अमेरिका और यूरोप के वे तमाम देश जो मौजूदा वैश्विक व्यवस्था में बड़ी हैसियत रखते हैं, कोरोना महामारी ने उनके नए यथार्थ और विरोधाभास से दुनिया को परिचित कराया है। महामारी के एक साल से लंबे समय में इन देशों में जहां एक तरफ व्यवस्थागत चुस्ती और दूरदर्शिता दिखी, वहीं यह भी दिखा कि वहां के समाज में नस्लीय दुराव जैसी हिंसक सोच कैसे आज भी बहाल है। पिछले कुछ अरसे में यह सोच खासतौर पर एशियाई मूल के लोगों के खिलाफ नफरत भरे सलूक में बदल रही है। अकेले अमेरिका की बात करें तो जॉर्ज फ्लॉयड की मौत से लेकर अटलांटा में हुई गोलीबारी तक एक चक्र पूरा हो जाता है, जो अमेरिकी समाज के चरित्र को नए सिरे से दरकार सामने रखता है। कोरोनाकाल में रंग और क्षेत्र के नाम पर बढ़े इस भय और नफरत से जुड़े तमाम पक्षों की चर्चा कर रहे हैं प्रेम प्रकाश।

यह संयोग तो कतई नहीं है। यह बड़ा दुर्भाग्य है हमारे दौर का, हमारे दौर की इंसानी समझ का कि कोरोना महामारी से संघर्ष करते हुए हम उन धारणाओं-विचारों से भी संघर्ष कर रहे हैं, जो मानवीय सहअस्तिव की वैश्विक संकल्पना के खिलाफ हैं। तीन दशक पहले जब दुनिया के एक छतरी के नीचे आने जैसे सम्मोहक मुहावरे विश्व की ताकतवर अर्थव्यवस्थाओं और आर्थिक मंचों-संस्थाओं की तरफ से उछाले जा रहे थे तो उनमें दुनिया की उत्तर आधुनिक रचना को हर लिहाज से स्वर्णिम बताया जा रहा था। तब इस खतरे को विमर्श और चिंता से बाहर कर दिया गया था कि दो-दो विश्व युद्ध और उसके बाद लंबे चले शीत युद्ध की खरोंच क्या इतनी ऊपरी थी कि इनसे हम रातोंरात उबर गए। यह सवाल तब और बड़ा हो जाता है जब इतिहास यह बताता है कि उस दौर को बीते भी ज्यादा वक्त नहीं हुआ है जब इसी तरह दुनिया को औपनिवेशिक छाते के नीचे एक बताया जा रहा था। बहरहाल, बात उस नस्लीय नफरत और हिंसा की जो हाल के महीनों में अमेरिका से लेकर यूरोप तक एशियाई मूल के लोगों के खिलाफ भड़की है। इस हिंसा को अपवाद नहीं माना जा सकता बल्कि ये तो अब इन देशों में तेजी से हिंसक सामाजिक धारणा और सलूक की शक्ल ले रही हैं।

भय का बारूद
नस्लीय भेदभाव का नया और सबसे बड़ा मामला दो महीने पहले का है। अमेरिका के अटलांटा में गोलीबारी की तीन घटनाओं में छह कोरियाई मूल के लोगों सहित आठ की मौत हो गई। मरने वालों में तीन महिलाएं हैं। गोलीबारी की यह घटना चीनी और कोरियाई मूल के लोगों द्वारा चलाए जा रहे स्पा सेंटर पर हुई। ये हमला उस वक्त हुआ है, जब कोरोना महामारी शुरू होने के बाद से एशियाई मूल के लोगों के खिलाफ अमेरिका सहित यूरोप के भी कई देशों में अपराध बढ़े हैं।

कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी के ‘सेंटर फॉर स्टडी ऑफ हेट एंड एक्सट्रीमिस्म’ की एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका के सबसे बड़े 16 शहरों में 2021 के जनवरी से मार्च के बीच एशियाई-अमेरिकी लोगों पर हिंसा के मामले 2020 की तुलना में 164 फीसद बढ़ गए हैं। इन शहरों की पुलिस 2020 की इसी अवधि के दौरान ऐसे 36 मामलों की जांच कर रही थी, पर इस साल यह आंकड़ा 95 पर पहुंच चुका है। यही नहीं, इस साल जनवरी से मार्च के बीच जितनी हिंसा एशियाई-अमेरिकी लोगों ने झेली है, वह संख्या 2019 की हिंसा के पूरे आंकड़े से भी अधिक है।

हिंसा का बारहमासा
न्यूयॉर्क जैसे शहर में तो ऐसी हिंसा के मामले एक वर्ष के भीतर ही 223 फीसद तक बढ़ चुके हैं। न्यूयॉर्क में 2021 के मार्च तक ऐसे 42 मामले दर्ज किए गए थे, पर इसके बाद अप्रैल के पहले तीन हफ्ते में ही 24 नए मामले सामने आ गए। अमेरिका में पनपी इस घृणा से कनाडा भी अछूता नहीं है। वैंकोवर की कुल आबादी में 42 फीसद आबादी एशियाई-अमेरिकी मूल की है और यहां एक वर्ष के भीतर ही ऐसी हिंसा के मामलों में 700 फीसद की वृद्धि दर्ज की गई है।

‘एशियन अमेरिकन एडवांसिंग जस्टिस’ के संस्थापक कोनी चुंग जोई कहते हैं कि चीनी और एशियाई मूल के लोगों पर हो रहे हमले पुलिस में दर्ज आकंड़ों से बहुत ज्यादा हैं। बड़ी संख्या में लोग हमले और उत्पीड़न की घटनाएं दर्ज नहीं कराते हैं क्योंकि पुलिस ऐसे मामलों में कुछ नहीं करती है। कोरोना बढ़ने के बाद एफबीआइ ने इस बात की चेतावनी दी थी कि एशियाई मूल के लोगों पर हमले बढ़ेंगे। लेकिन नस्लीय हमले अब आशंका से कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ रहे हैं।

तंज और फब्तियां
टेक्सास में रहने वाली भारतीय मूल की प्रत्यंचा बताती है कि उसके कई परिचित बड़े शहरों से अपना कामकाज छोड़कर दूसरे शहरों में रह रहे अपने परिजनों के पास आ गए हैं। वे एक बेहद डरावने दौर से गुजर रहे हैं। न्यूयॉर्क के चाइना टाउन में स्पा चलाने वाली एक लड़की टीवी पर बताती है कि हिंसक हमलों से खतरनाक वे तंज और फब्तियां हैं जो उन्हें अब कहीं भी सुनने को मिल जाती हैं। कोई उन्हें देख रास्ता बदल देता है तो कोई शरीर पर थूकने जैसी हिमाकत कर बैठता है।

खासतौर पर चीनी और कोरियाई मूल के लोगों में आज पूरी दुनिया में व्यापक डर का माहौल है। इस नफरत को एक तरफ इस बात से जोड़कर देखा जा रहा कि वैश्विक स्तर पर महामारी का प्रकोप एशियाई खासतौर पर चीनी मूल के लोगों के कारण फैला है। दूसरे, इस कारण सब जगह जिस तरह आर्थिक दबाव बढ़ा है, उसने लोगों की असुरक्षा बढ़ा दी है और वे नस्लीय विभेद या क्षेत्रवाद को आगे करके अपनी आजीविका और संसाधनों के बंटवारे में निज हित को सुरक्षित करना चाहते हैं।

जर्मनी का अनुभव
इंडोनेशियाई छात्र जैकी जर्मनी की राजधानी बर्लिन में रहता है। रास्ते में आते-जाते उसे ऐसे सवालों का सामना जब-तब करना पड़ता है कि वह चीनी है, एशियाई है और यहां कर क्या रहा है। ये सवाल कब शब्दों से आगे हिंसक सलूक में बदल जाएं कहना मुश्किल है। जैकी भी बताता है कि खुद उस पर इस तरह के बर्ताव के साथ हमला तक किया गया है।

इंडोनेशिया से ही आने वाली पुष्पा बॉन में पढ़ रही है। एक बार देर शाम घर लौटते समय उन पर किसी ने जलते हुए पटाखे फेंक दिए। उसे लगता है कि हिजाब पहनने के कारण उसके साथ ऐसा किया गया। बर्लिन में रहने वाले चीनी फिल्मकार पोपो फैन और उनके निर्माता साथी को उनके एशियाई नैन-नक्श के कारण एक बार किसी ने बहुत हमलावर अंदाज में जापान वापस लौटने को कहा, जबकि वह जापानी नहीं है।

सद्भाव को आघात
अमेरिका में पिछले साल अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में मौत के बाद पूरी दुनिया में इतिहास, उपनिवेशवाद, और नस्ल को लेकर जो नई बहस शुरू हुई थी, उससे यह संभावना बढ़ी थी कि महामारी के मुश्किल दौर में यह घटना एक बड़ा सबक बनेगी। इस घटना का ही असर रहा कि लंबे समय तक नस्लीय दुराव और औपनिवेशिक अन्याय का पाल थामने वाले ब्रिटेन में नस्लीय विरोध के खिलाफ न सिर्फ बड़ा आंदोलन खड़ा हुआ बल्कि वहां की सरकार को भी लगा कि सबके प्रति आदर और सद्भाव का संदेश उसकी तरफ से जाना चाहिए।

इसी दौरान ब्रितानी सिक्के पर महात्मा गांधी का चित्र अंकित करने का फैसला भी हुआ। पर अब जिस तरह से महामारी की दूसरी लहर के साथ नस्लीय नफरत और हिंसा की भी दूसरी लहर उठी है, वह चिंता बढ़ाने वाली है। वैश्विक मैत्री और सद्भाव के प्रयासों पर इसका गहरा असर पड़ेगा।