डॉ. वरुण वीर
वैदिक विचारधारा में यज्ञ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कोई भी शुभ कार्य करने से पहले यज्ञ का विधान है। यह बात समझने की है कि अग्नि में डाला गया पदार्थ कभी नष्ट नहीं होता। अग्नि उस स्थूल पदार्थ को जला कर अत्यंत सूक्ष्म बना कर समस्त वायुमंडल में फैला देती है। अगर अग्नि में घी डाला जाए तो वह दूर-दूर तक सुगंध फैला देता है। इस प्रकार जब यज्ञ में केसर, कस्तूरी, जायफल, जावित्री, लौंग, इलाइची, गूगल, मुनक्का, अखरोट, मखाना आदि जड़ी-बूटियों की आहुति दी जाती है तब इन पदार्थों के गुण यज्ञ के स्थान तथा दूर-दूर तक विषैले कीटाणुओं को नष्ट कर एक शुद्ध सकारात्मक शक्ति उत्पन्न करते हैं। इसका प्रभाव केवल करने वाले पर नहीं पड़ता, बल्कि इसके प्रभाव क्षेत्र में आने वाले सभी व्यक्तियों के शारीरिक, मानसिक, आत्मिक स्तर पर भी पड़ता है।
महर्षि मनु ने कहा है। अग्नि उत्तम अभी सम्यक आदित्यम उठती अग्नि में डालने से पदार्थ का गुण भी बढ़ जाता है। अग्नि का कार्य स्थूल पदार्थ को सूक्ष्म बना कर परिमाणात्मक ही नहीं, गुणात्मक बदलाव करना भी है। अग्नि के दो काम हैं- यह शुद्ध करती है और अगर वस्तु का अपना कोई गुण नहीं है तो उसे फैला देती है। खांसी-जुकाम में यूकेलिप्टस के तेल की कुछ बूंदें गरम पानी में डाल कर भाप लेने की सलाह देते हैं, क्योंकि अगर शीशी में ही रहे तो उसकी सुगंध दूर तक नहीं जाती, लेकिन गरम पानी में डाल देने से उसका असर दूर तक प्रभावकारी होता है। हवन का भी यही सिद्धांत है। आयुर्वेद में अनेक प्रकार की भस्म जैसे लौह, रजत अभ्रक, रजत, स्वर्ण को जितना तपाया जाता है उसका उतना ही बल बढ़ जाता है। ये धातुएं अगर ऐसे ही पड़ी रहें तो कुछ भी लाभ नहीं देती हैं। अगर इन्हें अग्नि में तपा दिया जाए तो यह शत पुटी तथा सहस्त्र पुटी जीवनदायिनी हो जाती हैं।
महर्षि दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के तीसरे समुल्लास में यज्ञ की वैज्ञानिकता बताते हुए कहते हैं कि ‘देखो, जहां यज्ञ होता है वहां से दूर देश में स्थित पुरुष की नासिका में सुगंध का ग्रहण होता है और उसी प्रकार से दुर्गंध का भी।’ इतने से ही समझ लें कि अग्नि में डाला गया पदार्थ अत्यंत सूक्ष्म होकर फैल कर वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गंध की निवृत्ति करता है। केसर, कस्तूरी, सुगंधित पुष्प और इतर आदि सुगंध का वह सामर्थ्य नहीं कि दूषित वायु को बाहर निकाल कर शुद्ध वायु का प्रवेश करा सके, क्योंकि उनमें भेदक शक्ति नहीं होती तथा अग्नि में वह सामर्थ्य है कि उस दूषित वायु को छिन्न-भिन्न और हल्का कर उसे बाहर निकाल कर शुद्ध वायु का प्रवेश करा देती है। अग्निहोत्र में जो पदार्थ डाले जाते हैं उन पर विचार करने से पता चलेगा कि सूक्ष्म रूप धारण कर कैसे चारों ओर के वातावरण को स्वस्थ बना देते हैं।
सुगंधित पदार्थ- कस्तूरी, केसर, अगर, तगर, चंदन, जटामासी, इलायची, तुलसी, जायफल, जावित्री, कपूर तथा कपूर कचरी, गूगल, नागरमोथा, बालछड़, नरकचूरा, लवंग, दालचीनी आदि।
उत्तम पदार्थ- शुद्ध घी, दूध, फल, चावल, गेहूं आदि।
मधुर पदार्थ- शहद, किशमिश, खांड, छुआरा आदि।
रोगनाशक औषधियां- गिलोय आदि।
समिधा- आम, बबूल, बरगद, गूलर, अशोक, पीपल, पलाश, चंदन, देवदार आदि।
यहूदी मंदिरों में हमेशा विशेष प्रकार की जड़ी-बूटियों से निर्मित अगरबत्तियों की खुशबू आती रहती है। प्रत्येक धर्मस्थल पर आपको इस प्रकार की खुशबू मिल जाती है। इसका सीधा अर्थ यही है कि वातावरण शुद्ध और खुशबूदार होने से मन को अच्छा लगता है तथा सात्विकता बनी रहती है। सामान्य रूप से एक मनुष्य जितनी गंदगी, शौच, मूत्र, कार्बन डाइआॅक्साइड, घर के कूड़ा-कचरा आदि द्वारा जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है, उससे अधिक मेहनत उसे पर्यावरण को शुद्ध करने के लिए करनी चाहिए, जो कि हवन के माध्यम से किया जा सकता है।
प्लूटार्क का कहना था कि आग से वायु शुद्ध होती है। बड़े स्तर पर आग जलाने की आदत स्कॉटलैंड में पाई जाती थी। महामारी को दूर करने के लिए आयरलैंड और दक्षिण अमेरिका में अग्नि जलाने की प्रथा है। लेकिन केवल सामान्य अग्नि से वातावरण में फैले रोगाणुओं को नष्ट नहीं किया जा सकता, इसलिए विशेष प्रकार की औषधीय गुण वाली जड़ी-बूटियों को मिला कर सामग्री बनाई जाए तो उसे हवन के माध्यम से मंत्रों के उच्चारण के साथ प्रयोग करने से शारीरिक और मानसिक रोगों को दूर किया जा सकता है। घर के छोटे-छोटे कोनों में अनेक प्रकार के कीटाणु अपना स्थान बना लेते हैं और उन्हें वैक्यूम या झाड़ू-पोंछे से नहीं हटाया जा सकता है। यही रोगों का कारण होता है।
आज के घरों में सूर्य का प्रकाश भी हर कोने तक नहीं पहुंच पाता है। आज के महानगरों को अगर देखें तो वहां पेड़ों की संख्या घरों की संख्या से कम है और छोटी-छोटी गलियों में चार-चार मंजिला फ्लैट हैं। फ्लैटों में छोटी-छोटी खिड़की या फिर रोशनदान हैं, जहां से हवा का आवागमन होता है। लेकिन स्वस्थ परिवार के लिए यह काफी नहीं है। यह बीमारी का बड़ा कारण है। उसी फ्लैट में रसोई की गंध, वहीं शौचालय और दूषित हवा को निकालने का केवल एक ही उपाय एग्जॉस्ट फैन है। ऐसे घरों में कीटाणु अपना घर आसानी से बना लेते हैं। ऐसे घरों में त्वचा, तनाव तथा दमा आदि रोग अधिक पाए जाते हैं। जिसमें सीलन हो वह घर और अधिक बीमारियों का कारण बनता है, इसलिए हवन के माध्यम से घर के छोटे से छोटे कीटाणु को आसानी से निकाला जा सकता है, अन्यथा ये कीटाणु सांस के जरिए हमारे शरीर में जाकर अनेक प्रकार के रोग पैदा करते हैं।
डॉ. सत्यप्रकाश ने अपनी पुस्तक ‘अग्निहोत्र’ में हवन सामग्री का विश्लेषण करते हुए पाया कि उसमें कुछ ऐसे तत्त्व हैं, जिनसे फोमैल्डीहाइट गैस उत्पन्न होती है। यह गैस बिना परिवर्तित हुए वायुमंडल में फैल जाती है और कुछ अंश तक कार्बन डाइआॅक्साइड भी फोमैल्डीहाइट में बदल जाती है। फोमैल्डीहाइट एक कीटाणुनाशक तत्त्व है। अनेक पदार्थों को यह सड़ने से बचा लेता है। केंबीय और ब्राचेट ने परीक्षणों से सिद्ध किया है कि इस गैस से घर के गर्द में से भी कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। स्लॉटर और राइडल ने इसका चालीस प्रतिशत घोल बना कर परीक्षण किया, तो पता चला कि टाइफास बी कोलाई तथा कोलन के कीटाणु इससे दस मिनट से भी कम समय में नष्ट हो गए और अन्य रोगों के कीटाणु बीस से तीस मिनट में नष्ट हुए।
इसमें संदेह नहीं कि हर प्रकार की सामग्री, हर प्रकार के रोगों को दूर नहीं कर सकती, लेकिन अग्नि में औषधियां डाल कर रोगों का प्रतिकार हो सकता है। तो इस बात का अध्ययन करना होगा कि किस रोग में किस प्रकार की सामग्री उपयोगी होगी। हवन में मंत्रों का उच्चारण समझने के लिए वर्तमान चिकित्सा के उस पहलू को समझना होगा, जिसे विकलांग चिकित्सा आॅर्थोपेडिक कहा जाता है।’ इस चिकित्सा का एक अंग है अल्ट्रासोनिक या सुपर सोनिक ट्रीटमेंट। अगर आपके कंधे, गर्दन या कहीं भी दर्द है तो एक यंत्र द्वारा उस दर्द के स्थान पर ध्वनि तरंगों को केंद्रित किया जाता है। ध्वनि तरंगों में इतना बल होता है कि कई दिनों तक पांच से सात मिनट तक छूने से दर्द चला जाता है। वेद मंत्रों के उच्चारण से भी तो ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती हैं। अगर यंत्र द्वारा अल्ट्रासोनिक तरंगों से रोग दूर किए जा सकते हैं, तो वेद मंत्रों के विशेष प्रकार के उपकरण द्वारा सुपर सोनिक तरंगें निर्मित कर रोगों का निवारण किया जा सकता है। भारतीय परंपरा में इसका महत्त्व शुरू से ही चला आ रहा है। इस विज्ञान को अगर विश्व तक पहुंचाया जाए तो मानव का कल्याण हो सकता है। इस कारण योग मे ‘नाद’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है।