रूपा
जीवन और मृत्यु को यथार्थ के दो छोर मानने के बावजूद इसके बारे में बात हमेशा साझी समझ के साथ हुई है। समझ की यह परिपक्वता हमारे लोक ज्ञान में परंपरागत तौर पर पर तो शामिल रही ही है, यही हमारे दार्शनिक विवेक का आधार भी रहा है। इस बारे में और आगे जाएं तो कला और साहित्य की दुनिया इसी बुनियाद पर ज्ञान के नए एकांत तक पहुंचने का जोखिम उठाती रही है।
यह जोखिम मनुष्य के तर्क और विवेक की काबिलियत को तो रेखांकित करता ही है, इस दरकार पर भी खरा उतरता है कि विचार हर दौर में नए स्थापत्य की मांग करता है। यह नया स्थापत्य हमें तात्विक ज्ञान के बारे में नए सिरे से परिचित कराता है, उसके लिए एक सामयिक और प्रासंगिक प्रस्तावना सामने रखता है। हर दौर में विचार की ऐसी प्रस्तावना तर्क और दर्शन की नई संभावनाओं को उद्घाटित करती है।
इस लिहाज से बगैर किसी श्रेणीबद्धता के आग्रह के हम दो नामों को सामने रखकर और आगे बात कर सकते हैं। ये नाम हैं- आचार्य रमाचंद्र शुक्ल और ओशो। ये दोनों ज्ञान की स्थापित परंपरा के बीच हस्तक्षेप के समर्थ जोखिम के साथ उतरते हैं और फिर देखते-देखते एक नई सैद्धांतिकी का ढांचा खड़ा कर देते हैं। मसलन, आचार्य जब कहते हैं कि वैर, क्रोध का अचार या मुरब्बा है।
ऐसा कहते हुए वे मनोवैज्ञानिक जटिलता के बीच सूत्र स्थापना का जोखिम उठाते हैं। तारीफ यह कि उनका यह जोखिम तार्किक तौर पर कारगर साबित भी होता है। यही वजह है कि आचार्य का यह कथन बार-बार दोहराया जाता है। यह वाक्य एक सूक्ति की तरह प्रसिद्ध हो गया है। कमाल यह कि विचार से आगे भाषा और कला की दृष्टि से भी कहने की यह शैली लोगों को भाती है। इस शैली में विचार और दर्शन को लेकर कोई बात कहनी हो तो कह सकते हैं कि दर्शन तार्किक विचारों का अचार या मुरब्बा है। अचार या मुरब्बा शब्द हल्का लगे तो कह सकते हैं कि परिपाक है।
ओशो के बारे में अहम है कि वे बात उतनी नई नहीं कहते पर उनकी व्याख्या निहायत नई होती है। जीवन-मृत्यु, प्रेम और आनंद को लेकर उन्होंने खूब बातें की हैं। वैसे इन सब मुद्दों पर बात करते हुए उन्होंने जो संदर्भ और उदाहरण जुटाए हैं, वे तकरीबन वही हैं जिनके बारे में विभिन्न स्रोतों से हम पहले से अवगत रहे हैं। पर इस अवगत को ओशो अपनी व्याख्या के अंतर्गत पूरी तरह बदल देते हैं, उन्हें नई रोशनी में देखने का पुरजोर आग्रह रखते हैं।
ऐसा करते हुए वे तर्क और दर्शन के छोरों को अपनी सुविधा के लिहाज से छोड़ते-पकड़ते हैं।
यह भी कि वे अपनी बात को इस तरह एक बड़े दायरे में समेटते हैं कि सुनने-पढ़ने वाले के सामने पूर्ण सहमति से कम की गुंजाइश बचती ही नहीं है। मसलन, जब वे मृत्यु के बारे में बात करते हैं तो उससे पहले जीवन को लेकर समझ की बात उठाते हैं और कहते हैं कि चूंकि जीवन को ही ठीक से नहीं समझा गया, इसलिए मृत्यु को लेकर भी तमाम तरह की तार्किक-वैचारिक भ्रांतियां हैं।
वे कहते हैं कि हमें जीवन का ही पता नहीं, इसलिए मृत्यु घटित होती प्रतीत होती है। जो जीवन को जानते हैं, उनके लिए मृत्यु एक असंभव शब्द है, जो न कभी घटा, न घटता है, न घट सकता है। कमाल देखिए कि अध्यात्म और दर्शन की पूरी दुनिया जहां एक तरफ जीवन को सांसारिकता के साथ युग्म रूप में देखने का आग्रह रखती है, वहीं दूसरी तरफ ओशो जीवन के प्रति भिन्न और आस्था से भरे दृष्टिकोण के साथ तार्किक तरीके से अपनी बात कहते हैं।
ओशो कहते हैं कि दुनिया में प्रचलित कुछ शब्दों के साथ जुड़ी समझ की रूढ़ता इतनी प्रबल है कि उससे अलग या उसके विपरीत कोई बात सोची ही नहीं जा सकती है। ऐसा कहते हुए वे जीवन और मृत्यु दोनों के बारे में प्रचलित अवधारणा को चुनौती देते हैं। वे मृत्यु को शब्द और अर्थ दोनों स्तरों पर असत्य करार देते हैं।
वे कहते हैं कि मृत्यु जैसी घटना कहीं भी नहीं घटती। लेकिन हम लोगों को तो रोज मरते देखते हैं, चारों तरफ रोज मृत्यु घटती हुई मालूम होती है। और ठीक से हम समझें तो ज्ञात होगा कि जहां-जहां हम खड़े हैं, वहां-वहां न मालूम कितने मनुष्यों की अर्थी जल चुकी है। जहां हम निवास बनाए हुए हैं, उस भूमि के सभी स्थल मरघट रह चुके हैं। दरअसल, जीवन को लेकर कोई भी सोच अगर भय या पूर्वग्रह से भरी है तो हम समझ की एक ऐसी कातर दुनिया रच लेंगे, जहां सिर्फ निराशा होगी। ओशो को यह कातरता न तो बुद्धि के स्तर पर मंजूर है और न हृदय के स्तर पर। वे इसकी खुली मुखालफत करते हैं।
अपने इस विरोध को तार्किक के साथ दार्शनिक जामा पहनाते हुए वे कहते हैं कि हम जीवित हैं, लेकिन हमें पता नहीं कि जीवन क्या है। इस अज्ञान के कारण ही हमें ज्ञात होता है कि मृत्यु भी घटती है। मृत्यु एक अज्ञान है। जीवन का अज्ञान ही मृत्यु की घटना बन जाती है।