हमारी सांसें चल रही हैं, होश ठिकाने पर है, तन-मन स्वस्थ है और हमारे आसपास हमारे अपने हैं। ऐसे में यकीन हो जाता है कि हमारी जिंदगी सार्थक सिद्ध हो रही है। इस जमाने में हमारा अपना एक अलग अस्तित्व है। या यों कहा जाए कि हम कहीं किसी के पूरक हैं तो कहीं किसी की जरूरत हैं। एक व्यक्ति के रूप में, व्यक्तियों के समूह यानी कि समाज के रूप में और समाज के समूह यानी देश के रूप में हमारा अपना एक अलग महत्त्व है। ऐसी स्थिति में आकर स्वाभाविक रूप से जिजीविषा कई गुना बढ़ जाती है। एक प्रकार से यह स्थिति व्यक्ति के अंतर्मन के संसार को सुनहरा स्वरूप प्रदान करने में प्रबल रूप से सहायक सिद्ध होती है।

रहा सवाल शारीरिक और मानसिक तृप्ति का, तो इसके लिए हमें धनोपार्जन के लिए सतत प्रयास करने होते हैं। इसका तरीका सही भी हो सकता है और गलत भी। लेकिन सही तरीका अपनाने पर स्वाभाविक रूप से मन को सुकून मिलता है और गलत तरीका अपनाने पर चाहे कोई हमें देखे या न देखे, हमारी अपनी अंतरात्मा ही हमें कचोटा करती है। इसके चलते हम सहज और सामान्य जीवन नहीं जी पाते। और तो और, स्वाभाविक रूप से मानसिक तनाव की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है। ऐसी स्थिति में हम अपनों के बीच ही अपने प्रति विश्वास खोने लगते हैं।

परिणाम यह होता है कि हम तनाव रहित जीवन जीने का आनंद नहीं ले पाते। अपने आप अपने में ही उलझ जाते हैं। हर समय कहीं न कहीं किसी प्रकार के अनिष्ट की आशंका मन को घेरे रखती है। हर आहट पर हम चौंक पड़ते हैं और देखते ही देखते इतने अंतर्मुखी हो जाते हैं कि हमें हमारे अलावा कोई और दिखाई नहीं देता। ऐसी स्थिति में पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों में हमारे अपने प्रति सम्मान का वह भाव नजर नहीं आता जो कि अपेक्षित होता है। गलत तरीके का धनोपार्जन सुख का कारक नहीं हो सकता। दुनिया चाहे न जाने कि आप कैसे हैं और क्या हैं, लेकिन थोड़ा रुक कर सोचने की जरूरत है कि हम जो यह अपनों के नाम पर गलत तरीके से संग्रह कर रहे हैं, वे तो हमें अच्छी तरह से जानते हैं। इसलिए उनकी नजरों में हम सम्मान के पात्र होंगे, तभी उनसे सम्मान पा सकेंगे।

खराब समय में हर कोई कर लेता है किनारा

बाहरी दुनिया में हमारा रुतबा चाहे कैसा भी हो, लेकिन जब तक समय हमारे अनुकूल रहेगा, तब तक ही हम सम्मान पा सकेंगे। मगर विपरीत समय आने पर पराए तो पराए, हमारे अपने भी हमसे किनारा करने में देर नहीं करेंगे। आमतौर पर देखा गया है कि राजनीतिक, प्रशासनिक, सामाजिक और परिवारिक हुकूमत करने वाले भी उनकी पारी समाप्त होते-होते अपने प्रति सम्मान के भाव में कमी पाते जाते हैं। कभी-कभी तो एक समय ऐसा भी आ सकता है कि एकाकी जीवन जीने को बाध्य होना पड़े। इसलिए प्रयास ऐसा होना चाहिए कि हम विपरीत से विपरीत परिस्थिति में हों, तब भी हमारे प्रति लोगों के मन में श्रद्धा और विश्वास की भावना निरंतर बनी रहे।

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भौतिक समृद्धि कभी वास्तविक सुख का आधार नहीं हो सकती। मन की प्रसन्नता के चलते विपरीत से विपरीत परिस्थिति में भी अपनों का साथ व्यक्ति को संबल प्रदान करता है। मन की प्रसन्नता का मूलमंत्र यही है कि प्राप्त को पर्याप्त माना जाए। मन की चंचलता पर लगाम कसी जाए। इसके अतिरिक्त निर्मल निर्विकारी आत्म स्वभाव से पराए दर्द की अनुभूति करते हुए उसके निदान के लिए यथासंभव प्रयास किए जाएं। इसके चलते अंतर्मन में एक प्रकार की जो आत्मीय प्रसन्नता होती है, उसकी वास्तविक अनुभूति व्यक्त करना शब्द सामर्थ्य से सर्वथा परे होता है। केवल और केवल अनुभूति ही की जा सकती है।

पद-प्रतिष्ठा का भी एक कालखंड निश्चित

सचमुच यही स्थिति जीने की सार्थकता सिद्ध करती है। अन्यथा केवल अपने और अपने परिवार के प्रति समर्पण भाव ही हमारे सुखी और समृद्ध जीवन का आधार नहीं हो सकता। दरअसल, कहीं न कहीं हमारी सामाजिक उपयोगिता भी निकल कर आना चाहिए। अन्यथा अपने आप में ही जीना, जीवन को बोझ बना देता है। व्यवहार में देखा गया है कि धन-दौलत और पद प्रतिष्ठा के आभामंडल से हम हर समय आलोकित नहीं रह सकते। माया तो चंचल है और पद-प्रतिष्ठा का भी एक निश्चित कालखंड है। ऐसे में अगर जीते जी अंतिम अवस्था में ही एकाकी जीवन जीने को बाध्य होना पड़े, तो भला मृत्यु के बाद कौन याद करेगा?

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कुल मिलाकर सफल जीवन की आधारशिला के लिए व्यक्ति का आचरण और व्यवहार अंतर्मन की पवित्रता के साथ-साथ बाहरी परिवेश में भी उच्चस्तरीय आदर्श से परिपूर्ण होना चाहिए। इस दृष्टि से जो पूर्ण होते हैं, भावी इतिहास का महत्त्वपूर्ण अंग बन जाते हैं। सदियों तक उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का गुणगान किया जाता है। अन्यथा अपने और अपने परिवार के लिए बहुत लोग जीते हैं, जिनका कि दो-चार पीढ़ियों पश्चात कहीं कोई नामलेवा नहीं रहता। मगर हर दौर में आप और हम अलग-अलग युगों के महापुरुषों की जीवन गाथा को शिद्दत से याद करते हैं। कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में हम उनसे प्रेरित होते हैं, लेकिन जरूरत इस बात की है कि हम अपना ही चरित्र ऐसा गढ़ें कि आने वाली पीढ़ियों के समक्ष एक अनुकरणीय आदर्श के रूप में स्थापित हो सके।