एक पौधा जो खूब सारे मीठे फल दे सकता था, एक पौधा जो विशाल छायादार पेड़ बन कर वैश्विक तापमान को कम करने में अपना आंशिक योगदान दे सकता था, उस पौधे को ‘अनुशासन’ के गमले में बोकर, प्रतिबंधों की काट-छांट कर हमने उसे बोनसाई बना दिया। वह बोनसाई सुंदर तो दिखेगा, सजावट के काम आएगा, हमारे घर के किसी कोने की खूबसूरती भी बढ़ाएगा, पर वह बोनसाई कभी फल नहीं दे पाएगा। वह बोनसाई कभी विशाल छायादार बनकर किसी राहगीर के सुस्ताने के लिए छांव नहीं दे पाएगा। हमने अपने बच्चों को वही बोनसाई बना दिया है। अनुशासन के नाम पर हमने बच्चों पर इतने प्रतिबंध लगा दिए हैं कि हम उसका कुदरती विकास नहीं होने दे रहे।
अनुशासन सिखाने के नाम पर छोटे-छोटे बच्चों को छात्रावासों में रखा जा रहा है। बेहतर शिक्षा के नाम पर अपने परिवार से दूर किसी रिश्तेदार के घर रखकर पढ़ाया जा रहा है। हमें लग रहा है कि कक्षाओं की शिक्षा ही उसे बेहतर बनाएगी। यहां हम शायद गलत हैं। बच्चा सबसे पहले सीखता है अपनी मां से, अपने परिवार से, परिवेश से और अपने खुले वातावरण से। उसे खेलने और दौड़ने-भागने देना चाहिए। उसे गांव की गलियां माप लेने देना चाहिए, मेले घूम लेने देना चाहिए, खेत-खलिहानों में भटक लेने देना चाहिए। उसे जानने की कोशिश करने देना चाहिए कि कद्दू किसी पेड़ पर नहीं उगता और केले का पेड़ नहीं, पौधा होता है। उसे दोस्तों और परिजनों के बीच रहकर ही यह जान लेने देना चाहिए कि ‘थर्सडे’ को हिंदी में बृहस्पतिवार या गुरुवार कहते हैं। पापा की बहन बुआ होती हैं और मम्मी की बहन मौसी। सबसे पहले वह परिवार से ही सीखेगा। स्कूल की पढ़ाई तो वह कर ही लेगा।
दरअसल, हम समझते हैं कि सुबह कोचिंग, दिनभर स्कूल और शाम में ट्यूशन लगाकर हम आदर्श अभिभावक की भूमिका में हैं। हम बच्चों के खेलने-कूदने पर प्रतिबंध लगाकर उसे अनुशासित बना रहे हैं। हम समझते हैं कि सिर्फ स्कूल की कक्षाएं, होमवर्क, किताब, कापी और पाठ्यक्रम में सिमटकर वह बहुत सफल हो जाएगा या सिर्फ किताबों में डुबकी लगाकर वह नाम रौशन कर देगा। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के बोझ तले बच्चों को दबाकर हमने जो उसे ‘अनुशासन’ का नाम दिया है, वक्त आने पर वही बच्चा अपनी असफलता की तख्ती एक समय आकर हमारे आपके गले में लटका जाएगा।अनुशासन के नाम पर हमने बच्चों को जिस तरह दब्बू और आत्मविश्वास से कमजोर बनाने का काम किया है, इसका खमियाजा हमें ही भुगतना पड़ेगा।
स्वयं से होता है बच्चों का मानसिक विकास
किसी भी बच्चे के मानसिक विकास में स्कूल की कक्षा की पढ़ाई का कम ही योगदान होता है। वह स्वयं से करके ही सीखता है। वह गलतियां करके अनुभव लेकर सीखता है। गलतियां करेगा कब? अनुभव लेगा कब? जब हम उसे इतनी आजादी देंगे। एक बंदर अपने बच्चे के संगीत प्रशिक्षण पर लाखों खर्च कर दे, उसे बचपन में ही संगीत अकादमी में डाल दे, तो भी वह गाना कभी सीख नहीं पाएगा। उल्टे अपनी प्राकृतिक कलाबाजियां और गुलाटियां मारना भी भूल जाएगा। जब बंदर यह गलती नहीं करता, तो हम और आप क्यों ऐसा करते हैं?
ऐसे तमाम लोग होंगे, जिनके बचपन के दिनों की मंडली दसवीं कक्षा तक गांव में ही रही और सरकारी स्कूल में पढ़ाई की। दोपहर के भोजन में खिचड़ी खाई। फिर उस समय के रुतबे वाली ‘रेंजर’ साइकिल ली, तो उससे स्कूल जाने के साथ-साथ स्कूल की कक्षाएं छोड़ कर चुपके से पास के कस्बे के बाजार में जाकर फिल्म भी देखे होंगे। स्कूल से घर कितनी बार शिकायतें आई होंगी। बच्चे दो दिन सुधरे, फिर अगले दिन कोई फिल्म देख आए। किराए पर लाकर सैकड़ों कामिक्स पढ़े, टीवी-सीडी भी किराए पर ही लाकर फिल्में देखी गई होंगी। खेत-खलिहानों में भटकना, क्रिकेट खेलकर दोपहर-शाम एक कर देना। पर इन्हीं सबसे बचपन में शायद सबसे ज्यादा सीखा गया होगा। सीखा भी शायद ऐसे ही जाता है। सिर्फ कक्षाओं की पढ़ाई के भरोसे रहा जाता तो मामला निल बट्टे सन्नाटा रहता। आज उस मंडली में कोई दुबई में होगा, कोई रेलवे में इंजीनियर होगा तो कोई बड़ा कारोबार कर रहा होगा। सब अपनी जिंदगी में खुश होंगे कि उनका बच्चा अच्छा कर रहा है। अगर हम पर भी ‘अनुशासन’ का, ‘प्रतिबंधों’ का बोझ लादा गया होता तो शायद हमारी स्थिति कुछ और होती।
पिता बच्चों के लिए नायक जरूर पर सुपर हीरो नहीं
मगर यहीं रुकने की जरूरत भी है। सारी गलती अभिभावकों की नहीं है। कुछ जिम्मेदारियां बच्चों की भी बनती हैं। स्वच्छंद कदम के बहकने के भी खतरे अधिक होते हैं। बच्चों को सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि उनके पिताजी बेशक उनके नायक या प्रेरणा होंगे, पर वे कई बार ‘सुपर हीरो’ नहीं होते हैं। रक्तचाप और मधुमेह की समस्या लेकर जी रहे एक मध्यमवर्गीय पिता की अपनी सीमाएं होती हैं। आर्थिक, मानसिक, सामाजिक और शारीरिक रूप से उनकी अपनी क्षमता होती है। अगर पिता अपने बच्चों की आजादी की कद्र कर रहे हैं तो बच्चे खुद अपने आपको अनुशासित करें, यह दायित्व अपने आप जुड़ जाता है। कई गलतियों से पिता बच्चे को निकाल लेंगे, बचा लेंगे, लेकिन इसके पीछे जो उनको कीमत चुकानी होती है, इसका अंदाजा हम नहीं लगा सकते। पिता और माता अपने बच्चों को पंख लगाएं, उन्हें उड़ने दें। थोड़ा भटक कर, थोड़ी देर से अपना भविष्य वे खुद तय कर लेंगे। तो अगर बच्चों के अभिभावक उनको पंख लगा रहे हैं तो उसी पंख के सहारे बच्चे भी सपरिवार खाई में कूदने से बचें।