एक राजा को नया महल बनाने की खब्त चढ़ी। राजाओं को ऐसी खब्त अक्सर चढ़ ही जाती है। उसने तय किया कि वह दुनिया के तमाम राजाओं से बेहतर महल बनाएगा, सबसे बेहतर सजावट उसमें करेगा। सबसे आलीशान महल। बस, अपने राज्य और बाहर के तमाम गुणी महल निर्माताओं, कारीगरों को बुला लिया गया। राजा ने उन्हें अपनी इच्छा बताई।
सबने मिल कर एक आलीशान महल का नक्शा तैयार किया। राजा को पसंद आया। काम शुरू हो गया। मगर राजा के मन में यह बात घर किए हुई थी कि कहीं कोई इससे बेहतर महल बनाने वाला भी न हो। इसलिए वह जिस भी देश में जो कोई गुणी भवन निर्माता था, उसे बुलाता, उसे नक्शा दिखाता। बनते हुए भवन को दिखाता।
हर कलाकार उस नक्शे में कुछ न कुछ बदलाव सुझा देता, कुछ न कुछ अपना विचार जोड़ देता। इस तरह राजा पहले से बने हिस्से को तोड़ कर उसमें बदलाव करने का आदेश दे देता।
स्थिति यह हुई कि महल जैसे ही कुछ बन कर ऊपर उठता, किसी कलाकार के सुझाव पर गिरा कर उसमें बदलाव कर नए सिरे से बनाया जाने लगता। इस तरह सालों महल का काम चलता रहा। राजा बूढ़ा हो गया, मगर महल तैयार नहीं हुआ।
तब किसी संत ने उसे सुझाव दिया कि इस तरह महल कभी तैयार नहीं होगा। जब तक आपको रहने के लायक महल बनाने को लेकर संतोष नहीं होगा, तब तक यह महल बन ही नहीं सकता और आप एक दिन इस महल में एक भी दिन रहे बगैर इस दुनिया से चले जाएंगे। मगर राजा को फिर भी संतोष न हुआ। वह इस दुनिया से बिना महल का सुख लिए चला गया।
हममें से ज्यादातर लोग इसी तरह चित्त को निरंकुश छोड़ देते हैं। तर्क ही नहीं करते कि जो कर रहे हैं, जो चीजें जीवन में जुटा रहे हैं, आखिर उसका हासिल क्या है। हमेशा व्यक्ति एक छद्म सुख की तलाश में भटकता रहता है।