देश ने लोकतंत्र का संकल्प वहन करते ही गरीब और अमीर के बीच भेद मिट जाने का सपना देखा था। यानी प्रासाद और झोपड़ियां गलबहियां डालेंगे। लेकिन नतीजा प्रासादों की बढ़ती संख्या के साथ झोंपड़ियों के धूल-धूसरित हो जाने के रूप में सामने आया। चोर गलियों के ठेकेदारों ने इसमें अहम भूमिका निभाई। देखते ही देखते चोर गलियों के ठेकेदार वर्षों से महाआदर्शवाद और नैतिकता के सर्वोपरि हो जाने की कसमें खाते नजर आने लगे। रास्ता सीधा था। आम के आम रहें और गुठलियों के दाम मिल जाएं। चोर गलियों में संक्षिप्त रास्ते की संस्कृति का बोलबाला रहे, हाथों पर सरसों उगती रहे और ठेकेदार सत्ता का उपचार करते हुए नजर आएं।
बड़े-बड़े बोलों से, आदर्शवादी तर्कों से और अबाध गति से प्रसारित होते अपने भाषणों से। मगर चोर गलियां तो चोर गलियां ही रहती हैं। विडंबना की इंतिहा हो गई। ठेकेदार चोर गलियों के हैं, हमसे नाराज हैं, क्योंकि हम बनावटी कमी से लेकर पिछले दरवाजे से होते सौदों की हां में हां मिलाने से इनकार करने लगे थे। ऐसा होना ही था, क्योंकि हम सही को गलत कह कर उसका महिमामंडन नहीं कर सकते थे और आदमी का बच्चा होकर शाम के झुटपुटे को रात नहीं कह सकते थे। हम कोई भोंपू नहीं थे कि मध्यरात्रि को रात का आगाज कह दें। इतना भी कह देते, लेकिन चढ़ते सूरज की रोशनी को हम अंधेरे की आमद तो नहीं कह सकते थे! इसलिए अब उनके उपहास का पात्र हो गए हैं।
ऐसा बार-बार होता रहा है। सबसे पहले उन्होंने कुर्सी संभालते ही हमें अच्छे दिन लाकर देने का वादा किया था। अब इस उपेक्षित जिंदगी का बोझ ढोते हुए हमें अपनी जिंदगी घसीटने की आदत हो गई है। काफी अवसादग्रस्त माहौल हमने रच दिया है। सीधा-सादा यह भी कह सकते थे कि आधी रात तक बत्ती जला-जला किताबों में मगजपच्ची करके हासिल की हुईं डिग्रियां हमारे किसी काम नहीं आईं। इनके बगैर भी बहुत से लोग बेकार घूम रहे थे, इन्हें हासिल करके उनकी श्रेणी में ही चले आए।
नहीं मिल रहा भरपेट खाना
भरपेट खाने को अन्न न पहले मिलता था, न अब मिलता है। फिर एक जून भोजन और दूसरे जून ठंडा पानी पीकर जीने वाले लोगों की गिनती गरीबी रेखा से नीचे जीने वाले लोगों में होती है। आंकड़े बताते हैं, देश निरंतर प्रगति कर रहा है। गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों का आंकड़ा निरंतर कम होता जा रहा है। फिर ये कौन लोग हैं जो महामारी से प्रकंपित होकर लगी लगाई नौकरियां खो बैठे? विषाणु के संक्रमण से करोड़ों लोगों को बचाना था, इसलिए जिससे पूरे देश के काम-धंधे को फालिज मार जाए, ऐसी पूर्णबंदी घोषित कर दी गई। क्यों?
जो एक जून भोजन और दूसरे जून सब्र का प्याला पी रहे थे, वे भोजन से तो उखड़े ही, शहरों से बेकाम होकर अपने गांव की ओर लौट चले। वहां से आसरा न पा फिर शहर की ओर लौटने की प्रक्रिया में वे न इधर के रहे और न उधर के रहे। ऐसे लोगों को भाग-दौड़ में छोड़, बाकी भूखों को गिना तो आंकड़ा पहले से कम निकला। बस फिर क्या था, अच्छे दिन जल्द लौट आने की घोषणा कर दी गई। किसी को मनरेगा देकर बेकारी का खात्मा कह दिया। भूख से हायतौबा मचाते लोगों को मुफ्त लंगर की कतार में खड़ा कर दिया। कोहराम और मचा, तो इस कतार की जिंदगी को लंबा करने की घोषणा कर दी। दरियादिल हैं इस बस्ती के लोग। ऐसे मुफ्त लंगर बांट-बांट कर वे भुखमरी खत्म करते हैं और परिवार के एक व्यक्ति को मनरेगा रोजगार दे कहते हैं, लो जी बेकारी पर प्रहार हो गया। अब भला अच्छे दिन आने में देर ही कितनी है?
मनरेगा में फर्जीवाड़ा
घोषणाएं तो घोषणाएं ही होती हैं। मनरेगा कार्ड फर्जीवाड़े के धुरंधरों ने हथिया लिया, और मुफ्त लंगर या रियायती दरों पर बंटने वाला अनाज लक्ष्य तक पहुंचा ही नहीं। राजनीति के चतुर सुजान तो गरीबी हटाओ के इन दावों से भरे अभियान की सफलता से प्रसन्न हो अपने नाती-पोतों के लिए गद्दियां सुरक्षित करने में लग गए। आखिर इस देश को सोने की चिड़िया भी तो बनाना है और देश की सूखी धरा पर दूध और घी की नदियों को भी बहाना है।
संक्षिप्त रास्ते की संस्कृति के मसीहा अपने सार्थक हो जाने के प्रमाण जुटा रहे हैं।
सोने की चिड़ियां चहचहाने तो लगीं, लेकिन उनके पिंजरे बहुमंजिली इमारतों के गलियारों में लग गए। अब दिक्कत न लोगों को समझ आती है और न उसे लोग बता पाते हैं। तो चोर गलियों के मसीहा उपहास ही उड़ाएंगे और कहेंगे कि ‘कहते हैं लोग भूख और गरीबी से तंग आकर अत्महत्या कर रहे हैं, अब इन्हें कैसे बताएं कि मरने वाले दुसाध्य रोगों का शिकार थे।’ समझ की बात इनके पल्ले नहीं पड़ती। कहा तो था, हमारी बात मानो, आमदनी दुगनी हो जाएगी। कारपोरेट संस्कृति में अमीर अधिक कमाएगा तो आपको भी बांट देगा। नहीं मानी बात, आंदोलन की मशाल लेकर चले हैं। इस रोग की मारामारी में धनाढ्यों की आमदनी तो सौ फीसद बढ़ गई और आम लोग जितना खाते थे, उससे भी गए। चिंता नहीं। समाजवाद उसके बाद ही शुरू होता है।