खटर..खट्..खटर..खट्.. ‘ओय राम जी, हाय’ कराहते से हुए, उसने अपने चारों तरफ देखा। समझ में आया…बेड की बैकरेस्ट से उसका सिर टकराया था। तो वह ऊंघते-ऊंघते नींद में पहुंच गई थी। रोज यही हाल हो रहा है…न चाहते हुए भी सोच में गुम हो जाती है…कभी मालगाड़ी की खटर-पटर तो कभी ट्रक में लदता हुआ सामान और कभी प्लेटफार्म पर अस्त-व्यस्त सी हालत में अपने को अकेला छूटे हुए देख रही होती। यह नींद में आया हुआ ख्वाब नहीं है। 28 तारीख थी नवंबर की जब ‘मूवर्ज एंड पैकर्ज’ के आते ही हकबका गई थी । बेटा-बहू, उससे अलग होने की सोच रहे हैं, यह उसे मालूम था। पर यह सच्चाई इतनी जल्दी सामने आ जाएगी, यह उसने नही सोचा था! अपने संतुलन को बनाए रखने के
लिए उसने बेटे को बुलाया था और कहा था…‘ बेटा मैं तुम्हे जाते हुए देख अपने को संभाल नही पाऊंगी, इसलिए गुरुद्वारे जा रही हूं।’
और कुछ कहना संभव न होते जान उसने उंगली घुमा कर उसे फोन करने के लिए कह दिया था।
वह रोती रही थी वहां, बहाती रही थी सूखी आंखों के आंसू। घर लौटी तो वे जा चुके थे। घर पर सब कुछ वैसा ही था, जस का तस, सिवाय सीढ़ियों पर उतरने-चढ़ने से पड़ी धूल और जूतों के धब्बों के। बेटे के कमरे में जाने वाली सीढ़ियों का दरवाजा उसने बंद कर दिया था। दरवाजा तो अक्सर पहले भी बंद ही रहता था। दरवाजा खुला भी छोड़ देती तो वीरानी तो हटने वाली नहीं थी। बहुत चहल-पहल तो कभी भी नहीं रही उसके घर में पर कभी सन्नाटे का अहसास भी तो नहीं हुआ। कामकाजी महिला जिसके पास काम ही काम रहा। काम को सदा सेविंग डिवाइस के रूप में ही तो लेती रही, जैकेट की पॉकेट में रखा मोबाइल हिला था। बहन की मिस्ड कॉल दिखा रहा था। इससे पहले कि वह बहन को फोन मिलाती लैंडलाइन की घंटी बज रही थी, रिसीवर उठाया बहन ही थी, शिकायत कर रही थी। ‘तू फोन ही नहीं उठाती, पहले भी तुझे फोन किया है। सुन नीमराना की तो बुकिंग नहीं मिली, राजस्थान में ही कहीं शेखावत हवेली में इंतजाम हुआ है, इक्तीस की सुबह साढ़े छह-सात के बीच में तुझे पिकअप करेंगे। तैयार रहना, उसका मन हुआ था कि कह दे वह जा नहीं पाएगी, पर उसके इनकार से सबकी बदमजगी होती इसलिए ‘अच्छा’ कहकर फोन बंद कर दिया था।
बरसों से बहन के परिवार के साथ ही मां-बेटे के कार्यक्रम बनते रहें हैं, फिर इस प्रोग्राम का उपक्रम तो उसी के कहने से हुआ था। एक महीने से कुछ ज्यादा ही हो गया पर इस मन का क्या करे..कम्बख्त काबू में ही नहीं आता। पहनने-ओढ़ने, खाने-पीने, बाहर निकलने ..सबसे जैसे विरक्त सा हो गया है। यों बाहर से देखने और दिखाने में अपने आप को शांत और संयत रूप में ही प्रकट करती है, पर भीतर ही भीतर कहीं कुछ टूट सा गया है। जिसे वह खुद भी मानना नहीं चाहती। वह अपने आप को रोना न आने वाली मोटी खाल की औरत कहती है। क्या कुछ नहीं हुआ, ब्याह-बच्चा-पति से अलगाव-अकेले ही बच्चे को पालना। किसी भी स्थिति में हार तो नहीं मानी उसने। गर्दन ऊंंची कर सब कुछ का सामना किया..किसी को किसी चीज की सफाई नही दी…जिंदगी जैसी चलनी चाहिए थी चलती रही,..अब ऐसा क्या अनहोना हो गया कि वह उससे उबर ही नही पा रही। वैचारिक धरातल पर किसी स्थिति को समझ लेना और स्वीकार कर लेना एक बात है पर उसे आचरण और व्यवहार में उतारने पर अपना ही मन सबसे बड़ी बाधा बन बेचैन और विचलित होने लगता है। पता ही नहीं चलता, कैसे ठीक-ठाक रास्ते पर चलती हुई जिंदगी किसी अंंधे मोड़ पर टकरा रोती बिसूरती वहां से लौट तो आती है, ‘क्या सचमुच लौट आती है, वह अपने आप से पूछ रही थी?’ 31 दिसंबर की सुबह सात बजे तैयार हुई वह बहन की गाड़ी में बैठ तो गई थी पर वह उनके साथ नहीं थी। आंंखें मूंद, नींद आई हुई है, का नाटक करती हुई वह दूसरों को धोखा तो दे सकती थी, अपने आप को धोखा कैसे देती?
मां-बेटा खुश ही तो थे। बेटा एमबीए कर अच्छी प्लेसमेंट में आ गया था, गर्लफ्रेंड उसकी थी ही। उनका घूमना-फिरना, घर आना जाना, सब सहज रूप से चल रहा था, दोंनों की शादी होना तय ही था कि लड़की को थाइलैंड से अच्छा आॅफर मिला और उसने उसे स्वीकार भी कर लिया, पर बेटा इस बात पर अड़ गया कि वह दिल्ली की नौकरी छोड़ कर उसके साथ नहीं जाएगा। मां को अकेले छोड़ उसका साथ देने के लिए वह तैयार नही! बरसों की दोस्ती टूट गई। चुप्पे-समझदार बेटे को मां क्या समझाती? पर बेटे का अपने में गुम देवदास हो जाना क्या उसके लिए कम पीड़ादायक था? बेटा अपनी चुप्पी में डूबा हुआ था, पर सुलग तो वह रही थी, वह सुलगन जो किसी को दिखाई नहीं जा सकती…जिसका साक्षी होता है उस मां का मन जो नितांत अकेले पड़ा हुआ अपनी पीड़ा तो झेल सकता है पर अपने बच्चे की पीड़ा नहीं! उस पीडाÞ को अपने में जज्ब करने में उसकी अपनी ही सांसें सहम रहीं थीं।
‘मासी आपका मोबाइल बज रहा है’, उसकी बांंह को झकझोरते भानजी कह रही थी । फोन बेटे का नहीं, भानजे का था। ‘मासी, मैकडॉनल्ज पर रुकना है, आप लोग हमारे से पहले पहुंचेंगे, इसलिए फोन किया है।’
वह समझ रही थी कि उसकी चुप्पी सब नोटिस कर रहे हैं। उसे न अब आंंखें मूंदनी हैं, न चुप रहना है।
उसे न बेचारी बनना है न दूसरों की सहानुभूति का उपकरण ..। उसने अपने को समझाया।
अपने को सहज और नार्मल-सी दिखाते हुए, मैकडानल्ज की टेबल पर बैठे भानजे से कह रही थी, ‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि तुम एक फोन कर उन्हें कह देते कि वे भी यहां हम सब को ज्वायन कर लेते।’
‘मासी हम सब आपकी बेचैनी को समझते हैं, पर अभी उन्हें अकेले सैटल होने के लिए वक्त दिया जाना चाहिए, सब के साथ इकट्ठा घूमने-फिरने के लिए पूरी जिंदगी पड़ी है।’
‘पूरी जिंदगी नहीं, कगार पर खड़ी जिंदगी’, कहते हुए बाहर धूप में खड़ी बहन के पास आ गई थी। रिजोर्ट तक पहुंचते लंच का समय हो गया था..पर सब ओर से बेजार वह गाड़ी में ही बैठी हुई थी। यों उसे आउटिंग के लिए नदी पहाड़ और हरियाली से भरी खुली जगहें पसंद हैं। यह अलग बात है कि आजकल वह सब से उदासीन अपने में ही सिमटी हुई सी दिखाई पड़ती है।
वैसे हवेलीनुमा यह रिजोर्ट बुरा नहीं था। पुरानी आत्मीयता की संस्कृति खुले आंगन और छतों वाला परिवेश, हर कमरे में इस्तेमाल रंग पर कमरे का नाम..पिंक रूम उसे भानजी की बेटी के साथ शेअर करना था। पूरे परिसर को देखने के बहाने, दूसरों की आंखों से अपने को बचाती ,‘अपने कमरे से सटी सीढ़ियों से ऊपर छत पर चली गई थी । छत पर पहुंचते ही उसके मुंह से निकला..‘वाह’ मुंंडेर पर दो मोर खड़े थे। छत से भी ऊंची एक और छत, विभाजित खंड सुंदर लग रहे थे।
शायद मोरों की उपस्थिति के कारण। वह वहां से परे हट गई थी ताकि मोर उसे देख वहांं से चले न जाएं। छत की खिली धूप में खड़े हो, उसमें जैसे जान आ गई। मुंडेर से नीचे की तरफ देखने पर उसे हवेली के पिछवाड़े का एक हिस्सा दिखाई दे रहा था। हरियाली से भरा हुआ, तराशे हुए लान का एक कोना, उससे सटी हुई दूर तक फैली मटियाली। रंगत लिए उजाड़ बंजर सी जमीन…दोनों हिस्सों की सीमा सी बने हुए पेड़ों में उसे कुछ खासियत सी दिखाई दी…ठूंठ से हैं पर ठूंठ नहीं। पेड़ों के ऊपर के हिस्सों में कुछ काटा गया है और शायद कुछ रोपा भी गया है। वे पेड़ जिनमें हरितांकुर उग आए हैं, उनकी छवि कुछ अलग सी दिखाई दे रही थी।
उसे अच्छा लग रहा था पर अगले ही पल वह उदास हो गई यह सोचते हुए….‘काश, उसके बेटा बहू भी साथ होते’, वह कितना खुश हुई थी बेटे के शादी का निर्णय लेने से…‘लड़की कौन है?’ पूछने पर, बेटे ने लैपटॉप उसके आगे रख दिया था। ठेठ पंजाबी सी दिखती लड़की की चार तस्वीरें उसके सामने थीं..बेटे की पसंद है और वह खुश है तो उसे और कुछ नहीं चाहिए। शादी के बाद, बेटे-बहू के हनीमून पर जाने से पहले , वह उन्हें और बहन के परिवार को साथ लेकर फतेहपुर सीकरी गई थी, चादर चढ़वाने और गांठ खोलने के लिए। वहीं उसने दिवाली, लोहिड़ी और नए साल का उत्सव कैसे और कहां मनाया जाएगा की योजना बना ली थी। यह कैसी विडंबना है कि वह
अकेली हवेली की छत पर ठूंठ हुई सी ठूंठ हुए पेड़ को देख रही है। आखिर गलती कहां हुई और किससे हुई सारी उम्र कामकाजी रहने के कारण, बहुत ज्यादा की मांग और अपेक्षा तो उसने महिमा से की ही नहीं। सुबह की गुडमॉर्निंग और रात के गुडनाइट अभिवादन को ही बहुत आभार से स्वीकार किया। अचानक जब वह बिना बताए पंजाब चली गई थी तो उसे लगा था कि महिमा को उनका घर छोटा लगा है -वह अपने एक बेडरूम से संतुष्ट नहीं। उसका डर तो यह था कि बेटा फिर देवदास न बन जाए। पर बेटे ने समझदारी की थी और महिमा को मना कर ले आया था। ‘इस निर्णय के साथ कि नोएडा या गुड़गांव में एक बड़ा अपार्टमेंट किराए पर ले लेंगे और अपने घर को किराए पर दे देंगे।
अपनी खुशी और उत्साह में बेटा उसको बता रहा था, ‘मैंने महिमा को बता दिया है मेरी मां को इसमें कोई एतराज नहीं होगा।’
‘पर बेटा मेरी जड़ें तो यहां पर हैं।’ वह कुछ और कहती कि. ‘ मॉम इंडीपेंडैंट रहना चाहती हैं’ महिमा की आवाज थी..‘डोंट कॉम्पेल हर’। वह फुसफुसा रही थी इतनी आवाज, में कि वह सुन सके और नए साल का स्वागत करने से पहले ही गिफ्ट के रूप में अकेलेपन की भेंट दे गई।
‘मासी, आपको सब जगह ढूंढ़ते हुए यहां आया हूं…चलिए, नीचे खाना लग गया है..कुछ खा लीजिए और थोड़ा आराम कर लें। आज की रात तो हंगामे की रात होगी।’
आंगन में लगी मेजों पर वह भानजी के पास आकर बैठ गई थी, सामने रखी प्लेट को देखते ही उसे महिमा की आवाज सुनाई दी। ‘आई कान्ट कुक इन दिस स्मॉल किचन।’
‘तुम्हें बनाने के लिए कौन कह रहा है, दीपा बना तो जाती है खाना…’
‘मुझे तुम्हारे यहांं का फीका..फीका खाना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।’
‘मासी कढ़ी-चावल लो बौत स्वाद है।’ निक्को कह रही थी।
उसने वेटर से पूछा मीठे में क्या है, ‘खीर’ सुनते ही जरा सा मुंंह मीठा किया। ‘मैं धूप में जा रहीं हूं, कह ऊपर चली गई।
‘तुम अलग घर का इंतजाम नहीं करोगे तो मै चंडीगढ़ चली जाऊंंगी, दिल्ली में रहते हुए मेरे घर के लोग मेरे पास न रह सकें।’ यह नहीं हो सकता।
महिमा को पूरा साम्राज्य चाहिए था, ऐसा उससे साफ-साफ कह देती तो वह आहत तो न होती…
सीढ़ियों पर बूटों की आवाज से वह सजग हुई ..‘कौन है?’ कहते-कहते वह रुक गई , वह दिल्ली में नहीं, हवेली की छत पर कुर्सी पर बैठी-बैठी शायद ऊंघ सी रही थी । उसे जगा हुआ सा देख भानजा उसके पास आ बठा था, मासी शाम का कार्यक्रम बहुत अच्छा है, जादूगर बुलाया हुआ है, तमाशा दिखाने के लिए..हॉल सजाया जा रहा है..डी जे, म्यूजिक, डांस सबका इंतजाम है, आपको अच्छा लगना चाहिए। आपके लिए चाय यहीं भिजवाऊं या…
‘नहीं-नहीं मैं नीचे चलती हूं। ’
सब चाय पीकर फ्रेश होने के लिए चले गए थे और वह वहीं आंगन में जहां से धूप अभी-अभी विदा हुई थी, पर उसका पेय अभी चुका नहीं था, बैठ गई थी। उसके देखते ही देखते पेय ठंडक और अंधेरे से घिर गया। अंधेरा होते ही बड़े-बड़े अंगीठे चारों कोनों में लगा दिए गए । शायद सात बजने वाले थे जब सामने जमीन पर स्टेज के तौर पर बिछाई दरी पर एक जमूरे नुमा लड़के के साथ बेचारा सा दिखता जादूगर आया था । आते ही उसने अपने करतबों से सबको आकर्षित कर लिया था।
‘मां साहब एक सौ का नोट दीजिएगा।’ वह उससे कह रहा था।
‘किसलिए?’
‘अभी दिखाता हूं न!’
नोट उसने उसे दे दिया था। ‘नंबर चेक कर लीजिए।’ कहते हुए उसने अलग-अलग मेजों पर बैठे सबको वह दिखा दिया था। और सुलगती हुई अंगीठी की रोशनी में उसे गायब कर दिया था। सब अंदाज लगा रहे थे। शायद किसी के कोट की जेब से या सिर के बालों में से उसे निकालेगा पर नहीं उसने तो टेबल पर पड़े अमरूद को उठाया। उसे काटा और कहा ‘देख लीजिए यही नोट था न’, उसने वह नोट उसी को दे दिया । एक आंसू उसकी आंख से टपका जिसको उसने दिखाया किआंच के धुंए से उसकी आंख कड़वा गई है…इस नोट का क्या करे, उसका असली नोट तो महिमा की जेब में पहुंच चुका है वर्ना सबके साथ वे यहां न होते?
‘अब मैं आपको एक खेल दिखाकर कार्यक्रम खत्म करूंगा, क्योंकि आप लोगों का डिनर लगने वाला है।’
झ्उसने दीपक जलाया और एक प्यारी सी कटोरी को उसपर रख बोलना शुरू किया…इसका काजल बना यह कटोरी मैं निशा सुंदरी के पास भेज रहा हूं..और ये देखिए…फुर्र…फुर्र…फुर्र… देखते ही देखते वह कटोरी गायब थी और जादूगर अपनी आंखों को आकाश की तरफ लगा, बोलते जा रहा था-देखिए वो जा रही है चिड़िया सी ऊपर..ऊपर..ऊपर… सब लोग ताली बजा रहे थे और वह उन सब की तरफ देख रही थी..उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि झटके से खत्म हुए खेल में वह क्या करे ? (मीरा सीकरी)