रूपा
उन्होंने कहा कि दुख है। फिर कहा कि दुख का कारण है और दुख का निवारण भी है। यानी हर दुख का कोई न कोई कारण है। और ऐसा भी नहीं कि दुख सदा बने रहने वाला है। अगर समझ गए कि दुख का कारण क्या है, तो उसका निवारण भी संभव है। जैसे ही दुख का निवारण हो जाता है, सुख अपने आप प्रकट हो जाता है। मगर कठिनाई यही है कि सबको इस बात का अहसास तो है कि उनके जीवन में दुख है, किस प्रकार का दुख है, यह भी पता है। मगर उस दुख का असल कारण कम ही लोग तलाश पाते हैं। असल कारण पता चल जाए, तो उसका निवारण भी हो जाए।
किसी को धन की कमी के कारण दुख है। दुनिया में ज्यादातर लोगों का दुख धन से ही जुड़ा है। किसी के पास इतना धन नहीं कि अपने और परिवार के रहने योग्य घर बनवा सके। परिवार का ठीक से पोषण कर सके। बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला सके। उन्हें अच्छे कपड़े पहना सके। अच्छा भोजन करा सके। जिनके पास कुछ पैसे हैं भी, जैसे-तैसे गुजारा चला पाते हैं, उन्हें दुख है कि अधिक पैसा नहीं है, जिससे आलीशान जिंदगी जी सकें।
इसलिए वे दिन-रात अपनी नौकरी को लेकर असंतुष्ट रहते हैं, अपने मालिक, अपने अधिकारी को लेकर असंतुष्ट रहते हैं। बहुत सारे लोगों का दुख है कि वे जैसा चाहते थे, वैसा उनके बच्चे पढ़-लिख कर नहीं बन सके। ऊंचे ओहदे पर पहुंच कर ढेर सारा धन नहीं कमा सके। विदेश में नौकरी नहीं करने गए। उनके पास घर तो है, मगर आलीशान घर नहीं है, जिसे देख कर लोग रस्क करें।
गाड़ी तो है, मगर बहुत बड़ी नहीं है। नौकर-चाकर नहीं हैं। मगर जिन लोगों के पास ये सब चीजें हैं, उन्हें भी संतोष नहीं। उन्हें और अधिक धन की जरूरत है। उन्हें अपना कारोबार पूरी दुनिया में फैलाना है। उन्हें दुनिया का सबसे बड़ा धनिक बनना है।
सुख की चाह बढ़ती रहती है और उसी के साथ दुख भी बढ़ता रहता है। विचित्र है कि सुख की तलाश में सुख मिलना चाहिए, मगर होता इसके उलट है। सुख तलाशने निकलते हैं, मगर मिलता दुख है। दुख पर दुख की परतें चढ़ती जाती हैं। असंतोष बढ़ता जाता है। पुराने लोगों ने कहा कि जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान। संतोष ही सबसे बड़ा धन है। मगर नए सिद्धांत कहते हैं कि असंतोष के बिना विकास संभव ही नहीं।
दुनिया में तरक्की के लिए आदमी के भीतर असंतोष बहुत जरूरी है। जब तक नई-नई चीजों की ख्वाहिशें पैदा नहीं होंगी, जो है उससे अधिक पाने की ललक नहीं होगी, तब तक विकास ही संभव नहीं होगा। आदमी उसी में संतुष्ट हो रहेगा, जो उसके पास है। जो है, उसी में संतोष कर लेना तो नियतिवादी, अकर्मण्य वृत्ति है। आलसी, काहिल लोगों के लक्षण हैं।
इन नए सिद्धांतों को बहुत तेजी से प्रसार हुआ है, लगातार किया जाता रहता है। विकास संबंधी जितनी विद्याएं पढ़ाई जा रही हैं, उनमें यही सिखाया जाता है कि बड़ा बनना है, तो बड़े सपने देखो। बच्चे होश संभालते ही बड़ा सपना देखना शुरू कर देते हैं। उस बड़े सपने को पाने के लिए आजकल क्या-क्या किया जाने लगा है, हमारे आसपास रोज दिखता है। तमाम मानवीय मूल्यों को पुराना करार देकर गड्ढे में डालने का प्रयास किया जाता है।
कुछ बड़ा करने और पाने की बेचैनी में विकास की ऊंची-ऊंची मीनारें खड़ी हो गई हैं। निस्संदेह आधुनिक समय की वे उपलब्धियां हैं। मगर क्या इसके बावजूद सुख हासिल हुआ। क्या उन्हें भी सुख मिला, जिन्होंने ये चमकती मीनारें खड़ी कर दी हैं और करते जा रहे हैं। उत्तर है, नहीं। वे अधिक दुखी हैं।
उनके सामने अगर उन मजदूरों को खड़ा कर दिया जाए, जिन्होंने गैंती-फावड़ा, छेनी-हथौड़ा और करनी-वसूला चला कर इन मीनारों को खड़ा किया है, तो वे शायद कुछ अधिक संतुष्ट नजर आएंगे। कोई तकनीकी उपाय हो, तो नाप लें, वह मजदूर उस मीनार का सपना देखने वाले से अधिक सुखी और संतुष्ट, अधिक कृतज्ञ मिलेगा।
सुख पाने की कोशिश में बहुत सारे लोगों ने बड़ा सोचना और बड़ा करना तो शुरू किया, मगर दुख भी उतने ही अनुपात में जमा करते गए। उन्होंने कुदरत की दी हुई चीजों- जंगल, पहाड़, नदियों को रौंद डाला और अब पर्यावरण के कोप को झेल नहीं पा रहे। न गर्मी उनसे सहन होती है, न खराब हो गई हवा। मन में पीड़ा की परत-दर-परत बनती गई है।
परिवार को भी वे वह सब कुछ नहीं दे पा रहे, जो परिवार को जरूरत है। फिर वे सुख और शांति के लिए उन्हीं पुराने उपायों को आजमाते देखे जाते हैं। योग आश्रमों और मन की शांति के लिए चल रहे केंद्रों की तरफ भागते फिर रहे हैं।
फिर वही बात समझ में आती है कि संतोष जरूरी है जीवन में। बड़ा सपना और बड़ा काम करके थक चुकने के बाद उम्र के आखिरी पड़ाव में अक्सर यही बोध होता है कि संतोष बड़ी चीज है। दुख का कारण तो यहां तक समझ में आ जाता है, मगर उसके निवारण के लिए उपाय जुटाना फिर भी मुश्किल बना रहता है।
एक स्तर पर पहुंच कर पीछे लौटना या एक ऊंचाई पर पहुंच कर अक्सर नीचे उतरना मुश्किल हो जाता है। इसलिए बहुत सारे लोग अपने दुख का कारण जानते-समझते हुए भी उसके निवारण की तरफ आगे नहीं बढ़ पाते। वे उसी दुख के साथ जीने का अभ्यास कर लेते हैं।