चंद्रशेखर वेंकट रमण की प्रारंभिक शिक्षा विशाखापत्तनम में हुई। बारह वर्ष की उम्र में ही उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। उनके पिता उन्हें उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजना चाहते थे, पर खराब स्वास्थ्य की वजह से उन्हें भारत में ही अध्ययन करना पड़ा। उन्होंने चेन्नई के प्रेसीडेंसी कालेज से प्रथम श्रेणी में बीए करने के बाद 1907 में मद्रास विश्वविद्यालय से गणित में प्रथम श्रेणी में एमए की डिग्री हासिल की।

सन 1906 में ही उनका प्रकाश विवर्तन पर पहला शोध पत्र लंदन की फिलसोफिकल पत्रिका में प्रकाशित हो गया था। उसमें उन्होंने बताया था कि जब प्रकाश की किरणें किसी छिद्र या किसी अपारदर्शी वस्तु के किनारे पर से गुजरती और किसी पर्दे पर पड़ती हैं, तो किरणों के किनारे पर मंद-तीव्र या रंगीन प्रकाश की पट्टियां दिखाई देती हैं। यह घटना ‘विवर्तन’ कहलाती है। इससे पता चलता है कि प्रकाश तरगों में निर्मित है।

वे भारत सरकार के वित्त विभाग की प्रतियोगिता में बैठे और जून, 1907 में असिस्टेंट एकाउटेंट जनरल बन कर कलकत्ते चले गए। वे एक दिन कार्यालय से लौट रहे थे कि एक साइन बोर्ड देखा, जिस पर लिखा था ‘वैज्ञानिक अध्ययन के लिए भारतीय परिषद’। वे ट्राम से उतरे और परिषद के कार्यालय में पहुंच गए।

वहां अपना परिचय दिया और परिषद की प्रयोगशाला में प्रयोग करने की आज्ञा पा ली। इस तरह वे वहां प्रयोग करते रहे। इस अवधि में उन्होंने ध्वनि के कंपन और कार्यों के सिद्धांत पर अनुसंधान किया। उन्हें वाद्य यंत्रों की भौतिकी का ज्ञान इतना गहरा था कि सन 1927 में जर्मनी में प्रकाशित बीस खंडों वाले भौतिकी विश्वकोश के आठवें खंड के लिए वाद्ययंत्रों की भौतिकी पर लेख उन्हीं से तैयार करवाया गया। उस भौतिकी कोश में वही ऐसे लेखक हैं, जो जर्मन नहीं हैं।

कलकत्ता विश्वविद्यालय में जब 1917 में भौतिकी के प्राध्यापक का पद बना तो वहां के कुलपति आशुतोष मुखर्जी ने उस पद पर रमण को आमंत्रित किया। कलकत्ता विश्वविद्यालय में उन्होंने कुछ वर्षों तक वस्तुओं में प्रकाश के चलने का अध्ययन किया। इनमें किरणों का समूह बिल्कुल सीधा नहीं चलता है। उसका कुछ भाग अपनी राह बदल कर बिखर जाता है। फिर उन्होंने पार्थिव वस्तुओं में प्रकाश के बिखरने का नियमित अध्ययन शुरू कर दिया। करीब सात साल बाद वे उस खोज पर पहुंचे, जो ‘रमण प्रभाव’ के नाम से विख्यात है।

उन्होंने पारा यानी पारद आर्क के मध्य विभिन्न प्रकार के रासायनिक पदार्थ रखे तथा पारद आर्क के प्रकाश को उनमें से गुजार कर स्पेक्ट्रम बनाए। उन्होंने देखा कि हर स्पेक्ट्रम में अंतर पड़ता है। हर पदार्थ अपनी-अपनी प्रकार का अंतर डालता है। तब श्रेष्ठ स्पेक्ट्रम चित्र तैयार किए गए, उन्हें मापकर उनकी सैद्धांतिक व्याख्या की गई। प्रमाणित किया गया कि यह अंतर पारद प्रकाश की तरंग लंबाइयों में परिवर्तित होने के कारण पड़ता है। रमण प्रभाव का उद्घाटन हो गया। इस खोज की घोषणा उन्होंने 29 फरवरी 1928 को की।

रमण प्रभाव के लिए उन्हें 1930 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1948 में उन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद रमण शोध संस्थान की बंगलुरु में स्थापना की और इसी संस्थान में शोधरत रहे। 1954 में उन्हें ‘भारत रत्न’ की उपाधि से विभूषित किया गया। 28 फरवरी को रमण प्रभाव की खोज की याद में भारत में हर साल ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’के रूप में मनाया जाता है।