सलिल चौधुरी पूरब और पश्चिम के संगीत मिश्रण से एक ऐसा संगीत तैयार करते थे, जो परंपरागत संगीत से काफी अलग होता था। सलिल चौधुरी का अधिकतर बचपन असम में बीता था। बचपन के दिनों से ही उनका रुझान संगीत की ओर था और वे संगीतकार बनना चाहते थे। हालांकि उन्होंने किसी उस्ताद से संगीत की पारंपरिक शिक्षा नहीं ली थी।

उनके बड़े भाई एक आर्केस्ट्रा में काम करते थे। उनके साथ के कारण सलिल चौधुरी हर तरह के वाद्य यंत्रों से भली-भांति परिचत हो गए थे। कुछ समय बाद वे पढ़ाई के लिए बंगाल आ गए। उन्होंने अपनी स्नातक की शिक्षा कोलकाता के मशहूर बंगवासी कालेज से पूरी की थी।

इस बीच वे ‘भारतीय जन नाट्य संघ’से जुड़ गए। 1940 में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था। देश को स्वतंत्र कराने के लिए छिड़ी मुहिम में सलिल चौधुरी भी शामिल हो गए और इसके लिए उन्होंने अपने गीतों का सहारा लिया। अपने संगीतबद्ध गीतों के माध्यम से वे देशवासियों में जागृति पैदा किया करते थे। इन गीतों को सलिल ने गुलामी के खिलाफ आवाज बुलंद करने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया।

पचास के दशक में सलिल चौधुरी कोलकाता में बतौर संगीतकार और गीतकार अपनी खास पहचान बनाने में सफल हो गए थे। सन 1950 में अपने सपनों को नया रूप देने के लिए वे मुंबई आ गए। इसी समय विमल राय अपनी फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ के लिए संगीतकार की तलाश कर रहे थे। वे सलिल चौधुरी के संगीत बनाने के अंदाज से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने उनसे अपनी ‘दो बीघा जमीन’ में संगीत देने की पेशकश कर दी। इस तरह सलिल चौधुरी ने एक संगीतकार के रूप में अपना पहला संगीत 1953 में प्रदर्शित ‘दो बीघा जमीन’ के गीत ‘आ री आ निंदिया…’ के लिए दिया। फिल्म की कामयाबी के बाद सलिल चौधुरी ने बतौर संगीतकार बहुत प्रसिद्धि प्राप्त की।

सलिल चौधुरी के फिल्मी सफर में उनकी जोड़ी गीतकार शैलेंद्र के साथ खूब जमी और सराही गई। फिर उनकी जोड़ी गीतकार गुलजार के साथ भी काफी पसंद की गई। सबसे पहले इन दोनों फनकारों का गीत-संगीत 1960 में प्रदर्शित फिल्म ‘काबुली वाला’ में पसंद किया गया। उन्होंने दो बीघा जमीन, नौकरी, परिवार, मधुमती, परख, उसने कहा था, प्रेम पत्र, पूनम की रात, आनंद, मेरे अपने, रजनीगंधा, छोटी बात, मौसम, जीवन ज्योति, अग्नि परीक्षा आदि फिल्मों में संगीत दिया।

1958 में विमल राय की फिल्म ‘मधुमती’ के लिए सलिल चौधुरी को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1988 में संगीत के क्षेत्र मे उनके बहुमूल्य योगदान को देखते हुए उन्हें संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

सत्तर के दशक में सलिल चौधुरी को मुंबई की चकाचौंध कुछ अजीब-सी लगने लगी। वे कोलकाता वापस आ गए। इस बीच उन्होंने कई बांग्ला गाने भी लिखे। इनमें ‘सुरेर झरना’ और ‘तेलेर शीशी’ श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुए। सलिल चौधुरी ने अपने चार दशक लंबे फिल्मी सफर में लगभग पचहत्तर हिंदी फिल्मों में संगीत दिया। इसके अलावा उन्होंने मलयालम, तमिल, तेलुगू, कन्नड, गुजराती, असमिया, उड़िया और मराठी फिल्मों के लिए भी संगीत दिया।