राष्ट्रवाद की प्रतीक, गांधीवादी मातंगिनी हाजरा का जन्म 19 अक्तूबर 1870 में बंगाल के तमलुक के पास होगला नामक गांव में हुआ था। गांव की अनपढ़ या कम पढ़ी लिखी महिलाओं ने स्वतंत्रता आंदोलन में किस प्रकार अपने हिस्से का योगदान दिया, उसका उदाहरण हैं हाजरा। मातंगिनी हाजरा 73 वर्ष की थीं जब वे 1942 में बंगाल के तमलुक में महात्मा गांधी के आह्वान पर एक विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व कर रही थीं। वहां ब्रिटिश गोलियों का शिकार हो गई। तिरंगा हाथ में थामे वह शहीद हो गई।
भारत छोड़ो आंदोलन के शुरुआती शहीदों में नाम है मातंगिनी हाजरा का। कट्टर गांधीवादी, मातंगिनी हाजरा उन हजारों महिलाओं में शामिल थीं, जो महात्मा के आह्वान पर स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए खड़ी हो गई। वे बंगाल की सबसे बड़े राष्ट्रवादी प्रतीकों में से गिनी जाती हैं। मातंगिनी बहुत ही गरीब किसान परिवार में पैदा गई। उनके पिता उन्हें औपचारिक शिक्षा दिलाने और अच्छा दहेज देने में भी सक्षम नहीं थे।
यही कारण रहा कि मजबूरीवश 12 साल की उम्र में मेदिनीपुर के अलीनान गांव के 60 वर्षीय त्रिलोचन हाजरा से उनकी शादी कर दी गई। दुर्भाग्य ने उनका पीछा यहां भी नहीं छोड़ा और जब वे 18 वर्ष की हुई, तो विधवा हो गई। वे अनपढ़ जरूर थीं, लेकिन उनमें हौसला गजब का था। समाज के लिए कुछ करने की भावना कूट-कूट कर भरी थी।
पति की मृत्यु के बाद उन्होंने गरीब ग्रामीणों की भलाई के लिए कार्य करना शुरू कर दिया और इस तरह सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में उनकी पहचान बढ़ती गई। 20वीं सदी के अंत में राष्ट्रवादी आंदोलन पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में जोर पकड़ रहा था। गांधीजी स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए पूरे क्षेत्र की यात्राएं कर रहे थे। मातंगिनी का गांधी के प्रति प्रेम इतना गहरा था कि लोग उन्हें बूढ़ी गांधी के नाम से पुकारने लगे थे। निडर मातंगिनी को 61 साल की उम्र में 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के लिए गिरफ्तार किया गया था।
वास्तव में, आंदोलन में भागीदारी के कारण उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। नमक अधिनियम तोड़ने के आरोप में भी उन्हें गिरफ्तार किया गया था। इसके बाद चौकीदारी कर बंदी आंदोलन में भाग लिया। इसमें भाग लेने वालों को दंडित करने के लिए बनाई गई अवैध अदालत के विरोध में निकाले गए जुलूस में भागीदारी के लिए मातंगिनी को पुन: गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें छह महीने कैद की सजा हुई और बहरामपुर जेल भेज दी गई। यहां से रिहा होने के बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सक्रिय सदस्य बन गई और अपनी खुद की खादी कातने लगीं ।
वर्ष 1933 में उन्होंने श्रीरामपुर में उपविभागीय कांग्रेस सम्मेलन में भाग लिया था, जहां पुलिस द्वारा लाठीचार्ज में वे घायल हो गई। अगस्त 1942 में महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हाजरा ने लगभग 6,000 प्रदर्शनकारियों के बड़े जुलूस का नेतृत्व किया, जिसमें ज्यादातर महिलाएं थीं। तमलुक पुलिस स्टेशन को ब्रिटिश अधिकारियों से अपने कब्जे में लेने के उद्देश्य से यह जुलूस आगे बढ़ा।
पुलिस ने रोकने की कोशिश की तो झड़प हो गई। हाजरा ने आगे बढ़कर पुलिस से जुलूस पर गोली न चलाने की अपील की। उनकी दलीलें अनसुनी कर दी गई और ब्रिटिश पुलिस कर्मियों ने उन पर तीन बार गोलियां चलाई। उनकी मौत के अंतिम क्षणों के बारे में सरकारी अभिलेखों में लिखा है कि गोली लगने से बने गहरे घावों के बावजूद हाजरा वंदे मातरम का नारा लगाते हुए आगे बढ़ती रहीं।
जब ब्रिटिश सिपाहियों ने उनके सीने में गोली मारी तो वह गिर गई, लेकिन तिरंगा झंडा हाथ से नहीं छोड़ा। तिहत्तर वर्ष की उम्र में 29 सितंबर, 1942 को आजादी के लिए संघर्ष करते हुए सड़क पर उनकी मृत्यु हो गई। इस घटना के बाद क्रांतिकारियों ने उग्र आंदोलन कर मेदिनीपुर में अपनी समानांतर सरकार स्थापित कर ली, जो 1944 तक काम करती रही। हालांकि गांधी के अनुरोध पर इसे भंग कर दिया गया।
मातंगिनी हाजरा के सम्मान में पश्चिम बंगाल में कई कालोनियों, स्कूलों, सड़कों और पुलों के नाम रखे गए हैं। सन 1977 में कोलकाता में उनकी प्रतिमा लगाई गई, जो स्वतंत्र भारत में कोलकाता में लगाई गई किसी महिला की पहली प्रतिमा थी। सन 2002 में भारत सरकार के डाक विभाग ने ताम्रलिप्त जातीय सरकार का एक स्मारक डाक टिकट जारी किया, जिस पर मातंगिनी हाजरा की तस्वीर छपी थी। मातंगिनी हाजरा ने देश की स्वतंत्रता के लिए अदम्य शौर्य और साहस का परिचय दिया।