राजधानी दिल्ली के कुछ इलाकों में आज (28 अक्टूबर) को कृत्रिम बारिश (Cloud Seeding) की पहली टेस्टिंग की गई। आईआईटी-कानपुर के सहयोग से दिल्ली सरकार अगले कुछ दिनों में इस तरह की और टेस्टिंग करेगी। राष्ट्रीय राजधानी में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए कृत्रिम वर्षा कराने के उद्देश्य से किया गया यह परीक्षण, सर्दियों के महीनों के दौरान बिगड़ती वायु गुणवत्ता (Air Quality) में सुधार की दिल्ली सरकार की व्यापक रणनीति का हिस्सा है। गौर करने वाली बात है कि दिल्ली मंत्रिमंडल ने सात मई को 3.21 करोड़ रुपये की कुल लागत से कृत्रिम बारिश के लिए पांच परीक्षण करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी। हालांकि, प्रतिकूल मौसम और मानसून की स्थिति के कारण परीक्षण को कई बार स्थगित करना पड़ा। लेकिन लोगों के मन में क्लाउड सीडिंग यानी कृत्रिम बारिश (Artificial Rain) को लेकर कई सवाल हैं। आज हम आपको बताएंगे क्लाउड सीडिंग क्या है, यह कैसे होती है और कौन से केमिकल्स का इस्तेमाल इसके लिए किया जाता है।

क्लाउड सीडिंग क्या है?

क्लाउड सीडिंग यानी कृत्रिम वर्षा (Artificial Rain) एक ऐसी टेक्नोलॉजी है जिसमें वैज्ञानिक बादलों के अंदर रासायनिक तत्वों (chemicals) को छोड़ते हैं ताकि बारिश कराई जा सके। यह तरीका उन इलाकों में अपनाया जाता है जहां बारिश कम होती है या सूखा पड़ता है।

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क्लाउड सीडिंग का मुख्य उद्देश्य बारिश की मात्रा बढ़ाना, हवा को साफ करना और पानी की कमी को दूर करना। यह प्रक्रिया प्राकृतिक बारिश की नकल करती है, बस फर्क इतना है कि इसमें बादलों को ‘उकसाया’ जाता है ताकि वे जल्दी और ज्यादा बारिश करें। दिल्ली में वायु गुणवत्ता को बेहतर करने के इरादे से क्लाउड सीडिंग की जा रही है।

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क्लाउड सीडिंग कैसे होती है?

क्लाउड सीडिंग की प्रक्रिया तीन मुख्य चरणों में होती है:

बादलों की पहचान
जिस जगह क्लाउड सीडिंग करनी होती है, वैज्ञानिक वहां सबसे पहले यह देखते हैं कि कौन से बादल बारिश के लिए उपयुक्त हैं। क्योंकि सभी बादल बारिश नहीं कर सकते। क्लाउड सीडिंग के लिए ऐसे बादल चाहिए जिनमें काफी मात्रा में नमी (moisture) हो और जिनका तापमान माइनस ज़ीरो डिग्री के आस-पास हो।

रासायनिक छिड़काव
इसके बाद विमान या ड्रोन की सहायता से रासायनिक पदार्थों (केमिकल्स) को बादलों में छिड़का जाता है। इन केमिकल्स को ‘सीडिंग एजेंट’ कहा जाता है। जैसे बीज मिट्टी में बोया जाता है ताकि पौधा उगे, वैसे ही ये एजेंट बादलों में ‘बीज’ बोते हैं ताकि बारिश हो सके।

बारिश का निर्माण
जब ये रासायनिक कण बादलों में पहुंचते हैं तो वे बर्फ के छोटे क्रिस्टल या पानी की बूंदें बनने की प्रक्रिया को तेज करते हैं। धीरे-धीरे बूंदें बड़ी होती जाती हैं और गुरुत्वाकर्षण (gravity) के कारण नीचे गिरने लगती हैं। बस इसे ही कृत्रिम वर्षा (artificial rain) कहा जाता है।

क्लाउड सीडिंग के समय बादलों में कौन से केमिकल छिड़के जाते हैं?

क्लाउड सीडिंग में आम तौर पर 3 मुख्य रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है:
सिल्वर आयोडाइड (Silver Iodide): यह सबसे आम और प्रभावी सीडिंग एजेंट है। यह बर्फ जैसी संरचना बनाता है जिससे पानी की बूंदें तेजी से जमती हैं और गिरने लगती हैं।
सोडियम क्लोराइड (NaCl): साधारण नमक। इसे समुद्री बादलों में इस्तेमाल किया जाता है ताकि वे ज्यादा पानी छोड़ें।
पोटैशियम आयोडाइड और ड्राई आइस (Dry Ice): यह बहुत ज्यादा ठंडे बादलों में इस्तेमाल किए जाते हैं ताकि क्रिस्टल तेजी से बन सकें।

कभी-कभी लिक्विड प्रोपेन या एसिटोन का भी इस्तेमाल किया जाता है लेकिन इन तरीकों का इस्तेमाल बहुत कम किया जाता है।

क्लाउड सीडिंग का इतिहास
क्लाउड सीडिंग का खयाल पहली बार 1946 में अमेरिका के वैज्ञानिक विंसेंट शेफर (Vincent Schaefer) और इरविंग लैंगम्यूर (Irving Langmuir) ने पेश किया था। उन्होंने ड्राई आइस की मदद से यह साबित किया कि बादलों में बर्फ के क्रिस्टल बनाकर बारिश कराई जा सकती है।

इसके बाद दुनिया के कई देशों ने यह तकनीक अपनाई। अमेरिका ने सूखे इलाकों, चीन ने बीजिंग ओलंपिक के दौरान हवा साफ करने के लिए, UAE (दुबई) ने रेगिस्तानी इलाकों में पानी की आपूर्ति बढ़ाने के लिए कृत्रिम बारिश करवाई। अभी भारत में महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और दिल्ली में टेस्टिंग के तौर पर आर्टिफिशियल बारिश कराई गई है।

भारत में क्लाउड सीडिंग
भारत में क्लाउड सीडिंग का प्रयोग 1970 के दशक से होता आ रहा है। महाराष्ट्र ने कई बार सूखे इलाकों में इसे लागू किया। कर्नाटक सरकार ने भी बेंगलुरु और आसपास के क्षेत्रों में बादल बीजने के प्रोजेक्ट चलाए। दिल्ली ने 2023 में वायु प्रदूषण कम करने के लिए कृत्रिम वर्षा की योजना बनाई थी ताकि हवा में मौजूद प्रदूषक कण नीचे गिर जाएं।

हालांकि भारत में यह तकनीक स्थाई समाधान नहीं मानी जाती बल्कि आपातकालीन स्थिति में अस्थायी राहत’ के रूप में इसे देखा जाता है।

क्लाउड सीडिंग के फायदे

सूखे से राहत: सूखे या कम बारिश वाले इलाकों में पानी की कमी दूर की जा सकती है।

खेती को मदद: बारिश से फसलों को फायदा होता है और उत्पादन बढ़ सकता है।

वायु प्रदूषण में कमी: बारिश के बाद हवा में मौजूद धूल और जहरीले कण नीचे गिर जाते हैं जिससे हवा साफ होती है।

जल स्रोतों की पूर्ति: झीलों, नदियों और बांधों में पानी की मात्रा बढ़ाने में मदद मिलती है।

तापमान नियंत्रण: कभी-कभी बारिश कराने से स्थानीय तापमान में भी हल्की गिरावट आती है।

क्या क्लाउड सीडिंग से सेहत को नुकसान होता है?
अब जबकि दिल्ली में क्लाउड सीडिंग की टेस्टिंग हो रही है तो लोगों के मन में सबसे बड़ा सवाल है कि क्या कृत्रिम बारिश से गिरने वाला पानी हानिकारक या जहरीला होता है?

वैज्ञानिकों का कहना है कि सिल्वर आयोडाइड की मात्रा बहुत कम होती है जिससे यह आमतौर पर मानव या पर्यावरण के लिए खतरनाक नहीं होती। हालांकि, लगातार और बड़े पैमाने पर इसका इस्तेमाल मिट्टी और पानी में धातु तत्वों की मात्रा बढ़ा सकता है।

क्लाउड सीडिंग को लेकर कुछ चिंताएं भी हैं:
सिल्वर यौगिक (silver compounds) अगर ज्यादा मात्रा में जमा हों तो इससे मछलियों और सूक्ष्मजीवों पर असर पड़ सकता है।

मानव शरीर में लंबे समय तक एक्सपोज़र से ‘आर्जीरिया’ नामक दुर्लभ स्थिति हो सकती है जिसमें त्वचा पर नीला-भूरा रंग चढ़ जाता है।

बारिश के बाद पानी की रासायनिक शुद्धता पर निगरानी जरूरी होती है।

लेकिन सबसे खास बात है कि अब तक के वैज्ञानिक अध्ययनों में यह साबित नहीं हुआ कि क्लाउड सीडिंग से सीधा स्वास्थ्य नुकसान होता है।

क्या यह तकनीक भरोसेमंद है?
क्लाउड सीडिंग हमेशा सफल नहीं होती। इसके लिए सही मौसम, सही तापमान और सही बादलों की जरूरत होती है। कई बार केमिकल छिड़कने के बाद भी बारिश नहीं होती। सफलता दर औसतन 30% से 50% के बीच मानी जाती है।

इसके अलावा, पर्यावरणविदों का कहना है कि इससे मौसम के प्राकृतिक चक्र में बदलाव आ सकता है और एक जगह की नमी खींचकर दूसरी जगह बारिश की कमी हो सकती है।

कुल मिलाकर कहें तो क्लाउड सीडिंग एक वैज्ञानिक इनोवेशन है जो सूखे, प्रदूषण और जल संकट जैसी समस्याओं से अस्थाई राहत दे सकता है। लेकिन इसे कोई लॉन्गटर्म हल नहीं कहा जा सकता। यह तकनीक तभी कारगर होती है जब प्राकृतिक बादल पहले से मौजूद हों।

जहां तक स्वास्थ्य की बात है, मौजूदा डेटा बताता है कि इससे इंसानों को सीधा नुकसान नहीं है। लेकिन लॉन्गटर्म पर्यावरणीय प्रभावों पर और अध्ययन की जरूरत है।

इसलिए क्लाउड सीडिंग को ‘आपातकालीन वैज्ञानिक उपाय’ कहा जा सकता है जो ज़रूरत पड़ने पर बारिश तो करा सकता है। लेकिन प्रकृति की जगह नहीं ले सकता।