सुकुमार रे का जन्म कोलकाता के प्रतिष्ठित रे चौधरी परिवार में हुआ था। सुकुमार ब्रह्म समाज के प्रबुद्ध वातावरण में पले-बढ़े। उन्होंने 1906 में प्रेसीडेंसी कालेज से भौतिकी और रसायन विज्ञान में स्नातक की उपाधि हासिल की। चूंकि उनका परिवार मुद्रण क्षेत्र से जुड़ा था, इसलिए वर्ष 1911 में वे भी मुद्रण प्रौद्योगिकी का अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड चले गए।
उन्होंने पहले लंदन और उसके बाद मैनचेस्टर में तकनीकी कुशलता हासिल की। उस समय रे ने ब्लाकमेकिंग को हाफटोन करने के लिए कई तकनीक विकसित कीं। इस तकनीक पर आधारित उनके अनेक लेख इंग्लैंड की पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुए। उन्हें फोटोग्राफी का शौक था। वर्ष 1922 में उन्हें रायल फोटोग्राफिक सोसाइटी का फेलो चुना गया। वे उस दौर में उस सोसाइटी का फेलो बनने वाले केवल दूसरे भारतीय थे। उन्होंने इंग्लैंड में स्कूल आफ फोटो-एनग्रेविंग एंड लिथोग्राफी, लंदन में फोटोग्राफी और प्रिंटिंग तकनीक का प्रशिक्षण लिया।
शुरुआती दिनों में सुकुमार अपने पिता उपेंद्र किशोर रे, मां बिधुमुखी और पांच भाई-बहनों के साथ ब्रिटिश भारत में पूर्वी बंगाल के मैमनसिंह डिवीजन के मासुआ गांव में रहा करते थे। यह क्षेत्र अब बांग्लादेश में है। रवींद्रनाथ टैगोर, आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रे और सर जगदीश चंद्र बोस जैसी हस्तियां इस परिवार के घनिष्ठ मित्रों में थीं। सुकुमार रे ऐसे माहौल में पले-बढ़े, जिसने उनकी साहित्यिक प्रतिभा को खूब निखारा।
गुरु रवींद्रनाथ टैगोर के शिष्य सुकुमार रे बंगाल के लोकप्रिय उपन्यासकार, कवि, कहानीकार एवं नाटककार ही नहीं थे, अपने समय के प्रमुख पत्रकारों एवं चित्रकारों में उनका शुमार होता था। अपने पिता की तरह वे भी बच्चों के लिए हास्य कविताएं एवं कहानियां लिखते थे। उनके पिता उपेंद्र किशोर मशहूर बाल साहित्य लेखक, संगीतकार, कलाकार और मुद्रण प्रौद्योगिकी क्षेत्र की अग्रणी शख्सियत थे।
सुकुमार रे को बचपन से ही लिखने-पढ़ने का शौक रहा। उन्होंने आठ वर्ष की आयु में अपनी पहली कविता ‘नदी’ लिखी। इसके लगभग एक साल बाद उन्होंने ‘टिक, टिक, टोंग’ लिखा। यह दरअसल, नर्सरी कविता ‘हिकारी, डिकारी, डाक’ का अनुवाद था। बड़े होते सुकुमार की डायरी में बांग्ला और अंग्रेजी भाषा में कई कविताएं, छंद, नाटक, कहानियां और लेख दर्ज हो चुके थे।
पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने कई शोध पत्र और निबंध लिखे। वे लकीर के फकीर बनकर नहीं चलना चाहते थे, इसलिए उस समय के नियमों को तोड़ा जो गंभीर और गैर-गंभीर काम को एक निश्चित तरीके से परिभाषित करते थे। विशेषकर बच्चों के लिए लिखने वाले रे की भाषा की सरलता और हास्य के पीछे सशक्त सामाजिक टिप्पणी और व्यंग्य छिपा होता है।
उन्होंने ज्यादातर आम लोगों के बारे में लिखा। तभी तो कहा जाता है कि उनकी रचनाएं 19वीं शताब्दी के बंगाल की बहुत ही साफ तस्वीर प्रस्तुत करती हैं। रे को बंगाल नवजागरण का प्रमुख हस्ताक्षर माना जाता है। ‘अबोल ताबोल’ सुकुमार रे की कविताओं का संग्रह, ‘गिबरिश’ उपन्यास, ‘हा जा बा रा ला’ कहानी संग्रह और ‘पगला दाशु’ व ‘चलाचित्तचंचरी’ उनके प्रसिद्ध नाटक थे।
सुकुमार रे द्वारा लिखी गई अन्य प्रसिद्ध कृतियों में झालापाला ओ ओनान्यो नाटोक, लक्खानेर शोकतिशेल, खाई-खाई, हेशोरम हुशियारेर डायरी, शब्दकल्पद्रुम, बोहरूपी आदि हैं। सुकुमार रे के दादा संदीप रे भी प्रसिद्ध बंगाली फिल्म निर्माताओं में गिने जाते थे। वे एक मशहूर क्लब ‘मंडे क्लब’ के संयोजक थे। इस क्लब में सभी लोग सुकुमार रे की लोकप्रिय कविताओं का आनंद लेते थे।
अपने पिता उपेंद्र किशोर की 1915 में मृत्यु के बाद सुकुमार ने संदेश के संपादक का पद संभाला। यह पत्रिका उपेंद्र ने ही शुरू की थी। सुकुमार ब्रह्म समाज के नेता भी थे। उन्होंने एक प्रसिद्ध कविता लिखी जिसे ‘अतितर कथा’ के नाम से जाना जाता है। यह ब्रह्म समाज की लोकप्रिय कविताओं में से एक है। शब्दों के चयन पर गहरी पकड़ रखने वाले सुकुमार का देहांत 10 सितंबर 1923 को बुखार के कारण हुआ।
विश्व में भारतीय फिल्मों को नई पहचान दिलाने वाले और भारत रत्न से सम्मानित फिल्म निर्माता एवं निर्देशक आस्कर विजेता सत्यजीत रे सुकुमार के ही बेटे थे। सत्यजीत रे ने वर्ष 1987 में एक डाक्यूमेंट्री फिल्म का निर्देशन किया था, जो पूरी तरह सुकुमार रे के जीवन पर आधारित है।