अरस्तू का कहना है कि समस्या से भागना कायरता है, आत्महत्या भले ही मृत्यु के समक्ष बहादुरी है लेकिन इसका उद्देश्य गलत है। टॉयन्बी कहते हैं कि कोई भी संस्कृति आत्महत्या से मरती है, हत्या से नही। हर रोज समाचारों में कहीं न कहीं किसी की आत्महत्या की सूचना अवश्य होती है। कभी कोई विद्यार्थी, कभी कोई पत्नी, व्यापारी या किसान। ऐसा लगता है कि मृत्यु ने जीवन पर बड़ी सहजता से विजय पा ली है।
कोमल एक बहुत ही प्यारी बच्ची थी अभी कल तक। आज नहीं है। उसने आत्महत्या कर ली। पत्र में लिखा कि वह अपने माता-पिता की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई इसलिए उसने जीने से बेहतर मृत्यु को स्वीकार कर लिया है। अंग्रेजी विषय में फेल होने के कारण उसका भविष्य ही समाप्त हो गया है क्योंकि अब अंग्रेजी आॅनर्स में उसके भविष्य की सारी संभावनाएं समाप्त हो गई हंै।
एक हिंदी भाषी सामान्य मध्यमवर्गीय छोटा सा परिवार, जिसमें माता-पिता और दो बच्चे बड़ी कोमल और एक छोटा बेटा है। कोमल पढ़ने में कोई बहुत अच्छी नहीं थी बल्कि उसकी रुचियां भिन्न थीं। लेकिन माता पिता इतने महत्वाकांक्षी कि उनकी बेटी या तो मेडिकल करेगी या कम अज कम अंग्रेजी आॅनर्स में तो अवश्य जाएगी। मैं कोमल को जानती थी। विज्ञान विषयों में न तो उसे रुचि थी और न ही वह अच्छी पकड़ ही बना पाई। वह दसवीं के बाद यहां पढ़ने आई थी। माता-पिता के दबाव के कारण वह जी तोड़ मेहनत करती थी लेकिन अंग्रेजी में वह दक्षता हासिल नहीं कर पाई जो उसे अंकों के साथ आगे लेकर जा पाती।
कोमल अच्छी डिजाइनर बन सकती थी। मैंने उसके कमरे की सुरुचि संपन्नता देखी थी। सीधी-सरल वस्तुओं को कैसे कलात्मक दृष्टि प्रदान कर देती थी। स्कूल में भी उसने चित्रकारी में और पत्रिकाओं की डिजायनिंग में ढेरों पुरस्कार जीते थे लेकिन उसके ये सारे पुरस्कार उस सपने के समक्ष बेकार थे, जो उसके माता-पिता ने अपनी आंखों में सजा रखा था। अक्सर मां-बाप अपनी अधूरी इच्छाओं को अपने बच्चों के माध्यम से पूरी करते हैं। कुछ सफल भी हो जाते हैं लेकिन फिर उस बच्चे की अपनी इच्छा जीवन भर उसका पीछा नही छोड़ती और वह अपनी वर्तमान स्थिति से भी संतुष्ट नहीं हो पाता। ऐसे बच्चे आधा-अधूरा जीवन बिताते हुए असंतुष्ट से रहते हैं। यह अवस्था कई बार उन्हें अवसाद की स्थिति तक ले जाती है। कोमल भी शायद इस अवसाद से जूझ रही होगी।
परीक्षा के बाद वह मुझसे मिली थी। यह पूछने पर कि उसके पेपर कैसे हुए हैं ,उसका जवाब बहुत संतोषजनक नही था। शायद वह अंग्रेजी भाषा से जूझ रही थी या उसके अवसाद का कोई और ही कारण था कि वह उतने अंक नही ले पाएगी या नहीं। दरअसल समस्या यहीं से शुरू होती है। जब माता-पिता अपनी महत्वाकांक्षाओं की गठरी अपनी संतान पर उनकी स्वीकृति जाने बिना लाद देते हैं तो बच्चा उस अनचाहे बोझ को केवल ढोता ही है और ढोने में जो मजबूरी का भाव है वही उन्हें निराशा की ओर ढकेलता है। असमर्थता के साथ असफल होने का भय उनकी रही सही हिम्मत भी खींच लेता है जिसका नतीजा कोमल सरीखा होता है। माता-पिता बगैर यह जाने कि उनके बच्चे की रुचि किसमें है, साथ ही वह कहां पिछड़ रहा है और उसमें वह कितना आगे बढ़ पाएगा, नहीं सोच पाते। बच्चे पढ़ाई के साथ माता-पिता की अधूरी इच्छाओं के बोझ को बस्तों के साथ-साथ टांगें रहते हैं। एक प्राइमरी स्कूल की चतुर्थ कक्षा की अध्यापिका ने बताया कि कई बार छात्र आधे अंक के लिए भी गिड़गिड़ाने लगते हैं कि उन्हें अपनी मां को जवाब देना पड़ेगा आधा अंक कम क्यों आया।
अंकों के आधार पर विद्यार्थियों का आकलन करने वाली हमारी शिक्षा प्रणाली कहां तक सही है, इसके बारे में समय-समय पर सवाल उठते रहते हैं। दूसरे हर माता-पिता अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, आइएएस अफसर बने ही देखना चाहते हैं। आज समाज पर नए उपनिवेशवाद, बाजारवाद और नए पूंजीवाद का वर्चस्व है। एक आम, सामान्य मजदूर इसमें से गायब है। इसके साथ ही आज जिसके पास पैसा है, बाजार उसका मुक्त हृदय से स्वागत करता है। वह कोई भी हो सकता है। यानी केंद्र में पैसा है। हर माता-पिता यही चाहते हैं कि उनके बच्चे खूब धन कमाएं। पैसा केवल जीवन यापन का साधन मात्र अब नहीं रह गया है, बल्कि सुविधाओं को भोगने का साधन बन गया है। इस सुविधा की कोई सीमा नही है। यह एक घातक सोच है। अधिक से अधिक पैसा कमाने की होड़ में ही माता-पिता अपने बच्चों को ऐसे कोर्स लेने के लिए बाध्य करते हैं जिसमें बच्चे दब कर रह जाते हैं। कुछ पिछड़ जाते हैं और कुछ आगे बढ़ भी जाते हैं। उनका लक्ष्य में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खुले द्वार होते हैं।
स्कूल कालेजों के परिणाम घोषित होते ही देश भर से ये समाचार आने लगते हैं अमुक जगह के फलां लड़के ने परीक्षा में कम अंक आने के कारण सल्फास की गोलियां खा ली या फलां नगर की लड़की ने अंकों का प्रतिशत कम आने के कारण खुद की जान ले ली। इतने मासूम बच्चों की ऐसी दशा देख-सुन कर मन दहल जाता है। यह हालात केवल भारत में नहीं बल्कि यह समस्या दुनिया भर में है। आत्महत्या के मूल में अवसाद मुख्य कारण माना जाता है।
ऐसा नही कि आत्महत्या की समस्या केवल विद्यार्थियों के साथ ही जुड़ी है। आज हम संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं। कई विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। न पूरे प्राचीन रहे और न पूरे आधुनिक ही बन पाए, एक ओर हम अपनी संस्कृति का बखान करते हैं दूसरी ओर पश्चिमी सभ्यता के जबरदस्त आकर्षण में उलझे हैं। भाषा और वेशभूषा के मामले में अजीब दुचित्तेपन और दोहरे मापदंडों में आज का समाज उलझा है।
अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय संपर्क भाषा है जिसे हमें सीखना चाहिए, लेकिन भारत में जब यह मैकालियन ज्वर की तरह प्रत्येक के मस्तिष्क पर सवार हो जाती है तो समस्याएं भी पैदा करती है। अनेक कस्बाई इलाकों से शहरों में पढ़ने आने वाले बच्चे इस ज्वर से संक्रमित होते हैं कुछ को तो यह ले डूबता है। बाकियों के लिए यह सफलता का पैमाना भी है। समाज के साथ स्वयं को न चला पाने वाले लोग ही मुख्य धारा से कट जाते हैं उनके अंदर अवसाद की एक अलग ही दुनिया तैयार हो जाती है जिसमें वे जीने लगते हैं। ऐसे में सामाजिकता को काट कर चलने वाला हमारा आज का समाज उसमें अपना और योगदान दे देता है। इसका परिणाम यह होता है कि जब पानी सिर से ऊपर जा चुकता है, तब जाकर समस्या का पता चलता है और तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। आज रोजगार के अवसर लगभग समाप्त हैं। ग्रेजुएशन कर चुकने वाला व्यक्ति केवल किसी दफ्तर में ही अपने लिए संभावनाएं तलाशता है। लेकिन नौकरी नही मिलती। बेरोजगारी अवसाद की ओर ले जाती है। और अवसाद आत्महत्या में त्राण पाता है।
आत्महत्या का अनुपात गांवों और छोटे शहरों की अपेक्षा महानगरों में अधिक है। हालांकि विदर्भ के किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला जो 1990 से आज तक बदस्तूर जारी है उसका कारण प्राकृतिक और सरकारी दोनों हैं। शायद महानगरों में जिजीविषा के संकट भयंकर हैं। हर रोज आत्महत्याओं के कई उदाहरण अखबारों की सुर्खियों में होते हैं। कारण भले उनके अलग-अलग हों लेकिन चिंता की बात यह है कि आज के सुविधा भोगी जीवन ने तनाव, अवसाद को बढ़ावा दिया है। इसके लिए येन-केन- प्रकारेण पैसा जुटाना अपराध नहीं है। अब संतोष धन का स्थान अंग्रेजी के ‘मोर धन’ ने ले लिया है। एक आंकड़े के अनुसार अमेरिका में 2014 में कुल 42,773 आत्महत्याएं हुर्इं। यह सब आज के अति भौतिकवादी युग की देन है। तकनालॉजी ने मनुष्य को सुविधाएं तो दीं लेकिन उससे उसकी मानवीयता छीन ली। उसे अधिक से अधिक मशीन और कम से कम मानव में तब्दील कर दिया है। एडवर्ड डेबर्ग कहते हैं- जब कोई महसूस करता है कि उसकी जिंदगी बेकार है तो वह या तो आत्महत्या करता है या यात्रा। लोग दूसरा रास्ता क्यों नहीं अपनाते?
(वीणा शर्मा)