उनका पूरा नाम रासीपुरम कृष्णस्वामी अय्यर नारायणस्वामी था। वे अंग्रेजी साहित्य के महान उपन्यासकारों में गिने जाते हैं। आरके नारायण के पिता तमिल भाषा के अध्यापक थे। नारायण ने भी थोड़े समय के लिए अध्यापक और फिर पत्रकार के रूप में काम किया था और फिर सारा जीवन लेखन में ही लगाया। उनके उपन्यास ‘गाइड’ के लिए उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

इस उपन्यास पर बाद में फिल्म भी बनी। उन्होंने एक काल्पनिक शहर मालगुडी को आधार बनाकर अपनी अनेक रचनाएं की हैं। उनका पहला उपन्यास ‘स्वामी और उसके दोस्त’ (स्वामी ऐंड हिज फ्रेंड्स) 1935 में प्रकाशित हुआ था। ‘स्रातक’ (द बैचलर आफ आर्ट्स) भी 1935 में प्रकाशित हुआ। यह एक संवेदनशील युवक की कहानी है, जिसमें उसके शिक्षा से प्राप्त प्रेम और विवाह संबंधी पश्चिमी विचारों और उसके सामाजिक ढांचे के बीच द्वंद्व को दिखाया गया है। ‘द डार्क रूम’ (1938) भी दैनंदिन जीवन की छोटी-छोटी बातों और घटनाओं के विवरण से बुनी कहानी है। इसमें भावनाओं का बिंब उकेरने में लेखक की कुशलता का परिचय मिलता है।

आरके नारायण की रचनात्मकता के तीन स्तर हैं। उनकी रचनात्मक श्रेष्ठता का ‘स्वर्णयुग’ भारतीय स्वतंत्रता के बाद आया। 1952 से 1962 तक के एक दशक से कुछ अधिक वर्षों का समय उनकी रचनात्मकता का स्वर्ण युग था। इससे पहले और इसके बाद के समय को स्पष्ट विभाजित किया जा सकता है। रचनात्मक प्रौढ़ता के इस श्रेष्ठ समय में लेखक के उपन्यासों की त्रयी आई। ये तीन उपन्यास थे- ‘द फाइनेंसियल एक्सपर्ट’ (1952), ‘गाइड’ (1958) और ‘मालगुडी का आदमखोर’ (द मैनईटर आफ मालगुडी) (1962)। ‘गाइड’ नारायण की रचनात्मकता का शिखर है। इसे उनका श्रेष्ठतम उपन्यास माना गया है। इसमें उनकी व्यंग्य दृष्टि तीक्ष्ण, नैतिक सरोकारों से जुड़ी और तकनीकी रूप से सूक्ष्म है।

‘मालगुडी का आदमखोर’ में लेखक ने अपने नैतिक सरोकार को भस्मासुर की प्राचीन पौराणिक नीति कथा के संदर्भ को रचनात्मक रूप में आधुनिकता के साथ पुनर्सृजित किया है। यह आधुनिक भस्मासुर पशुओं की खाल में भूसा भरने वाला एक स्वार्थी, उद्धत तथा उद्दंड पात्र है, जो मंदिर के हाथी को गोली मारने के लिए घात लगाकर बैठा रहता है, पर अनायास अपने माथे के पास मंडराती एक मक्खी को मारने के प्रयत्न में गोली चल जाने से खुद को ही मार डालता है। इसमें हास्य मिश्रित व्यंग्य का भी इस्तेमाल लेखक ने किया है।

नारायण की औपन्यासिक बृहत्तत्रयी के बीच प्रकाशित ‘महात्मा का इंतजार’ (वेटिंग फार द महात्मा) (1955) में स्पष्ट रूप से तथा बाद में प्रकाशित ‘द वेंडर आफ स्वीट्स’ (मालगुडी का मिठाईवाला) (1967) की पृष्ठभूमि में गांधीवादी संघर्ष है। ‘महात्मा का इंतजार’ इस बात का अध्ययन है कि गांधीवादी क्रांति को लेकर भारतीय जन साधारण में कैसी प्रतिक्रिया हुई।

आरके नारायण ने अपनी बहुआयामी कृतियों के माध्यम से दक्षिण भारत के शिष्ट समाज की विचित्रताओं का वर्णन किया है। उनका विशेष लक्ष्य अंग्रेजियत से भरा भारतीय है। उनकी कहानियों में भी उसका वर्णन उसके खंडित व्यक्तित्व, आत्मवंचना और उसमें अंतर्निहित मूर्खता आदि के साथ मिलता है।

एक कहानीकार के रूप में नारायण का प्रमुख स्वर कोमल व्यंग्य का है। व्यंग्य-विपर्यय द्वारा वे मानवीय मनोविज्ञान को पकड़ते रहे हैं। कुछ कहानियां रेखाचित्र के रूप में भी हैं और वे नारायण के सनकी पात्रों की समझ को पकड़ने की क्षमता से भरी हुई हैं। कहानी में वे किसी क्रांतिकारी शैली को नहीं अपनाते। सहज पठनीयता उनकी कहानी की अतिरिक्त विशेषता है।