किसी गांव में एक आदमी था- टीकममल्ल। करता कुछ नहीं था, बस सज-धज कर दिन भर इधर-उधर घूमता रहता। उसकी आदत थी कि वह किसी भी काम में कमी निकाल देता था। कोई अच्छा से अच्छा काम करे, कोई अच्छी से अच्छी बात करे, वह उसमें कोई न कोई कमी निकाल ही देता। वह कभी किसी व्यवस्था से संतुष्ट होता ही नहीं था। हर व्यवस्था में उसे अव्यवस्था नजर आ जाती। गांव में कोई भी आयोजन होता, वह उसमें कई सारी खामियां निकाल देता। ऐसा नहीं होना चाहिए था, वैसा नहीं होना चाहिए था।
गांव के लोग टीकममल्ल से परेशान रहते। जैसे ही वह नजर आता, लोग सावधान हो जाते कि वह कोई न कोई कमी निकालेगा जरूर। गांव में कोई भी आयोजन होता, तो लोग सावधान रहते कि कोई कमी न रहने पाए, जिससे टीकममल्ल को कोई टीका करने का मौका मिले। मगर टीकममल्ल तो टीकममल्ल। टीका न करे, तो उसका भोजन भला कैसे पचे। टीकममल्ल उसमें कमी निकाल ही देता।
एक बार गांव में सामूहिक भोज का आयोजन किया गया। बड़ा मेला आयोजित किया गया। लोगों ने तय किया कि इस बार सारी व्यवस्था की जिम्मेदारी टीकममल्ल को सौंप दी जानी चाहिए। देखें तो सही कि आखिर अच्छी व्यवस्था होती कैसे है। इससे एक लाभ यह भी होगा कि टीकम को इस आयोजन की कमियां गिनाने का मौका नहीं मिलेगा। गांव वालों ने मिल कर टीकम को आयोजन की जिम्मेदारी सौंप दी। जुट गया टीकम पूरी लगन के साथ। गांव वाले उसके सहयोग में लग गए। हर काम उसके निर्देशन में करने लगे। खूब बड़ा मेला भरा। खूब बड़ी दावत हुई। धूमधाम से आयोजन संपन्न हुआ।
जब आयोजन संपन्न हो गया, तो गांव वालों ने टीकम की खूब तारीफ की कि बहुत बढ़िया आयोजन हो गया। पर टीकम तो टीकम। उसे कोई न कोई नकारात्मक टिप्पणी तो करनी ही थी, सो उसने की- ‘कोई भी आयोजन इतना भी बढ़िया नहीं होना चाहिए कि उसमें कोई कमी ही न रहे।’
ऐसे टीकममल्ल हर जगह मिल जाते हैं। उनकी परवाह करते रहेंगे, तो परेशान ही रहेंगे।