रोहित कुमार
प्रार्थनाएं क्या हैं! अदृश्य शक्ति के प्रति भरोसा और आभार ज्ञापन ही तो हैं। अपनी सारी मुश्किलें परमात्मा के हवाले कर देना और फिर उसका शुकराना ही तो हैं। जो कुछ जीवन में मिला, उसका कृतज्ञता ज्ञापन। उसके प्रति प्रशंसा का भाव। अपनी सुरक्षा, समृद्धि और सफलता की याचना। इस तरह प्रार्थनाएं स्वत: निसृत किसी झरने की तरह होती हैं।
हदय से निकली भावनाएं। उनमें सायास कुछ नहीं होता। कोई बनावट नहीं होती। जो सायास लिखा, बनाया, गाया जाता है, जिसमें सोच-समझ कर शब्द, लय, तुक बिठाए जाते हैं, वह भक्तिगीत हो सकता है, भजन हो सकता है, वंदना हो सकती है। उसमें नकल हो सकती है। जैसा दूसरे कहते आ रहे हैं, वैसा ही कह देने की आदत हो सकती है। मगर प्रार्थनाएं भाव से निकलती हैं। भावनाएं उन्हें जन्म देती हैं। वहां न तो कोई व्याकरण काम आता है, न कोई भाषिक पच्चीकारी। इसीलिए प्रार्थनाएं सीधा असर करती हैं। इसीलिए हर प्रार्थना सुनी जाती है।
प्रार्थना महज एक शब्द की पुकार भी हो सकती है और कोई सुंदर कविता, सुघड़ गद्य भी। निपट अनपढ़, कर्मकांडों से बिल्कुल अनजान आदमी भी बहुत प्रभावशाली प्रार्थना गढ़ सकता है। बस, हे ईश्वर, रक्षा करो, कह कर भी कोई प्रार्थना निवेदित कर सकता है और कोई सुंदर कविता रच कर भी। कभी गांव के अनपढ़, निपट गंवार माने जाने वाले किसी व्यक्ति को प्रार्थना करते सुनिए। जो भावना उसके मन में आती है, वही वह अपने परमात्मा से निवेदित कर देता है। उसे प्रार्थना करने के लिए किसी तरह की तैयारी नहीं करनी पड़ती। कोई पूजा सामग्री नहीं जुटनी पड़ती। बस, सिर जरा ऊपर उठाया और जो कहना है, कह दिया, जो मांगना है, मांग लिया परमात्मा से। वैसे प्रार्थना के लिए किसी तैयारी की जरूरत पड़ती भी नहीं। जब समय मिला, जब भावना पैदा हुई, प्रार्थना कर दी। प्रार्थना सतत चलने वाली क्रिया भी है।
कभी किसी आदिवासी की प्रार्थना सुनी है! बिल्कुल अनगढ़ और बेतुकी भाषा में, प्राय: निरर्थक-सी जान पड़ने वाली। मगर वे प्रार्थनाएं सुसंगत भाषा में निवेदित गीतों से कहीं अधिक पुरअसर होती हैं। दीवार फिल्म में अमिताभ बच्चन की वह प्रार्थना याद कीजिए, जब वे मंदिर में भगवान के सामने खड़े होकर कहते हैं- आज खुश तो बहुत होगे तुम कि जिस मंदिर की सीढियां मैं कभी नहीं चढ़ा, आज तुम्हारे सामने हाथ जोड़े खड़ा हूं।… प्रार्थनाएं इस तरह भी प्रकट होती हैं। प्रार्थनाओं में, भावनाओं के आवेग में शब्द अक्सर अटपटे हो जाते हैं। मगर प्रार्थनाएं असर करती हैं।
दरअसल, प्रार्थनाओं के पीछे भी विज्ञान काम करता है। जब हमारे भीतर भावनाएं उठती हैं तो उनका संबंध हमारे बाहरी जगत से जुड़ा होता है। हमारा बाहरी जगत हमारे भीतर जैसी तरंगें भेजता है, वैसी ही भावनाएं भी उठती हैं। यही प्रक्रिया दूसरी तरफ भी चलती है। यानी हमारी भावनाएं हमारे बाहरी जगत में भी हलचल पैदा करती हैं। हमारे भीतर की तरंगें हमारे बाहरी जगत की तरंगों से टकराती हैं, तो उनसे ऊर्जा पैदा होती है, उस ऊर्जा का प्रभाव नजर आने लगता है। वैसे इस जगत में, चाहे वह हमारा बाहरी जगत हो या भीतरी, कुछ भी अकारण नहीं उपजता। जो कुछ उपजता है, पैदा होता, प्रकट होता है, वह व्यर्थ भी नहीं जाता। बहुत सारी जनजातियों में बीमारियों के उपचार प्रार्थनाओं से करने की प्रथा कायम है। वे दूर बैठे किसी सगे-संबंधी के लिए भी प्रार्थना करते हैं और वह चंगा हो जाता है। यह तरंगों का ही तो प्रभाव है।
प्रार्थनाएं हमारे भीतर की पवित्र भावना की अभिव्यक्ति होती हैं, इसलिए वे अकारथ कभी नहीं जातीं। उनसे निकलने वाली तरंगें ब्रह्मांड की तरंगों से मिलती जरूर हैं। बहुत से लोगों में यह धारणा बैठी है कि प्रार्थनाएं भी पूजा पद्धति का हिस्सा ही हैं। एक हद तक इसे सही कह सकते हैं, पर यह पूरी तरह सही नहीं है। बिना पूजा भाव के भी प्रार्थना का भाव हो सकता है। ऋगवेद की ऋचाएं प्रार्थना ही तो हैं। अपनी गौओं के लिए प्रार्थना, वनस्पतियों के लिए प्रार्थना। अपने रोजमर्रा जीवन से जुड़े तमाम भौतिक उपादानों के लिए प्रार्थना। अपनी सुरक्षा के लिए प्रार्थना। उनमें बस उस अदृश्य के प्रति पुकार है, मदद की गुहार है, आह्वान है अपने जीवन-जगत को सुंदर बनाने का। उनमें कोई पूजा पद्धति नहीं। पूजा पद्धति तो वेदों के दूसरे हिस्सों में है। जीवन के आरंभिक चरण में प्रार्थनाओं का यह स्वरूप दुनिया की हर सभ्यता में मिलता है।
मगर जैसे-जैसे सभ्यताएं उन्नत होती गईं, विचार का स्तर बदलता गया, तर्क पद्धति मजबूत होती गई, प्रार्थनाओं का स्वरूप बदलता गया। प्रार्थनाओं का अर्थ कर्मकांड हो गया। कर्मकांड से पुरोहिती को प्रश्रय मिला। फिर जो प्रार्थनाएं व्यक्ति स्वयं किया करता था, उसे कोई पुरोहित उसके लिए करने लगा। तमाम तरह के ढोंग, आडंबर और दिखावे उसमें शामिल होते गए। इस तरह प्रार्थनाओं की पवित्रता कलुषित भी हुई।
इसका बड़े पैमाने पर विरोध शुरू हुआ। कर्मकांडों के खिलाफ अनेक सामाजिक आंदोलन खड़े हुए, कई संतों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई। जाहिर है, इसमें वैचारिक टकराव भी हुए। ऐसा होता ही है, जब मानवीय वृत्तियों को संचालित करने की व्यवस्था बनाने वालों की सत्ता पर हमला होता है, तो वे आक्रामक हो उठते हैं। मगर मनुष्य की सहज वृत्ति कहां बदलती है। इसलिए आज भी प्रार्थनाओं की शुद्धता और उनका प्रभाव अक्षुण्ण है। प्रार्थनाएं मनुष्य की सहजात वृत्ति हैं।
जब जीवन में हर काम के लिए निवेदन-पत्र, प्रार्थना-पत्र लिखते-भेजते हैं, अपनी ही चुनी हुई सरकार के सामने प्रार्थना करते हैं, तो फिर उस परम सत्ता को प्रार्थना-पत्र लिखने में भला क्या उज्र। अपनी इच्छाओं, अपनी जरूरतों के लिए उससे निवेदन करने में क्या संकोच, जो सबको देता है। प्रार्थनाएं अगर सच्ची भावना से की जाएं, अगर उनका आवेग तीव्र हो, तो उनका असर होता जरूर है।