हिंदी साहित्य के कई दिग्गज साहित्यकारों का जन्मदिन हर साल धूमधाम से पूरे देश में मनाया जाता है। इसके बावजूद उनकी जन्मस्थली मौजूदा समय में उपेक्षित है। दरअसल हमारे देश में विरासत को सहेजने की परंपरा कुछ कमजोर है। इस कारण साहित्यकारों की विरासतें या तो जीर्णशीर्ण अवस्था में हैं या उनके अवशेष पूरी तरह से मिट चुके हैं। ऐसी ही हालत है एरिक आर्थर ब्लेयर उर्फ जार्ज आॅरवेल के जन्मस्थली की।

साहित्यकार होने के साथ-साथ आॅरवेल एक सफल पत्रकार भी थे। अपने छोटे से जीवनकाल (25 जून 1903 से 21 जनवरी 1950) के बावजूद उनका योगदान पत्रकारिता और साहित्य के प्रति अप्रतिम है। जार्ज आॅरवेल का भारत से गहरा संबंध रहा है। उनका जन्म 25 जून, 1903 को बिहार के मोतिहारी जिले में हुआ था। वे रिचर्ड डब्लू ब्लेयर और इदा मॉबेल ब्लेयर की दूसरी संतान थे। उनके पिता भारतीय सिविल सेवा के अधिकारी के तौर पर अफीम विभाग में कार्यरत थे। उस वक्त बिहार, बंगाल प्रेसिडेंसी का हिस्सा हुआ करता था। इस लिहाज से देखा जाए तो आॅरवेल के जन्म के सौ साल 2003 में ही पूरे हो गए थे। पर भारत में और खासकर के बिहार में न तो उनकी जन्मशती मनाई गई और न ही उन्हें कभी याद किया गया। जबकि कला-संस्कृति और साहित्य हमेशा से देश-काल की सीमा से परे रहा है। फिर भी इस तरह की नाइंसाफी आॅरवेल के साथ क्यों की गई, यह समझ से परे है?

मोतिहारी बिहार की राजधानी पटना से तकरीबन 170 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में अवस्थित है। यह एक कस्बानुमा शहर है। ऊर्जा के मामले में यहां के निवासी किसी से भी कम नहीं हैं। शहर का नियोजन अब भी बेतरतीब है। धूल और कीचड़ शहर के रोम-रोम में बसा हुआ है, लेकिन परेशानियों से जूझते हुए भी इस शहर के लोग आज भी जीना नहीं भूले हैं। मोतिहारी के आमजन का जीवन आज भी जीवंत है। किसी भी स्तर पर उन पर कृत्रिमता का मुलम्मा नहीं चढ़ा है। लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में काम आते हैं। शाम के वक्त गांधी चौक से लेकर मीना बाजार तक पूरा बाजार ऊर्जा और जीवंतता से भरा रहता है। शहर की हालत जैसी भी हो, लेकिन इसकी ऐतिहासिक विरासत बेमिसाल है। महात्मा गाांधी ने अपने चंपारण सत्याग्रह की शुरुआत इसी शहर से की थी। जार्ज आॅरवेल भी गांधीजी के मुरीद थे। वे गांधीजी के सिद्धांतों और विचारों के समर्थक थे।

भगवान बुद्ध का विश्व में सबसे बड़ा स्तूप केसरिया मोतिहारी से महज चालीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। जार्ज आॅरवेल की जन्मस्थली गांधी चौक से जानपुर जाने के क्रम में दिल्ली पब्लिक स्कूल के पास है। जार्ज आॅरवेल की जन्मस्थली आज जर्जर अवस्था में है। अगर वहां पर जार्ज आॅरवेल के नाम वाला संगमरमर का स्मृतिचिह्न स्थापित नहीं होता तो शायद किसी को भी इस सचाई का पता नहीं चलता। जन्मस्थली के नजदीक आज भी झाड़-झंखाड़ का साम्राज्य कायम है। मल-मूत्र और गंदगी के कारण तेज दुर्गंध पूरे वातावरण में हमेशा काबिज रहती है। जिस घर में आॅरवेल ने प्रथम बार अपनी आंखें खोलीं थीं वह आज कुत्तों और बकरियों का आश्रय स्थल बना हुआ है। इन जानवरों के साथ-साथ सर्वहारा वर्ग के लिए भी यह आश्रय स्थल का काम करता है।

कुछ लोगों के लिए यह कार्यस्थल भी है। लोग यहां स्वरोजगार में लगे रहते हैं। आॅरवेल के घर की विपरीत दिशा की तरफ की दीवार एक तरफ से अभी भी बची हुई है। अफसोस की बात यह है कि घर के आसपास का इलाका खुले और आवारा जानवरों के लिए चरागाह बना हुआ है। इस संदर्भ में अच्छी बात यह कि ‘एनिमल फॉर्म’ का मुख्य पात्र ‘व्हाइट पिग’ यहां हमेशा विचरता रहता है।

जा र्ज आॅरवेल की ख्याति पूरी दुनिया में है। उनकी जन्मस्थली को पर्यटकों- खास करके विदेशी सैलानियों के आर्कषण का केंद्रबिंदु बनाया जा सकता है। अगर ऐसा होता है तो मोतिहारी का विकास तो होगा ही, साथ ही साथ राज्य सरकार की आमदनी में भी बढ़ोतरी होगी। यह तभी संभव हो सकेगा जब राज्य सरकार स्वयं आगे बढ़कर इस दिशा में पहल करे। यह तो मानना ही पड़ेगा कि आज भी हमारे देश के हर तबके के बीच ‘एनिमल फॉर्म’ के कथानक की प्रासंगिरकता बनी हुई है। देश का हर समाज ‘इक्वल और मोर इक्वल’ में बंटा हुआ है। इस ‘इक्वल और मोर इक्वल’ की संकल्पना को पंख सबसे पहले हमारे घर में लगता है। एक ही मां-बाप की संतान ‘इक्वल और मोर इक्वल’ हो जाते हैं। हर रोज हम इस फर्क को अपनी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के दौरान देखते और महसूस करते हैं।

विडंबना ही है कि डॉक्टर तक मरीज देखने के दरम्यान ‘मोर इक्वल’ को तरजीह देते हैं। कारपोरेट्स जैसे ‘मोर इक्वल’ सरकार पर हमेशा हॉवी रहते हैं और ‘इक्वल’ या ‘आम व्यक्ति’ के जीवन की दशा और दिशा का निर्धारण करते हैं। देश में आए दिन घोटाले को अंजाम देने में ‘मोर इक्वल’ सर्वदा ‘कारक’ की भूमिका अदा करते हैं। इस तरह के घोटालों में अमूमन ‘मोर इक्वल’ की सहभागिता होने की वजह से सरकार कभी भी उनका बाल बांका नहीं कर पाती है। ‘एनिमल फॉर्म’ के मुताबिक भी हमारे देश में आम आदमी का भविष्य बहुत ही कष्टप्रद है।

पत्रकार के रूप में मुख्य रुप से आॅरवेल ने ट्रिब्यून, मैनचेस्टर, इवनिंग न्यूज और आब्जर्वर में काम किया। उनका रचना-संसार बेहद व्यापक है, लेकिन उन्हें याद उनकी अमर रचना ‘एनिमल फार्म’ के लिए किया जाता है। ‘एनिमल फार्म’ में रूसी क्रांति के बाद सोवियत यूनियन में आए बिखराव और स्टॉलिन के उन्नयन गाथा को बहुत ही सहज ढंग से उकेरा गया है। इस उपन्यास में व्हाइट पिग के मुंह से कहलवाया गया यह कथन ‘आॅल एनिमल्स आर इक्वल, बट एट द सेम टाइम सम एनिमल्स आर मोर इक्वल’ पूरे उपन्यास का सारांश है। उल्लेखनीय है की यह कथन हर कालखंड में प्रासंगिक रहा है और ऐसा प्रतीत होता है कि आगे भी इसकी प्रासंगिकता बनी रहेगी। जार्ज आॅरवेल की दूसरी चर्चित रचना ‘नाइनटीन ऐटी फोर’, जो कि 1949 में लिखी गई थी, में यह बताने की कोशिश की गई है कि अगर सरकारें चाहें तो भाषा पर नियंत्रण करके आम आदमी के विचार पर नियंत्रण कर सकती है।

उनके द्वारा लिखित उपन्यासों में बर्मीज डेज, कीप द एसपिडस्टरा फ्लॉइंग, कमिंग अप फॉर एअर आदि विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। उनके कुछ रिपोर्ताज भी चर्चित रहे हैं। मसलन, डाउन एंड आउट इन पेरिस एंड लंदन। इसमें पेरिस और लंदन में फैली हुई गरीबी का सजीव वर्णन है तो वहीं ‘द रोड टू विगन पियर’ में आॅरवेल ने उत्तरी लंदन में रहने वाले गरीबों के रहन-सहन पर रोशनी डाली है।