स्वीकार अपने आप में सकारात्मक भाव है। पर, नकारात्मकता के स्वीकार से इसकी शक्ति दोगुनी बढ़ जाती है। यह थोड़ी अटपटी और टेढ़ी, विरोधाभासी बात लग सकती है, मगर इसे अपने अनुभव से समझा जा सकता है। क्या कभी महसूस किया है कि जब आपने अपनी किसी भूल, किसी गलती, अपनी किसी कमजोरी, किसी अज्ञान को स्वीकार किया हो, तो भीतर कैसी हलचल पैदा हो जाती है। वह हलचल सकारात्मकता की होती है, एक अद्भुत आनंद की होती है। आपके ऊपर से जैसे कोई भारी बोझ हट गया हो।

बहुत सारी बातें नकारात्मक तभी तक बनी रहती हैं, जब तक हम उन्हें स्वीकार नहीं करते, उल्टा उन्हें सही ठहराने की जिद पर अड़े रहते हैं। यहीं से स्वीकार और अस्वीकार का द्वंद्व शुरू हो जाता है। जिसे अस्वीकार किया जाना चाहिए उसी को स्वीकार करके बैठ जाते हैं। नकारात्मकता उसी क्षण झर जाती है, समाप्त हो जाती है, जब हम उसे स्वीकार कर लेते हैं, मान लेते हैं कि हमने नकारात्मकता का वरण किया हुआ है। इस स्वीकार के साथ ही नकारात्मकता को ठेल कर सकारात्मकता अपनी जगह बनाना शुरू कर देती है।

नकारात्मकता का घेरा

मगर हम नकारात्मकता से इस कदर आवेशित हो जाते हैं कि हम में यह स्वीकार करने का साहस ही नहीं बचा रह पाता कि नकारात्मकता ने हमें घेर लिया है। जब तक हम खुद से यह स्वीकार नहीं करेंगे कि जिस विचार, जिस व्यवहार को हमने धारण कर रखा है, वह वास्तव में नकारात्मक है, तब तक कैसे उसका त्याग कर पाएंगे। सब जानते हैं कि जिससे बहुसंख्य लोगों को तकलीफ होती है, जिससे बहुत सारे लोगों के जीवन में व्यतिक्रम पैदा हो सकता है, यहां तक कि हमारे जीवन में भी उससे अनेक खतरे पैदा हो सकते हैं, वे सारे कार्य और व्यवहार नकारात्मक की कोटि में डाले गए हैं।

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मनुष्य विरोधी कोई भी गतिविधि नकारात्मक है। मगर यह जानते हुए भी लोग भ्रष्ट आचरण करते हैं। गलत तरीके से धन और संपत्ति जुटाने का प्रयास करते हैं, दूसरों का हक छीनने, दूसरों पर आधिपत्य जमाने की कोशिश करते ही हैं। समाज में बहुत सारी विसंगतियां इसीलिए पैदा हुई हैं कि हमने नकारात्मकता को न केवल जानते-बूझते वरण किया है, बल्कि उसे सही और उचित ठहराने की जिद पर अड़े रहते हैं।

मानवीय गतिविधियों के जितने भी स्थल हैं, जीवन में भौतिक कार्य-व्यापार से जुड़ी जितनी जगहें हैं, वहां इस तरह की नकारात्मकता और सकारात्मकता के द्वंद्व सबसे अधिक देखने को मिलते हैं। आज जिस तरह बाजार ने तरक्की के नए पैमाने गढ़ दिए हैं, धन-संपत्ति और ओहदे को जीवन की सर्वोच्च उपलब्धियां माना जाने लगा है, तबसे नकारात्मक वृत्तियों ने जैसे मूल्य के रूप में जगह बनानी शुरू कर दी है। अब दूसरे के कंधे पर बंदूक रख कर चलाने वाला ही श्रेष्ठ शासक माना जाता है।

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इटली का एक राजनीतिक चिंतक हुआ- मेकियावली। उसने ‘द प्रिंस’ नाम से एक किताब लिखी। उसमें उसने शासक के वही तमाम गुण बताए हैं, जिन्हें सदियों से नकारात्मक माना जाता रहा है। इस तरह मेकियावली के सिद्धांतों ने प्लेटो, अरस्तू जैसे विचारकों के आदर्श गुणों वाले राजा की जगह शातिर, धूर्त, क्रूर आदि नकारात्मक गुणों वाले राजा को स्थापित कर दिया। आज ऐसे ही गुणों वाले लोग शासक और शीर्ष पदों पर अधिक देखे जाते हैं।

श्रीमदभगवत गीता में कहा गया है कि ‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:/ स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।’ यानी शीर्ष पदों पर बैठे लोग और शासक जैसा आचरण करते हैं, जैसा व्यवहार करते हैं, वैसा ही नीचे के लोग करना शुरू कर देते हैं। यथा राजा तथा प्रजा वाली कहावत भी तो सब जानते ही हैं। इस तरह अब नकारात्मकता ने सकारात्मकता का बाना धारण कर हमारे जीवन को छलना शुरू कर दिया है।

आगे की होड़

यह एक मूल्य की तरह स्थापित कर दिया गया है कि अगर जीवन में ऊपर उठना है, कुछ पाना है, तो दूसरों को धकियाने में संकोच मत करो। जहां भीड़ ज्यादा हो, वहां दूसरों को धकिया कर ही आगे बढ़ा जा सकता है। फिर यह भी एक सिद्धांत बना दिया गया है कि जो दिखता है, वही बिकता है। यानी अपना महत्त्व खुद जाहिर करते रहो, अपने गुणों के बखान में संकोच कतई मत करो, बल्कि जहां जरूरत पड़े वहां दूसरों के किए का श्रेय भी खुद ले लिया करो।

इससे योग्यता साबित होती है और श्रेष्ठता की ओर बढ़ने के अवसर बनते रहते हैं। महत्त्वाकांक्षा अपने आप में कोई बुरी चीज नहीं होती, मनुष्य का विकास ही महत्त्वाकांक्षा के आधार पर होता है। मगर, केवल महत्त्वाकांक्षा महत्त्वपूर्ण नहीं होती। अंग्रेजी की कहावत है- ‘फर्स्ट डिजर्व देन डिजायर।’ यानी पहले योग्यता अर्जित करो, फिर उसकी आकांक्षा पालो। मगर नए मूल्य महत्त्वाकांक्षा को ही सबसे बड़ा गुण मानने लगे हैं। बहुत सारे ‘मोटिवेटर’ यानी जीवन में कामयाबी हासिल करने के नुस्खे बताने वाले इस बात पर जोर देते हैं कि ऊंचे ख्वाब देखो, तभी ऊंचाई हासिल होगी। ऐसे रसीले, मनमोहक मंत्र कानों में पड़ते-पड़ते हमारे जीवन जीने का ढंग बन जाते हैं।

उचित-अनुचित

मगर मनुष्य के भीतर एक शक्ति है, जो हर समय गलत और सही का निर्णय सुझाती रहती है। जिस तरह डिजिटल ग्राफिक लाल और हरी बत्तियों के साथ सूचनाएं देता रहता है, उसी तरह हमारे भीतर गलत और सही, उचित और अनुचित के संकेत उभरते रहते हैं। मगर हम ध्यान ही नहीं देते। लाल संकेतों को नजरअंदाज करना हमारी आदत में शुमार जो होता गया है। अगर हम उन संकेतकों पर ध्यान देना शुरू कर दें, तो अपनी कमियों, अपने भीतर संचित होती गई नकारात्मक ऊर्जा को आसानी से पहचान सकते हैं। इससे यह स्वीकार का साहस भी हमारे भीतर पैदा होना शुरू हो जाएगा कि हमने कहां क्या गलत, क्या अनुचित किया।