मायानगरी तक के सफर में शकील बदायूंनी को जिस शायरी से मशहूरियत मिली, उसकी शुरुआत बदायूं से हुई थी। सौ साल के लंबे अरसे के बावजूद आज भी दो निशानियां उनकी यादें ताजा करती हैं। इनमें एक है उनके वे गीत जो कानों में रस घोलते हैं। दूसरा उनका बदायूं का वह घर जहां अगस्त 1916 में उन्होंने जन्म लिया था। छोटी उम्र से ही शायरी करने वाले शकील का असल नाम यों तो गफ्फार अहमद था, लेकिन उन्होंने ‘सबा’ और ‘फरोग’ जैसे उपनाम भी रखे। उनकी पहचान बनी शकील बदायूंनी के नाम पर ही। तेरह बरस की उम्र में उन्होंने पहली गजल लिखी, जो उस वक्त के नामी अखबार ‘शाने-हिंद’ में 1930 में प्रकाशित हुई थी।
इसके बाद से शायरी का जो सिलसिला चला वह आखिरी उम्र तक जारी रहा। एक मंचीय शायर के तौर पर शुरुआत करने वाले शकील का सफर कई मोड़ लेता रहा। बदायंू से अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी तक के सफर में उनकी पहचान एक ऐसे मंचीय शायर के तौर पर बन चुकी थी जिसे उस वक्त के नामी शायरों ने भी नजरअंदाज नहीं किया। फिराक गोरखपुरी ने उनकी उस वक्त की शायरी को ‘लाजवाब पूंजी’ कहा था तो जिगर मुरादाबादी ने उनके उज्जवल भविष्य की कामना यह कहते हुए की थी, ‘अगर शकील इसी तरह पड़ाव तय करते रहे तो भविष्य में अदब के इतिहास में वह अमर हो जाएंगे।’ और हुआ भी यही।
मुशायरे के दौरान शकील को मशहूर फिल्म निदेशक एआर कारदार ने फिल्मों में गीत लिखने का मौका दिया। पहली ही फिल्म ‘दर्द’ के गीतों ने सुनने वालों पर वह असर किया कि फिल्म और गीत दोनों जबरदस्त हिट हुए। उमादेवी की आवाज में ‘अफसाना लिख रही हूं दिले बेकरार का’ लोगों की जबान पर चढ़ गया। शकील रातों-रात स्टार की जद में खड़े हो गए।
खुद उनका अंदाज भी किसी फिल्मी हीरो से कम नहीं था। सलीके से संवरे हुए बाल, सूट-बूट में जब वह मुशायरों में जाते तो शायर कम अभिनेता ज्यादा नजर आते थे। हालांकि उनके गीतों से उनकी शख्सियत की गहरी सोच का अंदाजा लगाया जा सकता है। खुद उन्होंने अपनी शायरी के बारे में कहा है, ‘मैंने अपनी शायरी में पुराने और नए दोनों रंगों को पेश करने की कोशिश की है।’ वहीं गजल को तरन्नुम में कहने का उनका अंदाज भी इतना नरम और मीठा था कि मुशायरों में भी उन्हें खूब शोहरत मिलती थी। मुशायरों में उनका अंदाज इतना खुशमिजाज रहता था कि अक्सर माहौल खुशगवार हो जाता था। ऐसे ही एक मुशायरे का जिक्र खुद शकील बदायूंनी ने किया है। इसकी अध्यक्षता शकील ने की थी। जिगर मुरादाबादी भी इसमें शामिल थे। बात जब अंत में कलाम पेश करने की आई तो जिगर मुरादाबादी ने शकील बदायूंनी से कहा, ‘आप मुशायरे की अध्यक्षता कर रहे हैं, आपको सबसे अंत में अपना कलाम पेश करना चाहिए’। खुशमिजाज से शकील ने कहा, ‘मैं एक अध्यक्ष की हैसियत से कहता हूं कि जिगर साहब मेरे बाद अपना कलाम पढ़ें।’ यह सुनकर मुशायरा ठहाकों से गूंज उठा। मंच पर इस तरह का मजाकिया माहौल सुनने वालों को भी पसंद आता था।
शकील की कामयाबी का सबसे बड़ा राज उनकी खुशमिजाजी और स्वभाव की नरमी में था। उनके दोस्त भी जल्दी बन जाते थे। इसीलिए कहा जाता है कि उन्हें दोस्त बनाने का फन आता था। दोस्तों के नामों और पते का पूरा दफ्तर साथ लेकर चलना उनकी आदत थी और किसी भी सफर से पहले वह अपने पहुंचने की इत्तला दोस्तों को कर दिया करते थे। यही वजह थी कि अक्सर अनजान शहरों में भी उनके दोस्त मिल जाया करते थे। कुछ सफर के दौरान स्टेशन पर ही उनसे मुलाकात के लिए आ जाया करते थे। दोस्तों के संग बैडमिंटन, पिकनिक और पतंग उड़ाना उनके शौक में शुमार था।
अक्सर मुहम्मद रफी, नौशाद और जॉनी वाकर उनके खेलों के साथी बनते थे। संगीतकार नौशाद और मुहम्मद रफी के साथ तो उनकी ऐसी जुगलबंदी थी जो फिल्मी परदे पर भी नजर आई। इनके गीत फिल्म हिट होने की गारंटी समझे जाने लगे थे। ऐसे में ज्यादातर फिल्म निर्माता चाहते थे कि इन्हीं तीनों के गीत-संगीत और आवाज उनकी फिल्म का हिस्सा बनें।
उनकी शायरी इश्क और जज्बात को नएपन के साथ पेश करने में कामयाब रही। इसीलिए उन्हें ‘शायर-ए- शबाब’ का खिताब मिला। जिस दौर में शायर समाज के वंचित और शोषित वर्ग पर अपनी कलम चला रहे थे, शकील ने अपनी रूमानी शायरी से लोगों के दिलों पर असर छोड़ा। हालांकि कुछ शायरों ने उनके कुछ इस खिताब पर ऐतराज भी जताया। इन ऐतराजों को जिगर मुरादाबादी ने कुछ इस तरह खारिज किया है, ‘मुझे इस बात से इनकार नहीं कि उनके कलाम में जबान की कमजोरियां पाई जाती हैं। बहरहाल, शकील इंसान हैं फरिश्ता नहीं।’ खुद शकील ने भी विरोधियों को इस अंदाज में जवाब दिया, ‘नाम, वफा को फूलने फलने भी दीजिए, परवाना जल रहा है तो जलने भी दीजिए।’
व ह तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार से भी नवाजे गए। ‘चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो’, ‘सुहानी रात ढल चुकी’, ‘मन तड़पत हरि दर्शन को’, जैसे कितने ही गीत-भजन आज भी लोगों को प्रिय हैं। मल्लिका- ए-गजल बेगम अख्तर की प्रसिद्धि में भी शकील बदायूं की एक गजल ‘ ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’ की काफी अहमियत है। रेल के एक सफर के दौरान बेगम अख्तर को यह गजल शकील ने कागज के एक टुकड़े पर लिखकर दी थी। इसे सफर में ही बेगम ने संगीतबद्ध किया और लखनऊ रेडियो स्टेशन पर जब यह गजल गाई तो वह हर खासो-आम को पसंद आई।
मुंबई की भागदौड़ भरी जिंदगी के बावजूद वह मुशायरों में भी शामिल होते रहे। एक खत में उन्होंने लिखा भी था,‘बीमारी से निजात मिली और तबियत बिल्कुल ठीक हुई तो बेशुमार मुशायरों ने आ घेरा।’ एक रूमानी शायर की छवि शकील के गीतों में भले ही नजर आती हो, लेकिन उनकी शायरी की शुरुआत नात, हम्द, कत्आ और नज्मों से हुई। शुरुआती मुशायरों में उन्होंने ‘तसादुम’ और ‘चोर’ जैसी नज्मों से प्रसिद्धि पाई। उन्नीस बरस की उम्र में उनकी शादी सलमा बेगम से हुई। हालात कुछ ऐसे बने कि अलीगढ़ से वह दिल्ली आ गए और कई साल तक आपूर्ति विभाग में कार्यरत रहे। यह वह दौर था जब दिल्ली साहित्यिक सरगर्मियों का केंद्र थी। इन मुशायरों में शकील भी पूरे जोश के साथ हिस्सा लेते रहे।
1947 में हिंदुस्तान बंटवारे के बाद देश में फैले दंगों का असर फिल्म उद्योग पर भी पड़ा। उनको घर पर बैठना पड़ा और आर्थिक हालात खस्ता होने लगे। माहौल शांत हुआ तो शकील फिर गीत लिखने लगे। दर्द, मेला, अनोखी अदा, दुलारी, चांदनी रात, जादू, दास्तान, आन, दीदार, दीवाना, बैजूबावरा, उड़न खटोला, अमर, शबाब, मदर इंडिया आदि का गीत-संगीत काफी प्रसिद्ध हुआ।
शोहरत और कामयाबी से भरे इस दौर के बाद अपने आखिरी वक्त में उनको एक बार फिर मुश्किलों ने आ घेरा। 1964 में उनको क्षय रोग जैसा गंभीर रोग हो गया और हालात इतने बदतर हो गए। लेकिन, वह गीत लिखकर ही अपना खर्चा चलाते रहे। ‘आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले’ उन्हीं में से एक गीत था। आखिरकार 20 अप्रैल 1970 को उन्होंने आखिरी सांस ले ली। ०

