महाराष्ट्र का एक गांव है तिउसा। यवतमाल से सोलह किलोमीटर दूर। यह गांव किसानों के लिए विशेष बन गया है। किसान यहां आकर खेती-किसानी की बारीकियां सीख रहे हैं। यहां के प्रयोगधर्मी किसान सुभाष शर्मा कई मायने में अनूठी खेती कर रहे हैं, जिसे वह सजीव खेती कहते हैं।
हाल ही में, अपने कुछ मित्रों के साथ उनके फार्म पर गया। खेत में प्रवहश करते ही मुझे टीन शेड दिखा। वहां कुर्सियां बिछी हुई थीं और ब्लैकबोर्ड के साथ स्कैचपेन रखे थे। पूछने पर पता चला यह प्रशिक्षण केंद्र है, जहां किसानों को सजीव खेती का प्रशिक्षण दिया जाता है। यहां किताबें नहीं पढ़ाई जातीं, बल्कि पूरा खेत, फसलें, कीट पक्षी सभी सीखने के माध्यम हैं। समूची प्रकृति ही गुरु है। गाय, बैल, पशु, पक्षी पानी सब शिक्षक हैं। सुभाष शर्मा उनके प्रवक्ता हैं, जो नए-नए प्रयोग कर रहे हैं और बदलते मौसम से बचाव के तरीके ईजाद कर रहे हैं। किसानों से साझा कर रहे हैं। इस वर्ष पांच सौ किसान सजीव खेती की इस प्रक्रिया से जुड़ चुके हैं।
हम भी कुछ समय के लिए प्रशिक्षणार्थी बन गए। उन्होंने बताया, ‘मैंने रासायनिक खेती की और बाद में सजीव खेती।’ 1994 तक वह रासायनिक खेती करते थे, जिससे जमीन की उर्वरक शक्ति क्षीण हो गई, भूजल स्तर नीचे चला गया, देसी बीज खत्म हो गए, फसलचक्र बदल गया और मजदूरों का रोजगार खत्म हुआ। लेकिन जब उनका इस विनाशक खेती से मोहभंग हुआ और सजीव खेती अपनानी शुरू की तो उनका जीवन बदल गया। वह प्रकृति से जुड़ कर खेती के तौर-तरीके सीखने लगे।
खेती विज्ञान है। कोई जादू-टोना नहीं हैं। शुरुआत में वह भी इसके विज्ञान और तकनीक के बारे में ज्यादा नहीं जानते थे। लेकिन धीरे-धीरे अनुभव और सूक्ष्म अवलोकन ने बहुत कुछ सिखा दिया। कम खर्च में ज्यादा उत्पादन पर जोर रहा है। लेकिन उन्होंने तय किया है कि कोई रासायनिक खाद न डालेंगे और न ही कीटनाशक।
उनके पास 17 एकड़ का खेत है। उसमें से केवल 13 एकड़ जमीन में खेती करते हैं और चार एकड़ जमीन गाय और घर के लिए है। खेतों की मेड़ों पर हरे-भरे पेड़ लहलहाते हैं। वह बताते हैं कि खेती को समझने के लिए हमें धरती की संरचना को समझना पड़ेगा। इसमें मिट्टी, पानी हवा है। पौधे, वृक्ष, वनस्पति हैं। पशु, पक्षी और जीव-जंतु भी हैं।
इनमें से एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं रहेगा। वह सब एक दूसरे के पूरक हैं। लेकिन रासायनिक खाद ने इसका संतुलन गड़बड़ा दिया है। बेजा रासायनिक खाद के इस्तेमाल ने मिट्टी, पानी और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया है। इसे ठीक करने की जरूरत है। सजीव खेती के लिए मिट्टी, पानी, बीज, फसलचक्र और श्रमशास्त्र पर जोर देना होगा। परंपरागत और आधुनिक ज्ञान, योजना और मेहनत करने का जज्बा खेती में बदलाव ला सकता है।
मिट्टी की सेहत सुधारना पहला काम है। इसके लिए देसी गाय पालना, पेड़-पौधे लगाना जरूरी है। पेड़ होंगे तो पक्षी भी आएंगे, कीट नियंत्रण भी होगा और इस सबसे मिलेगी जैव खाद। यही हमारे खेत की मिट्टी को उर्वर बनाएगी। इसके साथ मेहनत की जाए तो अच्छे नतीजे आते हैं। वह अपने खेत में जैविक खाद डालते हैं, जिसे बनाने की विधि उन्होंने खुद ईजाद की है। जिसमें वह गोबर खाद, तालाब की मिट्टी, अरहर के छिलके, मूंगफली और गुड़ से मिलाकर बनाते हैं। वह कहते हैं रासायनिक खाद के इस्तेमाल से रोग आते हैं। जबकि जैविक खाद के इस्तेमाल से रोग नहीं आते हैं।
इसी प्रकार सूक्ष्म जीवाणुओं के कारण बारिश का पानी खेत में रुकेगा और भूजल स्तर ऊपर आएगा। अगर हम खेत में मल्चिंग ( भूमि ढकाव) करते हैं तो तुअर में फलियां ज्यादा लगती हैं। उसकी पत्तियां जैव खाद बनाती हैं। इससे नमी का संरक्षण भी होता है और यही बाद में जैव खाद में बदल जाती है।
इसके अलावा हरी खाद लगाते हैं। अरहर, मूंग, उड़द जैसी फसलें लगाते हैं जिन्हें 55- 60 दिन बाद काटकर भूमि ढकाव करते हैं। इस प्रकार, गाय के गोबर से सूक्ष्म जीवाणु, केंचुआ, कीड़े-मकोड़े पैदा हो जाते हैं और जमीन को छिद्रित, पोला और पानीदार बनाते हैं। ये सब मिलकर जमीन को उपजाऊ और ताकतवर बनाते हैं जिससे फसल अच्छी होती है।
नतीजतन खेती में मुनाफा बढ़ रहा है। उनका बीस लाख का सालाना कारोबार है। वह देश में शायद विरले किसान होंगे जो अपने मजदूरों को बोनस देते हैं। जलवायु बदलाव से बचने के लिए पेड़ लगाना जरूरी है। उन्होंने अपने खेत में दो सौ पेड़ लगाए हैं। जिसमें नीम, आम, जामुन, इमली, पीपल, नींबू जैसे कई पेड़ हैं। पेड़ों के फूलों पर मधुमक्खियां आती हैं, वह परागीकरण में मदद करती हैं। हवा भी इस प्रक्रिया में सहायक है। पक्षी आते हैं। वह कीट नियंत्रण करते हैं। पेड़ों से तापमान नियंत्रित होता है, जो इन दिनों बढ़ता ही जा रहा है, जिसके कारण मेंथी जैसी कम तापमान में होने वाली फसलें मार खा जाती हैं।
खेत का पानी खेत में ही रुके, इसका प्रबंधन भी जरूरी है। औद्योगिकीकरण और प्रदूषण के कारण तापमान लगातार बढ़ रहा है। इसके लिए कम पानी वाली फसलें लगाते हैं। उनके कुएं में साल भर पानी रहता है। हमने उनके अरहर और चने के खेत देखे। कद्दू, मेंथी और मूली की फसल देखी। यहां स्वाभाविक कीट नियंत्रण है। कीट और पौधों की बिरादरियों में एक संबंध है। मैं चीटियों को बड़ी देर तक देखता रहा। वह बता रहे थे बीज और फसल चक्र ऐसे चुनते हैं जो हवा, मिट्टी और पर्यावरण के अनुकूल हों। देसी बीज सबसे उपयुक्त है।
सुभाष शर्मा, जापानी कृषि वैज्ञानिक मासानोबू फुकूओका से काफी प्रभावित हैं। फुकुओका अपने खेत की जुताई नहीं करते थे और न ही रासायनिक खादों का इस्तेमाल। उनकी बेस्टसेलर किताब ‘द वन स्ट्रा रिवोल्यूशन’ ने दुनिया में कई लोगों को प्रभावित किया है। शर्मा ने इसमें थोड़ा बदलाव किया है। वह अपने खेतों में बैलों से जुताई करते हैं, पर ट्रैक्टर से नहीं। पर वह बाहरी रासायनिक खाद और कीटनाशक का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं करते। जैविक खाद वह खुद तैयार करते हैं।
हालांकि इस खेती में श्रम की सतत जरूरत होती। इसके लिए सात मजदूर परिवार रहते हैं। जबसे खेती में मशीनीकरण हुआ है तबसे खेतों में मेहनत कम हुई है। इसलिए शुरुआत में ज्यादा मेहनत लग सकती है, लेकिन अंत में मेहनत रंग लाती है।
सजीव खेती एक संपूर्ण जीवन पद्धति है। जब हम विनाशक खेती के स्थान पर सजीव खेती करते हैं तो उसके साथ हमारा आहार भी बदल जाता है। समाज और जीवन मूल्य भी बदलेंगे। इस खेती में मानव की भूख मिटाने के साथ समस्त जीव-जगत के पालन का विचार भी निहित है। इससे मिट्टी, पानी, जैव विविधता और पर्यावरण का भी संरक्षण होगा।
यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हमारी धरती गरम हो रही है। तापमान बढ़ रहा है। मौसम बदल रहा है। और इस सबका किसान की खेती पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इससे बचने के लिए और मौसम को नियंत्रण करने में भी सजीव खेती कारगर साबित हो सकती है। (बाबा मायाराम)