पावनी

आंखों को संसार देखने के लिए एक सरल-सुगम माध्यम के रूप में जाना जाता है। उसके बाद यही आखें बन जाती हैं कभी नजर, नयन, चक्षु या नैना और उनकी उपमा कमल या मछली से दी जाती है। लेकिन ऐसा तभी हो सकता है, जब उन आखों पर चश्मा न चढ़ा हुआ हो। ग्रामीण भारत में आज बेहद बुजुर्ग लोग भी बगैर चश्मे के दिख जाते हैं। शहर या नगरीय हालात अजीब हैं।

यहां किसी से भी मिलने जाएं तो हर घर में दो में से एक बच्चे के नयनों पर ओढ़ा हुआ चश्मा काफी कुछ कह देता है। यह एक गंभीर दशा है कि आज के बच्चे, किशोर और युवा कुछ भी नहीं समझते। वे अपने टैब या मोबाइल, लैपटाप या कंप्यूटर की स्क्रीन पर आठों प्रहर निगाहें गड़ाए हुए नजर आते हैं।

हालांकि कुछ न कुछ तो ऐसा जरूरी या ऐसा महत्त्वपूर्ण होता ही होगा कि कहीं नजर टिकाए रखनी होती होगी। पर ये लोग जो कुछ भी देख रहे हैं, उससे इनकी आखों की रोशनी पर गंभीर खतरा मंडराने लगा है। आखों के आगे काले-भूरे धब्बे दिखते हैं। छह-सात महीने से ही उनको खेलने के लिए मोबाइल दे दिया जाता है। किशोर और युवा तो बड़े या बुजुर्ग के संसार में किसी की भी रोक-टोक की परवाह नहीं करते।

अब उन सबको वही अच्छा लगता है जो उनकी आखों के सामने एक बटन दबाते ही हाजिर भी हो जाता है और बटन दबाते ही लुप्त भी। उनके एक हाथ में ऐसा जादू भरा बाइस्कोप है जो दुनिया भर के तमाम मनोरंजन, जानकारी और रहस्य उनकी दो खुली आंखों के सामने लाने को बेताब है। मगर यह शाही ठाठ-बाट के जगत दर्शन से उनकी दो आखें दुख रही हैं।

लगता है कि इन आखों को सात रंगों के संयोजन से बनी यह बेहद रंगीन दुनिया हमेशा देखने को न मिले। शोध बताते हैं कि पिछले दो दशक में भारत में ही आखों के मरीज लाखों नहीं, करोड़ों की संख्या में बढ़े हैं। हर बीस मिनट में दो नेत्र रोगी का औसत भारत के लिए बिल्कुल भी अच्छी बात नहीं है। बच्चों में आज से दो दशक पहले दो से तीन फीसद नजर की समस्या पाई जाती थी, अब वही बहत्तर फीसद तक आ गई है।

यह कितनी अजीब बात है कि अधिकांश आखों के रोगी उन घरों के बच्चे हैं, जहां तीन समय पौष्टिक भोजन पकाया जाता है और सेहत की सभी सुख-सुविधाएं मौजूद हैं। एक ऐनक बनाने वाले यह बताते हुए भावुक हो गए कि उनके एक पुराने तीन पीढ़ी के ग्राहक एक परिवार में दो भाई हैं। उनके दो-दो बच्चे हैं। चारों बच्चों की उम्र पांच से आठ साल के आसपास है। इस साल उन सबके लिए नजर के चश्मे तैयार करते समय बहुत दुख हुआ। दरअसल, इन बच्चों के पिता दोनों भाई को कालेज के बाद नजर का चश्मा लगा और उनके दादाजी को आज भी चश्मा नहीं लगा है।

इंसान इच्छा का गुलाम है इसलिए यह भी एक सर्वमान्य सत्य है कि मानव की आखें हर बार मनमोहक, मनचाहा देखने के लिए अपने मन को तैयार कर लेती हैं। आज आनलाइन पाठशाला, आनलाइन बैठक, वेब सीरीज का चलन, मनोरंजन का मतलब केवल एक स्क्रीन होना इस आंखों के कमजोर होने का जिम्मेदार है। आखिर इन दूषित होती हुई नजरों के बीमार होने की पहचान होती क्या-क्या है? आंखों में बार-बार जलन होना।

आंखों में खुजली और बार-बार आंखें मसलने का मन करना, कुछ ही देर मोबाइल, टैब देखने के बाद आंखों का लालिमा से भर जाना, आंखों के आगे कभी काले धब्बे बनना या कभी जरा-सी देर में आंखें पथरा कर पस्त होना और थक जाना। आंखों में सूजन, नींद न आना, सिर में पीड़ा होना, चक्कर आना, चिड़चिड़ापन आदि इस बात के खरे संकेत हैं कि अब नयना खुद कहने लगे हैं कि हमको नहीं है चैना। इसलिए इनकी तरफ गंभीरता से ध्यान दिया जाए।

कम देखो और काम का ही देखो। यह एक नई कहावत बनती जा रही है, ताकि आखों के महत्त्व का संदेश हर तरफ आसानी से प्रसारित हो सके। अगर सचेत नहीं हुए तो इसके परिणाम भयंकर हो सकते हैं। रोते हुए या रूठे हुए बालक को मोबाइल देना उसे खुश करना या बहलाना नहीं, बल्कि उसके आने वाले समय के लिए भयंकर अन्याय है।

नीले आसमान के वे काले-भूरे बादल, बरसात के बाद सात रंग वाला वह इंद्रधनुष, हरी-भरी धरती और बगीचे के रंग-बिरंगे फूल, सारा सतरंगी संसार सब देखने को तरस जाएंगे नौनिहाल। अपनी नजर के लिए एक ईमानदार नजरिया अपनाना ही सच्ची समझदारी है। गहरी और संतुलित नींद, ध्यान, प्राणायाम, योग आदि का सहारा लेकर थक रही, दुख रही आंखों को तरोताजा किया जा सकता है। कुदरत की छांव में नियम से कुछ समय रहना। सुबह और शाम कुछ समय हरे पौधों को निहारना, हरी दूब पर पंगे पैर चलना आदि आंखों को तेज और सुख देने वाले उपाय हैं। अब समय आ गया है कि आंखों को बेशकीमती संपदा समझा जाए।