उठना
ऐसे उठो!
जैसे चांद को चूमने उठती हैं
समुद्र की लहरें
ऐसे उठो! जैसे अंधेरे से दो-दो हाथ करने
अलस्सुबह नहा-धोकर उठता है सूरज
ऐसे उठो! जैसे आकाश छूने
पहाड़ का सीना फोड़ उठता है पेड़
ऐसे उठो!
जैसे खेतों में हरापन भरने
झील से उठता है बादल
ऐसे उठो!
जैसे सूरज के स्वागत में मुंह-अंधेरे
गांव में उठती है मां
ऐसे उठो!
जैसे क्रूर समय की चट्टान को धकेलती
भीड़ से उठती हैं कुछ मुट्ठियां
उठो! और उठा लाओ
क्षितिज के उस पार रखी
अपने हिस्से की रोशनी।
यात्रा
अंतहीन होती हैं यात्राएं
केवल पैर नहीं होते गवाह उनके
हमारे भीतर भी
सुनाई देती है उनकी पदचाप
जड़ से फूल तक की यात्रा में
गमकता है जीवन का उत्स
समुद्र की यात्रा में
नदी रचती है जिंदगी का महाकाव्य
करोड़ों-करोड़ वर्षों से
सूरज की यात्रा पर है धरती
यात्रा में ठहरना यानी जिंदगी का फुलस्टॉप
सो, अथक घूमता रहता है कुम्हार का चाक
पपड़ाये होंठ लिए जितना नजदीक पाता हूं
इस दूर तक फैले मरुस्थल में
उतनी की दूर होती जाती है मृगमरीचिका
ओ! मेरी अनंत चाह
क्षितिज के उस पार खड़ी
यों ही बिखेरती रहना निश्छल हंसी के फूल
सदियों के उबड़-खाबड़ रास्ते तय करता
आ रहा हूं मैं।
सरसों का फूलना
सरसों ही नहीं फूलती
फूलता है किसान का सीना
महमहा उठती है धरती की आत्मा
गांव की आबो-हवा में
तैरने लगते हैं जीवन के रंग
तितलियों के पंखों पर सवार
अल्हड़ लड़कियों की ठिठोली से
झूम उठता है खेत का मन
खिलने लगते हंै हाथों में सरसों के फूल
शहर के बियाबान में
गमलों में खिले कैक्टस की तरह
बौनी हो गई सौंदर्य चेतना
हाशिए पर खड़ी कराह रही हैं संवेदनाएं
हमारे कवि की आंखें
चिरमिराने लगती हैं कोल्हुओं में पिरती सरसों से
वह सिर्फ संजय की आंखों से देखता है
सरसों का फूलना
और महसूस करता है गांव की माटी से आती
सरसों की गंध।
(रमेश प्रजापति)