बिहार विधानसभा चुनाव में एक दिलचस्प विरोधाभास उभरकर सामने आया है। दलितों पर सियासत में आगे रहने वाली भाजपा और कांग्रेस, आरक्षित सीटों पर टिकट देने में सबसे पीछे दिख रही हैं। दोनों राष्ट्रीय दल केवल 11-11 अनुसूचित जाति (SC) सीटों पर ही मैदान में हैं, जबकि राज्य में ऐसी 38 आरक्षित सीटें हैं।

अधिकतर सीटें सहयोगी दलों को दीं

संविधान, आरक्षण और प्रतिनिधित्व पर बहस तो खूब होती रही है, लेकिन जब उम्मीदवार तय करने की बारी आई, तो भाजपा और कांग्रेस दोनों ने आरक्षित सीटों का बड़ा हिस्सा अपने क्षेत्रीय सहयोगियों के लिए छोड़ दिया। राजग में जद(यू) को सबसे ज्यादा 15 सीटें मिली हैं, लोजपा (रामविलास) को आठ और हम (से) को चार सीटें दी गई हैं।

महागठबंधन का हाल भी कुछ अलग नहीं

विपक्षी महागठबंधन में भी यही तस्वीर है। कांग्रेस सिर्फ 11 आरक्षित सीटों पर उतरी है, जबकि राजद 20, भाकपा (माले) छह, भाकपा दो और वीआईपी एक सीट पर लड़ी रही है। कई सीटों पर दोस्ताना मुकाबले की नौबत आ गई है – जैसे सिकंदरा (जमुई) और राजा पाकर (वैशाली) में।

2020 के चुनावों का लेखा-जोखा

2020 में भाजपा ने 15 में से 9 आरक्षित सीटें, जद(यू) ने 17 में से 8, हम(से) ने 5 में से 3, और वीआईपी ने एकमात्र आरक्षित सीट जीती थी। दूसरी ओर राजद ने 19 में से 9, कांग्रेस ने 13 में से 4, भाकपा(माले) ने 5 में से 3, और भाकपा ने एक सीट जीती थीं।

2024 लोकसभा में दलित वोट BJP के साथ क्यों गए?

लोकसभा 2024 में, जब ‘इंडिया ब्लॉक’ संविधान बचाओ मुहिम चला रहा था, बिहार में दलित वोटरों ने फिर भी राजग का साथ दिया। भाजपा प्रवक्ता अनामिका पासवान के अनुसार, नीतीश सरकार की योजनाओं ने महादलित तबके को जोड़ा है। वहीं, कांग्रेस प्रवक्ता अंशुल अविजित का कहना है कि गठबंधन राजनीति में सीट समझौते ही वजह हैं कि पार्टी को अपने पारंपरिक दलित गढ़ों से पीछे हटना पड़ रहा है।

विश्लेषक मानते हैं कि दलित प्रतिनिधित्व अब सिर्फ बयानबाजी नहीं, बल्कि टिकट बंटवारे की राजनीति का आईना बन चुका है। 2025 के चुनावों में यह देखना अहम होगा कि क्या दलित मतदाता इस बार ‘सिर्फ वायदों’ से आगे जाकर, वास्तविक हिस्सेदारी के लिए वोट देंगे।