जंक फूड या फास्ट फूड यानी फटाफट भोजन का चलन हाल के बरसों में तेजी से बढ़ा है। महानगरों में इसकी खपत काफी बढ़ी है, लेकिन साथ में इसके नुकसानदेह पहलू भी सुर्खियों में आए हैं। आज स्थिति यह है कि महानगरों में फटाफट भोजन जैसे रोजमर्रा जिंदगी की हिस्सा हो गया है। भारत में फास्ट फूड का कारोबार फिलहाल 8,500 करोड़ का है, जिसमें हर साल पच्चीस फीसद की दर से वृद्धि हो रही है। एसोचैम के मुताबिक 2020 तक यह कारोबार 2500 करोड़ तक पहुंच जाएगा। जंक फूड की श्रेणी में बर्गर, पिज्जा तो आते ही हैं, चिप्स या कैंडी जैसे अल्पाहार भी इसमें गिने जाते हैं। उच्च वर्ग के लिए जंक फूड की सूची काफी लंबी है तो मध्यवर्ग के लिए यह सूची थोड़ी छोटी हो जाती है। जंक फूड का प्रयोग सबसे पहले 1972 में किया गया। इसका मकसद था ज्यादा कैलोरी और कम पोषक तत्वों वाले खाद्य पदार्थों की तरफ लोगों का ध्यान खींचना। समय के साथ लोगों की इसमें रुचि बढ़ी, लेकिन खाद्यान्न उत्पादन करनेवालों पर खास असर नहीं हुआ। जंक फूड के पक्ष में सबसे मजबूत कोई दलील जाती है तो वह है इसका ज्यादा वक्त तक खरान न होना। इसका रखरखाव आसान होता। कम समय में और आसानी से बाजार में उपलब्ध हो जाता है। जानकारों का कहना है कि यह बच्चों का काफी लुभाता है। इसी वजह से कई देशों में इसके विज्ञापनों पर नियंत्रण है और लगातार उसकी निगरानी की जाती है।

असल में फटाफट भोजन छिटपुट चलन में था, लेकिन नब्बे के दशक में हमारे देश में इसने तेजी पकड़ी। भारतीय अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकरण का असर हमारे खाने-पीने की आदतों पर भी पड़ा। अमेरिकी फूड चेन, मैक्डोनाल्ड और डोमीनोज ने 1996 में भारत में पहला फ्रेंजाइजी दिल्ली में खोला और भारतियों ने बहुत जल्दी इसे अपना भी लिया। 1990 के बाद लोगों की जीवनशैली में कुछ बदलाव आया। या यों कहें कि जीवनशैली बहुत तेजी से बदली। गांवों या छोटे शहरों के जो लोग महानगरों में नौकरी करने आए, वे ज्यादातर अकेले रहते थे। शहरों में भी संयुक्त परिवार टूटकर एकल परिवार में बदले। असल में ऐसी संस्कृति यूरोप और अमेरिका में काफी पहले से थी। भारत में भी समाज का बनावट कुछ-कुछ पश्चिमी शैली पर विकसित होने लगी, खासकर महानगरों में। हमारे यहां संयुक्त परिवार ज्यादा प्रभावी था। मतलब आजकल की जीवनशैली से बिल्कुल अलग। संयुक्त परिवारों का टूटना कुछ मामलों में अच्छा भी रहा, लेकिन यह भी सही कि यह कई तरह की मुसीबतें भी लेकर आया। सब लोग एक साथ मिलकर खाना खाते थे। फास्ट फूड तब भी था, लेकिन पिजा और बर्गर से अलग। दही-भल्ला, चाट, पकौड़ी आदि लोग घर में ही बना-खा लेते थे। एकल जीवनशैली में रसोई संभालना कठिन हुआ है। ज्यादातर लोग बाजार के खाने पर निर्भर हो गए हैं। घरेलू फटाफट खाने तीज त्योहारों की रौनक हुआ करते थे।

अब छाछ और लस्सी की जगह लोग ठंडा पेय पसंद कर रहे हैं। शादी हो या पार्टी -सभी जगह नूडल्स और चाऊमीन उपलब्ध होते हैं। पहले बाजार में भी खाने-पीने की दुकानें चौबीसों घंटे नहीं खुलती थीं। लेकिन आज स्थिति यह है कि अब समय की कोई पाबंदी नहीं होती। खुद बनाने में समय बर्बाद होता है। बाजार जाना, सब्जी लाना, बनाना यह सब बहुत अधिक समय लेता है, इसलिए लोग इससे बचना चाहते हैं। या दूसरी तरह से देखें तो महानगरों में पढ़े-लिखे लोग नौकरी करते हैं और ज्यादातर अकेले या समूह में रहते हैं। उनके लिए खुद खाना बनाना और खाना आसान नहीं है।

उन्हें खाना जल्दी चाहिए। बिना समय व्यर्थ किए हुए क्योंकि काम अधिक है। समय की कमी है। ऐसे में फास्ट फूड ही उन्हें सही लगता है, भले ही स्वास्थ्य से समझौता क्यों न हो? कुछ कंपनियां यह प्रचार करती हैं कि उनके खाद्य में तेल-मसालों का ज्यादा उपयोग नहीं होता। इस कारण भी लोग उनके खानों की तरफ आकर्षित होते हैं।

भारत में उदारीकरण के साथ कई विदेशी कंपनियां फास्ट फूड के क्षेत्र में अपना पैर जमा चुकी हैं। 1977 में कोकाकोला ने पैर जमाने की कोशिश की थी, तब इसे बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। 1996 में इसने दोबारा दस्तक दे दी। और अब उसके कदम जम चुके हैं। अब तो नैसले, मैगी नूडल, मैक्डोनाल्ड, केएफसी, हल्दीराम, पेप्सीको, पोटेटो चिप्स जैसी तमाम कंपनियां हैं। रात-दिन उनके स्टॉल से कभी भी खाना प्राप्त किया जा सकता है। एक तरफ फास्ट फूड की खपत बढ़ी तो दूसरी तरफ इससे होने वाली बीमारियां भी बढ़ी हैं। बहुत ज्यादा मोटापा, हृदय रोग, गुर्दे के रोग आदि में बढोतरी हुई है। कई शोधों और अध्ययनों में पाया कि फास्ट-फूड की वजह से
बच्चों से लेकर युवाओं में बीमारियां बढ़ रही हैं, क्योंकि इन खानों में नमक की मात्रा ज्यादा और वसा ज्यादा होता है, जो हमारे ऊतकों और कोशिकाओं का नष्ट कर देते हैं।

फास्ट फूड मोटापा बढ़ता है, यह बात कई शोधों से सामने आ चुकी है। लेकिन, इसके खाने से दिमाग भी सुस्त हो जाता है, यह बात भी सामने आई है। लंदन स्थित आरगन हेल्थ एंड साइंस यूनिवर्सिटी के एक शोध-दल की जांच में यह तथ्य उभर कर आया कि जंक फूड या फास्ट फूड खाने से दिमाग में कुछ ऐसे रसायन पहुंच जाते हैं, जो गड़बड़ी पैदा करते हैं। इसके खाने से व्यक्ति यह बता पाने में कम सक्षम हो जाता है कि उसने क्या खाया और वह खाता ही चला जाता है। शोध-दल के चिकित्सक डॉ जीन बाउमैन का अनुसार जंक फूड और ट्रांस फैट दिल और दिमाग दोनों के लिए नुकसानदेह होते हैं। ट्रांस फैट उसे कहते हैं जो असंतृप्त होता है। यानी ऐसा वसा जिसे शरीर आमतौर पर नहीं पचा पाता। न्यूयार्क और स्विटरलैंड के तमाम रेस्टोरेंटों में ऐसे भोजन नहीं परोसे जाते, जिनमें ट्रांस फैट का मात्रा ज्यादा होती है।

साथ ही यह भी पाया गया कि जंक फूड में पोषक तत्वों की कमी होती है। इसे दैनिक भोजन में शामिल नहीं करना चाहिए। इसमें मौजूद शुगर और दूसरी चीजें मोटापा बढ़ाती हैं। चाकलेट, बिस्कुट, केक वगैरह में भी शुगर की मात्रा ज्यादा होती है। शरीर जब शुगर को पचा नहीं पाता तो वह वसा में बदल जाता है। इससे मोटापा बढ़ता है। कुछ खानों में कृत्रिम गंध मिलाया जाता है, जो कि नुकसानदेह होता है। जांच में पाया गया कि चिप्स, कुकीज आदि में नमक की मात्रा ज्यादा होती है, जो रक्तचाप बढ़ा देती है। जांच अध्ययनों में पाया गया कि बर्गर में 150-200, पिज्जा में 300, शीतल पेय में 200 और पेस्ट्री, केक में करीब 120 कैलौरी होती है, जो मोटापे के लिए जिम्मेदार होती है। यह भी पाया गया कि जंक फूड के सेवन से महिलाओं में हारमोन की कमी हो जाती है।

फटाफट भोजन का चलन कुछ मायनों दिखावे की संस्कृति और स्टेटस सिंबल से भी जुड़ता जा रहा है। कुछ लोग फास्ट फूड खाने को अपनी शान भी मानते हैं और बातचीत में इसकी डींग भी मारते हैं। अगर आप पिज्जा या बर्गर पसंद नहीं करते हैं या आपको शहर में रहते हुए इनके बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है या आप लिट्टी-चोखे या पोहा के दीवाने हैं तो आपको पिछड़ा हुआ माना जाएगा। आजकल के युवा पिछड़ा नहीं कहलाना चाहते। इसलिए इस चमक-धमक का सबसे बड़े शिकार युवा ही हैं। जिनको आकर्षित करने के लिए कंपनियां लगातार कोशिश में लगी रहती हैं।

आज के जमाने में महिलाएं भी बड़ी संख्या में नौकरी कर रही हैं। वक्त की कमी के साथ-साथ ये खाने उनके घरों तक पहुंच गए हैं। आॅनलाइन आर्डर के चलन ने फास्टफूड की मांग में इजाफा किया है। खाना आपके घर पर जल्द हाजिर हो जाता है। देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने तो कब्जा किया ही था लेकिन स्वदेशी के नाम पर कुछ और कंपनियां भी इस क्षेत्र में हाथ-पैर मार रही हैं। कई कंपनियों के फास्ट फूड मानक के हिसाब से सही नहीं पाए गए हैं, फिर भी वे बाजार में डटी हुई हैं। मैगी पर प्रतिबंध के बाद ही एक स्वदेशी कंपनी आटा नूडल लेकर बाजार में आ गई, लेकिन उसे लेकर विवाद हो गया है।

जो लोग फास्ट फूड के पक्ष में हैं, उनका कहना है कि यह खाना आपको अपने बजट के अनुसार और जल्दी मिल जाता है। आप के आदेश देते ही यह आपको उपलब्ध हो जाता है। हालांकि, चिकित्सकों का मानना है कि रक्तचाप, मधुमेह, हड्डियों का खोखलापन, मोटापा आदि की वजह फटाफट खाना है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली कई एजेंसियों ने चेतावनी दी है कि फटाफट खाना खतरे की घंटी है। उनके आंकड़े और रिपोर्ट चौंकानेवाले हैं। फटाफट भोजन से शरीर के लिए जरूरी पोषक तत्त्व यानी खनिज और विटामिन उचित मात्रा में नहीं मिल पाते।
एक तरफ फास्ट फूड के इस्तेमाल के घातक नतीजे आ रहे हैं और दूसरी तरफ हमारी सरकार ने इन कंपनियो के लिए पलक पांवड़े बिछा रखा है। हकीकत यह है कि वहीं कंपनियां अमेरिका और यूरोप में जो सामान बनाती हैं, उनका मानक स्तर बेहतर रहता है, लेकिन भारत या दूसरे गरीब देशों में उनके सामान की गुणवत्ता में कमी आ जाती है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि हमारी सरकार गुणवत्ता बनाए रखने के लिए कोई सख्ती नहीं बरतती। शुद्धता के मानक सभी जगह समान होने चाहिए। युवाओं का देश कहा जाने भारत कहीं कहीं बीमारी की तरफ तो नहीं बढ़ रहा है।

महानगरों में खानपान की आदतों पर एसोचैम और विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि बचपन में मोटापे का एक बड़ा कारण फास्टफूड है। हाल में महानगरों में बच्चों में भी मोटापा बढ़ा है। इसे लेकर एक निराशा का माहौल है। इसके बावजूद वे अपने बच्चों पर इस त्वरित आहार के प्रयोग में नियंत्रण नहीं लगा पा रहे हैं। पास्ता, मैक्रोनी, चाउमीन, नूडल्स, बर्गर, हॉटडॉट, मोमोज हर जगह उपलब्ध हैं। आमतौर पर ऐसे खाद्य पदार्थो में पोषक तत्वों का झूठा प्रचार कर ग्राहकों को लुभाया जा रहा है। इसी तरह वितरक भी अपना लाभ उठाने के लिए इस तरह के प्रचार और प्रसार में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। समय-समय पर यह मांग उठती रही है कि कम से कम स्कूल परिसरों के भीतर या बाहर इस तरह के खाद्य पदार्थों पर रोक लगाई जाए।

हालांकि, पिछले दिनों फटाफट भोजन के खिलाफ आवाज उठाने की मुहिम शुरू हुई है। मेघालय की राजधानी शिलांग में कुछ लोगों ने कार्यक्रम कर के पारंपरिक खाने को बचाने का आंदोलन शुरू किया है। जरूरत है कि इस तरह के आंदोलनों को देश भर में फैलाया जाए। फटाफट संस्कृति को लेकर समाज को जागरूक करने की भी जरूरत है, क्योंकि सरकार भी हर बात के लिए कानून नहीं बना सकती। लोगों को खुद आगे आना होगा। यह सही है कि जमाने की धार को बहुत पीछे ले जाना मुमकिन नहीं होगा, लेकनि यह संकल्प तो लिया ही जा सकता है कि हम जो भी खाएं-पिएं, सोच-समझकर।