जून का महीना और दोपहर के तीन बजे थे। सूरज का गुस्सा जैसे सातवें आसमान पर था। कड़ी धूप में सारी धरती जैसे सुलग रही थी। कार्तिक को आज अपनी श्वेता बुआ को बस स्टैंड तक छोड़ने जाना था, जो गर्मियों। की छुट्टियों में हॉस्टल से घर आई हुई थीं। कालेज खुलने वाले थे इसलिए वापस जा रही थीं। वैसे तो हर बार पापा ही बुआ को कार से बस स्टैंड तक छोड़ने जाते थे पर आज उन्हें किसी काम से शहर से बाहर जाना पड़ा सो बुआ को बस तक छोड़ने का जिम्मा कार्तिक को मिला था।

कार्तिक ने भी यह काम खुशी खुशी ले लिया था। श्वेता बुआ यों तो कार्तिक से आठ नौ साल बड़ी है लेकिन उन दोनों में दोस्तों जैसा रिश्ता है। कार्तिक उनसे अपने मन की हर बात कर लेता है। श्वेता जब घर आती है तो कार्तिक की तो मौज हो जाती है। उसके सारे स्कूल प्रोजेक्ट्स से लेकर घूमने फिरने, आइसक्रीम और पिज्जा खाने तक में उसकी प्यारी श्वेता बुआ उसके साथ होती है। आज भी जब वह उनका बड़ा वाला बैग उठाए उनके साथ घर से निकल रहा था तो भयंकर गर्मी के बावजूद उसकी बातें खत्म होने को ही नहीं आ रही थीं।

घर से निकलते ही दोनों ने रिक्शा के लिए इधर उधर देखा। गली में थोड़ी दूर ही दो साइकिल रिक्शा खड़े थे लेकिन वहां तक पहुंचते-पहुंचते दोनों के पसीना बहने लगा था। बस स्टैंड घर से दो-ढाई किलोमीटर था। तीव्र गर्मी के चलते और सामान को देखते हुए रिक्शा वाले ने तीस रुपये मांगे। तीस रुपये सुनते ही कार्तिक गुस्से में भर रिक्शा वाले से लगभग चिल्लाते हुए बोला, ‘अरे इतने रुपए? लूट मचा रखी है क्या? अरे पास ही तो है बीस रुपए से ज्यादा नहीं लगते।’ रिक्शा वाला कुछ कहता इससे पहले ही श्वेता ने कहा,‘ चलो’। अपने हाथ वाला बैग रिक्शा में रख दिया और उचक कर रिक्शा में बैठने लगी। मजबूरन कार्तिक को भी उसी पर बैठना पड़ा लेकिन उसके चेहरे पर असंतोष साफ-साफ दिख रहा था। उसने तो हमेशा ही मां और दादी को रिक्शा वालों और सब्जी वालों से पैसे कम कराते देखा है। चाहे रिक्शा वाला कम भी बोले तो भी और कम कराना एक आदत सी हो गई है उन सबकी और इसमें उन्हें कुछ गलत भी नहीं लगता।

रिक्शा में बैठते ही वह अंग्रेजी में बोलने लगा-‘बुआ आप बहुत जल्दी करती हो, हम इसको छोड़ कर चल देते तो ये बीस में ही ले जाता। एक बार तो ये लोग ज्यादा ही मांगते हैं। श्वेता ने उसे चुप कराते हुए कहा, ‘ठीक है। कार्तिक, धूप भी तो कितनी है। तिस पर सामान भी है। तीस रुपए ज्यादा थोड़े है।’ पर कार्तिक पर इसका असर नहीं दिख रहा था। वह फुसफुसा कर लेकिन बड़े गर्व से श्वेता को बताने लगा, ‘पता है। बुआ, जब स्कूल से घर आते हुए रिक्शा लेते हैं न तो रिक्शा वाले गली के अंदर आने के ज्यादा रुपए मांगते हंै और गली के बाहर वाले चौक तक के कम।’

एक शरारत भरी मुस्कान के साथ वह आगे बोला,‘पता है मैं क्या होशियारी करता हूं, मैं बाहर वाले चौक तक ही रिक्शा ठहराता हूं और वहां चौक पर रिक्शा से उतर कर कहता हूं कि भैया मेरे पास पैसे नहीं हैं, मैं घर से लेकर दूंगा, मेरे पीछे पीछे आ जाएं, ये कहकर आगे चलने लगता हूं तो वह खुद बुला कर रिक्शा पर बैठा लेता है। इस तरह मैं रोज पांच दस रुपए बचा लेता हूं, चार पांच दिन के बचाए पैसों से एक बढ़िया आइस क्रीम का जुगाड़ हो जाता है। है न मेरे दिमाग का कमाल!’ यह कहकर कार्तिक ने प्रशंसा पाने की आशा से बुआ की ओर देखा लेकिन यह देख कर उसे बड़ी मायूसी हुई कि बुआ उसकी बात से प्रभावित होना तो दूर, कुछ नाराज सी दिखी।

श्वेता ने बड़ी गंभीरता से कहा, ‘कार्तिक, एक गरीब आदमी के साथ तुम्हें ऐसे छल करना शोभा नहीं देता तुम्हें। क्या आइसक्रीम की कमी है? भैया भाभी क्या आइसक्रीम के पैसे नहीं देते। तुम तो इसकी मेहनत के पैसे मार कर आइसक्रीम खाते हो लेकिन उन पैसों से इसके घर परिवार का पेट भरने के लिए खाना और दूसरा जरूरी सामान आता है इनके बच्चों का भी तो आइसक्रीम खाने का मन करता होगा लेकिन उनको ठीक से खाना भी नहीं मिल पाता तो बेचारे आइसक्रीम क्या खाएं?

देखो तो कितने फटे कपड़े पहने हैं इसने। साइकिल रिक्शा खींचना इतना आसान नहीं होता। बहुत मेहनत लगती है। ये कार या स्कूटर की तरह कोई मशीन से तो चलती नहीं, पैर से पैडल मारने पड़ते हैं। शाम तक ये लोग थक कर चूर हो जाते हैं फिर भी कुछ और पैसों की इच्छा से इतनी भयंकर गर्मी में भी रात तक सवारी ढोते रहते हैं। कई बार तो दो रिक्शा के पैसे बचाने के लिए चार पांच लोग एक ही रिक्शा में बैठ जाते हैं। कार्तिक, ये भी तो इंसान हैं फिर भी पशुओं की तरह बोझ खींचने को मजबूर हैं।

इनकी गरीबी ही इन्हें इतने कठिन परिश्रम का काम चुनने को बाध्य करती है। इनमें से ज्यादातर तो किराए पर रिक्शा उठाते हैं। अपनी इतनी कड़ी मेहनत की कमाई से इन्हें रिक्शे के मालिक को भी रोज के हिसाब से बहुत भारी किराया देना होता है। मुझसे वादा करो कि तुम आगे से इनसे यह छल नहीं करोगे। जानते हो तुम्हारी एक आइसक्रीम के पैसों से तो इनका एक समय का खाना आ जाता है।’

कार्तिक कुछ कहता इससे पहले ही बस अड्डा आ गया था, लेकिन उसके फाटक से कुछ पहले ही सड़क खोदी होने से जाम लगा हुआ था। श्वेता ने कहा,‘कार्तिक रिक्शे से तो बस अड्डे के अंदर जाने में बहुत देर लगेगी, हम यहीं उतर कर पैदल चलते हैं।’ दोनो सामान का एक एक बैग उठाए बस अड्डे के अंदर चल दिए। तीव्र धूप और कड़ी गर्मी के कारण तीन सौ गज की दूरी पार करने में कार्तिक का बुरा हाल हो गया था। पूरे बदन से पसीना बहने से चींटियां सी लग रहीं थीं बदन में। गला सूख रहा था? बस तक पहुंच कर कार्तिक ने चैन की सांस ली और बोला-बुआ जान निकल रही है मेरी तो, जरा बैग से पानी तो देना उफ! यह गर्मी क्यों पड़ती है। सड़क को भी आज ही खोदना था।’

श्वेता ने फौरन कहा, ‘देखा कार्तिक,जरा सा चलते ही तुम्हारी क्या हालत हो गई और रिक्शा वाला तो इतनी गर्मी में हमारे साथ साथ हमारा सामान भी ढोकर लाया है। और तुम उसे कम पैसे देना चाहते थे।’

कार्तिक ने शर्मिदा होते हुए कहा, ‘बुआ, मैं अपनी गलती समझ गया हूं, आज के बाद मैं रिक्शे वाले को कम पैसे देना तो दूर बल्कि कुछ ज्यादा ही देने का प्रयत्न करूंगा। एक आइसक्रीम के बदले में एक चेहरे पर मुस्कान देख कर मुझे अधिक प्रसन्नता होगी ।’

यह सुन कर श्वेता के चेहरे पर ऐसी मुस्कान खिल उठी कि दोनों अपनी सारी थकावट भूल गए ।

(शोभना ‘श्याम’)