिए हम क्या करते हैं। अपने प्रिय व्यक्ति के जीवित रहते अगर हम उन्हें पर्याप्त संवेदनात्मक सहयोग या स्पर्श दे पाते हैं तो उनकी मृत्यु के बाद हमें दुख तो होगा, लेकिन वही हमारी इंसानी सभ्यता के आगे बढ़ने के चरण भी हैं। इसलिए किसी का इस दुनिया का जाना बाकी बचे सदस्यों के लिए एक नई शुरुआत का मौका भी हो सकता है, जाने वाले की स्मृतियों को और जीवंत बनाए रखने के लिए।