कथित भ्रष्टाचार के आरोप में किसी सेवारत मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी एक कानूनी मुद्दा है, एक राजनीतिक और संवैधानिक मुद्दा है। यह एक ऐसा मुद्दा भी है, जो संविधान के शब्दों से परे है; यह संवैधानिक नैतिकता को स्पर्श करता है। मैं तथाकथित ‘तथ्यों’ को स्पष्ट करना चाहता हूं। मुख्यमंत्रियों के खिलाफ आरोप है कि उन्होंने ‘रिश्वत’ लेकर रिश्वत देने वालों को फायदा पहुंचाया। फिलहाल, केवल इतना कहा जा सकता है कि ‘भ्रष्टाचार का आरोप’ ‘दोष सिद्धि’ के समान नहीं है। समय-समादर कानूनी सिद्धांत है कि ‘दोषी साबित होने तक प्रत्येक व्यक्ति निर्दोष है’।
इसलिए, आइए निर्दोषिता की धारणा (कानूनी पहलू) से बात शुरू करते हैं। एक व्यक्ति एक राजनीतिक दल का सदस्य है। राजनीतिक दल चुनाव लड़ता है, उसके उम्मीदवार विधानसभा में अधिकांश सीटें जीतते हैं, विधायक दल उस व्यक्ति को नेता चुनता है, राज्यपाल उसे मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाता है, मुख्यमंत्री और उसके मंत्री पद ग्रहण करते हैं, और नई सरकार अपना स्थान लेती है। यह कथानक जाना-पहचाना है और पिछले पचहत्तर वर्षों में इसे सैकड़ों बार बरता जा चुका है। कथानक ‘वेस्टमिंस्टर’ सिद्धांतों (राजनीतिक पहलू) और संविधान के प्रावधानों (संवैधानिक पहलू) के अनुसार है।
एक मुख्यमंत्री को पद से हटाना
यह स्वत: स्पष्ट है कि एक मुख्यमंत्री को अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए स्वतंत्र व्यक्ति होना चाहिए। उसे राज्यपाल को सलाह देनी चाहिए; कैबिनेट बैठकें आयोजित करनी; लोगों के विचार और शिकायतें सुननी चाहिए; उसे विधानसभा में बोलना और सुनना; प्रस्तावों और विधेयकों पर मतदान करना होगा। और, सबसे अधिक, चूंकि हमारी सत्ता प्रणाली दस्तावेजों या फाइलों पर आधारित है, इसलिए सब कुछ लिखित और हस्ताक्षरित होना चाहिए। कोई भी परतंत्र व्यक्ति मुख्यमंत्री के कार्यों और कर्तव्यों का निर्वाह नहीं कर सकता है।
किसी मुख्यमंत्री को हराने और पद से हटाने के कई तरीके हैं। चुनावी तरीका तो यह है कि एक मुख्यमंत्री और उसकी पार्टी को ऐसे चुनाव में हराना होता है, जो पांच साल में एक बार या उससे पहले होता है। संसदीय तरीका यह है कि मुख्यमंत्री को हटाने के लिए विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव पारित किया या वित्त विधेयक अथवा किसी नीति पर महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव को अस्वीकार किया जा सकता है। किसी भी स्थिति में, बहुमत जरूरी होगा। इसके अलावा, राजनीतिक दलों ने किसी मुख्यमंत्री को पद से हटाने के लिए दुष्ट तरीके ईजाद कर लिए हैं।
‘आपरेशन लोटस’ एक ऐसा आविष्कार है, जिसके तहत एक निश्चित संख्या में विधायकों को सत्तारूढ़ दल से इस्तीफा देने या किसी अन्य पार्टी में जाने के लिए राजी किया जाता है, और सत्तारूढ़ दल को विधानसभा में अल्पमत में ला दिया जाता है। दसवीं अनुसूची के तहत दलबदल करने पर सदस्यों को अयोग्य ठहरा दिया जाएगा; फिर भी, दसवीं अनुसूची का खुलेआम उल्लंघन किया जाता है।
सरकार को अस्थिर करना
क्या किसी मुख्यमंत्री को उसके पद से हटाने के और भी तरीके हो सकते हैं? मुझे ऐसा करने का कोई दूसरा तरीका नजर नहीं आता। मगर इस मामले में कई लोग बहुत चतुर हैं। उन्होंने मुख्यमंत्रियों को हटाने का एक स्पष्ट कानूनी तरीका खोज लिया है: उनके खिलाफ एफआइआर या ईसीआइआर दर्ज करो, पूछताछ के लिए बुलाओ और उन्हें गिरफ्तार कर लो।
इस मामले में सीबीआइ कुछ हद तक सतर्क है, लेकिन ईडी बेशर्म है। एक बार जब कोई मुख्यमंत्री गिरफ्तार हो जाता है, तो राज्यपाल द्वारा उसके इस्तीफे या बर्खास्तगी की मांग उठने लगती है। तर्क दिया जाता है कि मुख्यमंत्री को, किसी भी अन्य आरोपी की तरह, अदालत के समक्ष पेशी की प्रक्रिया, जमानत के लिए आवेदन, पुलिस हिरासत, न्यायिक हिरासत, आदेशों के खिलाफ अपील और अंत में जमानत देने या इनकार करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से गुजरना होगा।
इस बीच, सरकार असुरक्षित रहती है। वह लड़खड़ाती हुई किनारे पर खड़ी रहती और देर-सवेर गिर जाती है। अगर कोई अंतरिम नेता गिरफ्तार मुख्यमंत्री की जगह लेता है, तो उसे भी गिरफ्तारी जैसे खतरे का सामना करना पड़ सकता है। किसी भी राजनीतिक दल के पास मुख्यमंत्री पद के लिए लगातार उम्मीदवार खड़े करते रहने की ताकत या लचीलापन नहीं होता। इस तरह भ्रष्टाचार के आरोपों का तात्कालिक उद्देश्य- एक मुख्यमंत्री को पद से हटाना- हासिल कर लिया जाता है।
जाहिरा तौर पर यह सब कानूनी है। राजनीतिक दृष्टि से, यह अपमानजनक हो सकता है; संवैधानिक दृष्टि से, मामला बहस योग्य है; लेकिन मेरे प्रश्न का आयाम बड़ा है। क्या ऐसे देश में, जिसने सरकार के ‘वेस्टमिंस्टर’ ढांचे को अपनाया है, एक सेवारत मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी और हिरासत संवैधानिक नैतिकता के अनुरूप है? क्या संविधान को तत्कालीन राजनीतिक शक्तियों द्वारा मिटाया जा सकता है?
संसदीय लोकतंत्र की रक्षा करना
कुछ देशों को दुर्भावनापूर्ण राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, जांच एजंसियों को बाध्य करने और अदालतों के परस्पर विरोधी निर्णयों (जमानत के मामले में) के गंभीर खतरों का एहसास हुआ। तो, उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति या सरकार के मुख्य कार्यकारी की प्रतिरक्षा पर एक प्रावधान बनाया। भारत में न्यायाधीशों के मामलों में, सर्वोच्च न्यायालय का फैसला है कि प्रधान न्यायाधीश या उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की पूर्व सहमति के बिना किसी न्यायाधीश के खिलाफ कोई जांच नहीं चलाई जा सकती, और इसमें एक प्रतिरक्षा निहित है।
अगर भूमिकाएं उलट जाएं तो क्या होगा? मान लीजिए कि कोई राज्य सरकार प्रधानमंत्री पर, अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर, अपराध करने का आरोप लगाती और उसे गिरफ्तार कर लेती है, और मजिस्ट्रेट प्रधानमंत्री को पुलिस या न्यायिक हिरासत में भेज देता है। तो, परिणाम भयानक और विनाशकारी होंगे।
प्रतिरक्षा प्रावधानों के अभाव में, क्या न्यायालयों को संविधान में निहित इस भावना को नहीं पढ़ना चाहिए कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को तब तक गिरफ्तारी से छूट प्राप्त है, जब तक उन्हें लोकसभा या विधानसभा में विश्वास (बहुमत का समर्थन) प्राप्त है? यही असल मुद्दा है। इसी के उत्तर से यह तय होगा कि संसदीय लोकतंत्र के ‘वेस्टमिंस्टर सिद्धांत’ जीवित रहेंगे या नहीं और भारत में संवैधानिक नैतिकता कायम रहेगी या नहीं।