बात ज्यादा पुरानी नहीं है। तब अपने गांव से पांच-छह किलोमीटर कच्चे मिट्टी भरे रास्ते पर पैदल चलकर लोग उस स्थान पर पहुंचा करते थे, जहां से यातायात का कोई साधन मिला करता था। अक्सर पांच-दस लोग एक समूह में ही यह पैदल यात्रा करते थे। आपसी बातचीत में रास्ता कट जाता था। इस पैदल यात्रा में दो जगह पड़ाव भी आते थे। एक भारी-भरकम खेजड़ी के पेड़ के नीचे एक प्याऊ हुआ करती थी। इसमें पास के गांव के एक बुजुर्ग राहगीरों को पानी पिलाते थे। एक अन्य स्थान था, जहां एक गांव के बाहर एक ‘छतरी’ बनी थी, जिसके नीचे भी एक प्याऊ थी। वहां एक बुजुर्ग महिला राहगीरों को पानी पिलाती। दोनों ही स्थानों पर लोग थोड़ी देर बैठते, सुस्ताते ठंडा पानी पीते और फिर अपना रास्ता पकड़ लेते।
उस समय प्याऊ के रूप में किसी सड़क या रास्ते के किनारे, छोटे-बड़े बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, आदि पर एक छोटी-सी झोपड़ी डाल ली जाती थी। इसमें दस-बारह पानी के घड़े होते थे। झोपड़ी में एक छोटी-सी खिड़की निकाल दी जाती थी, जिसमें रामझरा, सागर, लोटे आदि की सहायता से प्यासे राहगीरों को पानी पिलाया जाता। प्यासा पथिक प्याऊ की खिड़की पर बैठकर या आधा झुककर अपने हाथों की ‘ओक’ बना कर पानी पीता। छोटे-बच्चों के लिए उनके माता-पिता अपने हाथों की ओक बनाते। थके-मांदे प्यासे पथिक के लिए प्याऊ का शीतल जल किसी अमृत से कम नहीं होता था। यह राहगीरों की न केवल प्यास बुझाता, बल्कि उनकी आत्मा तक तृप्त कर देता था। जाते-जाते राहगीर अपनी इच्छानुसार अठन्नी-चवन्नी या रुपए का सिक्का प्याऊ पर रख जाते थे, जो पानी का मोल नहीं होता था, बल्कि प्याऊ वाले के लिए धन्यवाद स्वरूप होता था।
उन प्याऊ पर कोई बुजुर्ग महिला या पुरुष बैठते और राहगीरों को पानी पिलाते। उनके झुर्रीदार चेहरों से स्नेह टपकता और वे बड़े प्रेम से पानी पिलाते। पानी पीते-पीते सांस न चढ़ जाए, इसका भी ध्यान रखते। इसलिए बीच-बीच में पानी की धार को रोक देते। कभी ‘ओक’ ठीक से न होने पर स्नेह से डांटते-डपटते। फिर समय बदला। प्याऊ की जगह ठंडे पानी की मशीन आ गई। कुछ समय पहले तक छोटे-बड़े होटल, रेस्तरां, खोमचे-थड़ी वाले सब अलग से पीने का पानी रखते थे। शादी के पंडाल के बाहर दो-तीन ड्रम पानी के भरे होते थे। एक व्यक्ति का यही काम होता था कि खाना खाने के बाद जो लोग पंडाल से बाहर निकलते, वह उनके हाथ धुलवाता और प्रेम से पानी पिलाता, लेकिन पिछले कुछ सालों में बाजारवाद ने ‘हाइजीन’ के नाम पर ऐसा वातावरण बनाया कि बोतलबंद पानी की आंधी में प्याऊ पूरी तरह उड़ गई है और पानी की मशीन भी कम ही दिखाई देती है। यहां तक कि होटल, रेस्तरां, थड़ी-खोमचे वालों ने भी अब बोतल रखना शुरू कर दिया है। आजकल तो शादी-ब्याह में भी पानी के लिए छोटी बोतल रखा जाना ‘स्टेटस सिंबल’ यानी रसूख का प्रतीक बन गया है।
बोतलबंद पानी सीधे-सीधे बाजारवाद से जुड़ा है। पांच रुपए प्रति बोतल से शुरू हुई कीमत चंद ही सालों में बीस रुपए प्रति बोतल पहुंच गई है। यह इतने मुनाफे का सौदा है कि बड़ी-बड़ी कंपनियां पानी के इस बोतलबंद धंधे में कूद पड़ी हैं। कुछ कंपनियों के पानी की बोतल के दाम सुनकर तो पैरों के तले की जमीन खिसक जाए। सवाल यह है कि स्वास्थ्य के नाम पर हम जो ये बोतलों में बंद पानी का प्रयोग कर रहे हैं, वह हमारे लिए कितना फायदेमंद है।
वास्विकता यह है कि बोतलबंद पानी हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक सिद्ध हो सकता है, क्योंकि पानी को अधिक समय तक सुरक्षित रखने के लिए इसमें कई तरह के रसायन मिलाए जाते हैं, जो हमारे लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं। इनसे हमारी शारीरिक कार्यप्रणाली धीरे-धीरे कमजोर होने लगती है। बोतलबंद पानी से गैस की समस्या होना तो आम बात है। यह प्रजनन और तंत्रिका संबंधी विकारों को भी बढ़ा सकता है। यह गर्भवती महिलाओं, छोटे बच्चों और बुजुर्गों के लिए भी ठीक नहीं माना जाता है।
हम सब जानते हैं कि प्लास्टिक हमारी प्यारी पृथ्वी और उसके वातावरण के लिए सबसे घातक है। आज पालीथिन की थैलियों के बाद सबसे ज्यादा प्लास्टिक की बोतलें इधर-उधर पड़ी मिलती है। पानी पीने के बाद लोग बोतलों को इधर-उधर फेंक देते हैं। जहां भी पानी के संयंत्र लगते हैं, वहां से पानी का इतना अधिक दोहन किया जाता है कि चंद सालों में ही जमीन का पानी या तो सूख जाता है या बहुत नीचे चला जाता है। हमारी सभ्यता-संस्कृति और धर्म शास्त्रों में प्यासे को पानी पिलाना बड़े पुण्य का काम माना जाता है। इसलिए लोग पहले के समय में प्याऊ लगाते थे। पर पुण्य का यह कार्य अब मुनाफे के सौदे में बदल गया है। इस वर्ष भयंकर गर्मी पड़ रही है। ऐसे में पुराने दौर को देख चुके लोगों को प्याऊ का वह जमाना याद आता रहा है।