सतीश देशपांडे का लेख ‘उच्च शिक्षा का अंतिम संकट’ (7 मई) पढ़ा। इसमें देश की उच्च शिक्षा के संकट, बाजार या पूंजी, राजसत्ता के गठजोड़ और शिक्षा जगत में व्याप्त इनके कुछ एजेंटों का सटीक चित्रण है। इससे भी ज्यादा बेहतर तरीके से अमेरिका या पश्चिमी जगत से विचारों की भीख मांगने के ‘कुलीन’ तरीके का विश्लेषण है। दरअसल, इसी ‘कुलीन भीख-मंगी’ को ‘सुधार’ जैसे भ्रामक विशेषणों के साथ पेश किया जा रहा है। इस समय उच्च शिक्षा चौराहे पर खड़ा है। ऐसे में लेखक ने जिन संकटों को रेखांकित किया है, शायद उन्हीं मुद्दों पर प्रश्न करने के एवज हिंदू कॉलेज के नौ शिक्षकों को ‘सजा’ दी गई!
लेख के अंत में एक महत्त्वपूर्ण बात कही गई है। मैं वहीं से अपनी बात कहूंगा। बिहार 1912 में बना और पटना विश्वविद्यालय 1917 में। अपने पीएचडी के दौरान मैंने कुछ संस्थाओं, पटना विश्वविद्यालय, संग्रहालय, बिहार ऐंड ओड़िशा रिसर्च सोसाइटी का अध्ययन किया। किसी जमाने में बिहार की ये संस्थाएं अंतरराष्ट्रीय महत्त्व का केंद्र थीं। आज विश्वविद्यालय की जो हालत है, उसकी सामाजिक समीक्षा जरूरी है। यह भी सामने आना चाहिए कि उपकुलपति और बड़े अधिकारी, प्राचार्य आदि की सामाजिक या जातिगत पृष्ठभूमि क्या रही है और क्या इसका उनके काम पर भी कोई असर दिखा!
यह मेरी निजी राय है कि जहां-जहां दलित-पिछड़ों और अन्य वंचित वर्ग का उभार होगा, अपने अधिकारों के प्रति ये सजग होंगे, सवर्ण और सामंती कुलीन वर्ग वहां की सभी संस्थाओं को बर्बाद करके अपना आशियाना बदल लेंगे। यहां यह बता देना जरूरी है कि बिहार की सभी संस्थाएं शुरू से ही इन सामंती कुलीनों के कब्जे में रही हैं। हर विश्वविद्यालय, कॉलेज और संस्थाओं को इन्होंने अपनी निजी जागीर की तरह जातिगत खेमेबाजी में बांट रखा था। बिहार की लगभग हर संस्था का यही हाल था।
यही नहीं, जब तक अंकों के आधार पर इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में दाखिले होते थे या फिर व्याख्याता की नियुक्तियां होती थीं, इन्होंने अपने रिश्तेदारों और जातिगत आग्रहों के साथ ‘अपने’ लोगों के अंक बढ़ा कर उनके दाखिले करवाए, नौकरियां बांटीं। उच्च शिक्षा की बर्बादी की बुनियाद यहीं पड़ी। पटना और उत्तर बिहार को जोड़ने वाला गांधी सेतु अपने तीस वर्ष की उम्र में ही खत्म होने को तैयार है। पता करने की जरूरत है कि उसे बनाने वाले लोग कौन थे और कहां से पढ़े थे!
लेख में बिहार के विश्वविद्यालयों के नष्ट होने को लेकर जिस किवदंती का जिक्र किया है, वह बिहार के सामंती लोगों द्वारा गढ़े गए हैं। शिक्षा के सामने संकट तो जगन्नाथ मिश्रा ने अपने काल में ही पैदा कर दिया था। नब्बे के दशक में बिहार में वाकई एक जबर्दस्त राजनीतिक परिवर्तन आया और सत्ता एक सशक्त पिछड़े नेतृत्व को मिली, लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बने। यहां मुझे ग्राम्शी बहुत प्रासंगिक लगते हैं। सत्ता तो थी पिछड़ा नेतृत्व में, लेकिन वैचारिक वर्चस्व के सभी केंद्र ‘कास्ट हिंदू’ के नियंत्रण में थी। इसलिए संकट लाजिमी था।
लालूजी ने अपने शासन काल के शुरुआती दिनों में शिक्षा और स्वास्थ्य पर ध्यान दिया। अगर यही रुख बना रह जाता तो स्वास्थ्य और शिक्षा के मोर्चे पर दलितों और पिछड़ों को बहुत फायदा होता। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि शिक्षा और स्वास्थ्य से संबंधित संस्थाओं पर ‘मेरिट’ की दुहाई देने वालों का ही वर्चस्व था। उन्होंने सब बर्बाद किया या होने दिया और अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए बड़े शहरों में भेज दिया। वही आज घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं।
अगर समाजशास्त्रीय नजरिए से दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन की कार्यशैली पर नजर डाली जाए तो बहुत कुछ दिखता है। अब यहां दलित-पिछड़ों और अन्य वंचित वर्गों का प्रतिनिधित्व बढ़ रहा है। जाहिर है कि इसे भी बर्बाद कर दिया जाएगा और ‘साहब’ लोग अपने बच्चों के लिए अमेरिका और यूरोप में व्यवस्था कर लेंगे।
रतन लाल, दिल्ली विवि
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