रोहित कुमार
काशी इन दिनों कई वजहों से चर्चा में है। वैसे भारतीय ज्ञान और इतिहास के तमाम ऐसे संदर्भ हैं, जो काशी को हर दौर में चर्चा में बहाल रखते हैं। इतिहास, परंपरा और स्मृति के स्पर्श के साथ ज्ञान-बोध से जुड़े काशी के वृत्तांत खासे दिलचस्प रहे हैं। मिथकों के अनुसार भगवान शंकर की नगरी है यह। हजारों सालों तक धर्म-दर्शन का केंद्र रही है काशी। जिज्ञासुओं और ज्ञान-पिपासुओं को अपनी ओर आकर्षित करने वाली पवित्र धर्मस्थली। शंकराचार्य तक खुद को काशी-यात्रा के प्रलोभन से नहीं रोक पाए थे।
पौराणिकता से निकलकर आधुनिकता तक भारत में संत परंपरा के जितने सिरे अकेले काशी से जुड़ते हैं, उतने शायद ही किसी अन्य स्थान से जुड़ते हों। संत विनोबा को लोग वर्धा में उनके पवनार के आश्रम से जानते हैं। पर उनके जीवन का एक दिलचस्प प्रसंग काशी से जुड़ा है। यह तब की बात है जब वे ब्रह्म की खोज, सत्य की खोज, संन्यास लेने की साध में यहां-वहां भटक रहे थे। घर छोड़ने के बाद उनकी हिमालय की यात्रा जारी थी। बीच में काशी का पड़ाव आया।
काशी के गंगा घाट पर जहां नए विचार पनपे तो वितंडा भी अनगिनत रचे जाते रहे, उसी गंगा तट पर एक बार विनोबा भटक रहे थे। अपने लिए मंजिल की तलाश में, गुरु की तलाश में जो उन्हें आगे का रास्ता दिखा सके। एक दिन भटकते हुए वे काशी में एक स्थान पर पहुंचे जहां कुछ सत्य-साधक शास्त्रार्थ कर रहे थे। विषय था अद्वैत और द्वैत में कौन सही है।
सवाल काफी पुराना था। लगभग बारह सौ वर्ष पहले भी इस पर निर्णायक बहस हो चुकी थी। शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच। उस ऐतिहासिक बहस में द्वैतवादी मंडन मिश्र और उनकी पत्नी को शंकराचार्य ने पराजित किया था। वही विषय फिर उन सत्य-साधकों के बीच आ फंसा था। या यों कहें कि वक्त काटने के लिए दोनों पक्ष अपने-अपने तर्कों के साथ वितंडा रच रहे थे।
इसी दौरान बहस को समापन की ओर ले जाते हुए अचानक घोषणा कर दी गई कि अद्वैतवादी की जीत हुई है। विनोबा इस घोषणा पर थोड़ा चौंके। उन्होंने हल्की हंसी के साथ एतराज जताया- ‘नहीं, अद्वैतवादी ही हारा है।’ विनोबा का यह कहना था कि सब उनकी ओर हैरत के साथ देखने लगे। एक सामान्य सा दिखने वाला युवक दिग्गज विद्वानों के निर्णय को चुनौती दे रहा था। सवाल पूछा गया, ‘यह तुम कैसे कह सकते हो, जबकि द्वैतवादी सबके सामने अपनी पराजय स्वीकार कर चुका है।’
विनोबा ने कहा, ‘नहीं, यह अद्वैतवादी की ही हार है।’ विनोबा अपने निर्णय पर कायम थे। प्रश्न फिर पूछा गया, ‘कैसे?’ विनोबा ने कहा, ‘जब कोई अद्वैतवादी द्वैतवादी से शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर ले, तो समझो कि उसने पहले ही हार मान ली है।’ तर्क की उनकी यही क्षमता आगे अध्यात्म की नई व्याख्या और दृष्टि के रूप में सामने आई।
भारतीय संत परंपरा में विनोबा को आखिरी बड़ी कड़ी के तौर पर देखा-माना जाता है। उनके आध्यात्मिक ज्ञान का लोहा तो खैर सभी मानते हैं। उनका मूल नाम विनायक नरहरि भावे था और उनके जीवन पर दो लोगों के प्रभाव सबसे ज्यादा पड़े। मां से मिले संस्कारों के कारण उनका झुकाव स्वाभाविक तौर पर अध्यात्म की तरफ बढ़ता गया। मां ने उन्हें संत ज्ञानेश्वर और तुकाराम के प्रति बचपन में ही काफी आस्थावान बना दिया था।
तरुणाई की ओर बढ़ते हुए विनोबा न तो संत ज्ञानेश्वर को भूल पाए, न तुकाराम को। ये दोनों उनके आदर्श थे। संत तुकाराम के अभंग तो वे बड़े ही मनोयोग से गाते। उनका अपने आराध्य से लड़ना-झगड़ना, नाराज होकर गाली देना, रूठना-मनाना उन्हें बहुत भाता था। संतों के प्रति उनकी आस्था संत रामदास से लेकर शंकराचार्य तक सघन विस्तार लिए थी। दर्शन उन्हें आगे के दिनों में खींचता चला गया।
दर्शन और संन्यास के सम्मोहन का आलम उनके लिए ऐसा था कि जब से उन्होंने होश संभाला तभी से हिमालय उनके सपनों में आता था। वे अपनी कल्पना में स्वयं को सत्य की खोज में गहन कंदराओं में तप-साधना करते हुए पाते। हिमालय की निर्जन, बर्फ से ढकी दीर्घ-गहन कंदराएं उन्हें परम सत्य की खोज में लीन हो जाने के लिए प्रेरित करती थीं।
विनोबा के बारे में प्रसिद्ध है कि स्कूल की पढ़ाई के बाद जब यह प्रश्न सामने आया कि आगे क्या पढ़ा जाए तो वैज्ञानिक प्रवृत्ति के उनके पिता और अध्यात्म में डूबी रहने वाली मां का वैचारिक द्वंद्व सामने आ गया। पिता का आग्रह था कि बेटा फ्रेंच पढ़े तो मां का कहना था कि ब्राह्मण का बेटा संस्कृत न पढ़े, यह कैसे संभव है! कमाल बेटे का कि उसने मां-पिता दोनों का मन रखा। इंटर में उन्होंने फ्रेंच को चुना और संस्कृत का अध्ययन निजी स्तर पर जारी रखा।
दिलचस्प है कि उन दिनों फ्रेंच ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हो रही क्रांति की भाषा थी। सारा परिवर्तनकामी साहित्य फ्रेंच में ही रचा जा रहा था। फ्रांसीसी साहित्य ने युवा विनोबा का परिचय जहां पश्चिमी देशों में हो रही वैचारिक क्रांति से कराया, वहीं संस्कृत के ज्ञान ने उन्हें वेदों-उपनिषदों में गहराई से पैठने का अवसर दिया। ज्ञान का स्तर बढ़ा, तो उसकी ललक भी बढ़ती गई पर मन से न तो हिमालय का आकर्षण गया, न संन्यास की साध और न वैराग्यबोध ही मिटा।