प्रोफेसर दिगम्बर हांसदा ऐसी हस्ती का नाम है, जिन्होंने जनजातीय समुदाय एवं उनकी भाषा के उत्थान और सांस्कृतिक पहचान के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। इसके लिए उन्होंने दिन-रात अध्ययन किया, भाषा-संस्कृति की दूरियां पाटने के लिए अनुवाद का सहारा लिया और आदिवासियों को मुख्य धारा से जोड़ने, उन्हें शिक्षित करने के लिए गांव-गांव जागरूकता अभियान चलाए।
दिगम्बर हांसदा का जन्म 16 अक्तूबर, 1939 को पूर्वी सिंहभूम जिले के घाटशिला स्थित डोभापानी (बेको) में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा राजदोहा माध्यमिक स्कूल से हुई। मैट्रिक की परीक्षा मानपुर हाईस्कूल से पास की। वर्ष 1963 में रांची विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातक और 1965 में एमए किया। अपने समाज की दरिद्रता, गरीबी, अशिक्षा को करीब से देखा था।
इसलिए समाज में बदलाव लाने की बेचैनी उम्र के साथ बढ़ती गई। पढ़ाई पूरी होने के बाद हांसदा टिस्को आदिवासी सहकारी समिति से सचिव के रूप में जुड़े। यह ऐसा संगठन था, जिसने आदिवासियों के लिए नौकरी-रोजगार के अवसर पैदा करने पर ध्यान केंद्रित किया और व्यावसायिक पाठ्यक्रम संचालित किए। कुछ समय के लिए उन्होंने भारत सेवाश्रम संघ के साथ भी काम किया। इन संगठनों के साथ काम करने के दौरान उन्होंने आरपी पटेल हाई स्कूल, जुगसलाई सहित जमशेदपुर के पास ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूल बनवाने में काफी मदद की।
हांसदा का पूरा जोर आदिवासी आबादी को शिक्षित करने, उन्हें रोजगार से जोड़ने और उनकी संस्कृति को संरक्षित करने के साथ-साथ उन्हें अन्य संस्कृतियों, समाजों से परिचित कराने पर रहा। आदिवासी लोककलाओं को संरक्षित करने की उनकी जिद ऐसी थी कि नियमित रूप से स्थानीय कलाकारों से लोककथाओं और लोकगीतों को इकट्ठा करने एवं आदिवासियों के बीच साहित्यिक कार्यों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए वह पोटका और घाटशिला के गांव-गांव गए।
उन्होंने पाठ्यक्रम की कई पुस्तकों का देवनागरी से संथाली में अनुवाद किया और इस तरह इंटरमीडिएट, स्नातक तथा स्नातकोत्तर के लिए संथाली भाषा में पाठ्यक्रम तैयार हुआ। यही नहीं, भारतीय संविधान का भी संथाली भाषा की ओवचिकी लिपि में अनुवाद किया। स्कूल-कालेज की पुस्तकों में संथाली भाषा को जुड़वाने का श्रेय प्रोफेसर हांसदा को ही जाता है।
वह करनडीह स्थित लालबहादुर शास्त्री मेमोरियल कालेज के प्राचार्य रहे, यहीं से सेवानिवृत्त हुए। इस कालेज को बनवाने में उनका खासा योगदान था। उनकी क्रियाशीलता की बात करें तो उन्होंने कोल्हान विश्वविद्यालय के सिंडिकेट सदस्य के तौर काम किया। वर्ष 2017 में दिगम्बर हांसदा आइआइएम बोधगया की प्रबंध समिति के सदस्य बने। वह ज्ञानपीठ पुरस्कार चयन समिति (संथाली भाषा) के सदस्य भी रहे।
भारतीय भाषा संस्थान मैसूर, ईस्टर्न लैंग्वैज सेंटर भुवनेश्वर में संथाली साहित्य के अनुवादक, आदिवासी वेलफेयर सोसाइटी जमशेदपुर, दिशोम जाहेरथान कमेटी जमशेदपुर एवं आदिवासी वेलफेयर ट्रस्ट जमशेदपुर के अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएं दीं। उन्होंने जिला साक्षरता समिति पूर्वी सिंहभूम एवं संथाली साहित्य पाठ्यक्रम समिति, यूपीएससी नई दिल्ली और जेपीएससी झारखंड के सदस्य रहते कई विशेष कार्य अंजाम दिए, जिनका लाभ पीढ़ियों को मिलता रहेगा।
उन्हें संथाली भाषा के विद्वान शिक्षाविद के रूप में देशभर में सम्मान हासिल है। प्रोफेसर हांसदा संथाल साहित्य अकादमी के संस्थापक सदस्य थे। इस अकादमी ने संथाली भाषा के विकास में बड़ा सहयोग दिया है। शिक्षाविद, साहित्यकार, समाजसेवी होने के साथ दिगम्बर हांसदा की पहचान बेहद नेक दिल इंसान के रूप में रही है। लेखन का उन्हें शुरू से शौक था।
उन्होंने सरना गद्य-पद्य संग्रह, संथाली लोककथा संग्रह, भारोतेर लौकिक देव देवी, गंगमाला, संथालों का गोत्र आदि किताबें लिखीं। साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए दिगम्बर हांसदा को वर्ष 2018 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। आल इंडिया संथाली फिल्म एसोसिएशन ने उन्हें लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड प्रदान किया, तो 2009 में निखिल भारत बंग साहित्य सम्मेलन ने उन्हें स्मारक सम्मान से नवाजा।
भारतीय दलित साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा दिगम्बर को डाक्टर आंबेडकर फेलोशिप दी गई। हांसदा ने झारखंड, ओड़ीशा और पश्चिम बंगाल में आदिवासी समुदायों की गरीबी, अशिक्षा और कुरीतियों-बुराइयों को दूर करने की दिशा में ठोस पहल की। वंचितों की सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिए काम करते हुए दिगंबर हांसदा का 81 वर्ष की आयु में 19 नवंबर 2020 को करनडीह स्थित आवास पर निधन हो गया।