आचरण और विचार का आधार एक होना चाहिए। इनके बीच का विरोधाभास सिवाय धोखे के और कुछ नहीं है। यही कारण है कि न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया भर में ऐसे लोगों के प्रति सम्मान ज्यादा रहा है, जो अपने विचार और आचरण की समानता को सार्वजनिक तौर पर पारदर्शी तरीके से जाहिर कर पाए, स्थापित कर पाए। इस संदर्भ में जिस व्यक्ति की चर्चा मौजूदा दौर में सर्वाधिक प्रासंगिक दरकारों के साथ होती है, वे हैं महात्मा गांधी।
महात्मा की कही-लिखी ज्यादातर बातों के साक्ष्य उनके जीवन में मिल जाते हैं।

एक ऐसे समय में जब निजता और सार्वजनिकता के बीच अंतर के तकाजे को काफी प्रबुद्धता के साथ रखा जाता है, उनका जीवन और विचार इस दरकार में छिपी मानवीय कमजोरियों को रेखांकित करता है। उनके जीवन के न जाने कितने प्रसंग हैं, जो हमें यह सोचने के लिए बाध्य करते हैं कि अगर हमारी संवेदनशीलता महज दिखाऊ नहीं है तो वह हमारे आचरण से जाहिर भी होनी चाहिए।

इस बारे में एक प्रसंग खासा दिलचस्प है। एक बार महात्मा गांधी कहीं यात्रा पर निकले थे। यात्रा में जो लोग उनके साथ थे उनमें उनके अनुयायी आनंद स्वामी भी थे। यात्रा के दौरान आनंद स्वामी की किसी बात को लेकर एक व्यक्ति के साथ तीखी बहस हो गई। जब बहस ज्यादा बढ़ी तो आनंद स्वामी ने गुस्से में उस व्यक्ति को एक थप्पड़ रसीद कर दिया।

जब महात्मा को इस बात का पता चला तो उन्हें बहुत बुरा लगा। उन्होंने इस सिलसिले में स्वामी को बुलाकर बात की। उन्होंने स्वामी को सख्ती के साथ कहा कि वे उस सज्जन से जाकर शीघ्र क्षमा मांगें। क्षमा की बात करते हुए महात्मा ने आनंद स्वामी से सवालिया लहजे में कहा कि अगर यह आम आदमी आपकी बराबरी का होता तो क्या आप तब भी उसे थप्पड़ मारते। महात्मा की बात सुनकर आनंद स्वामी को अपनी गलती का अहसास हुआ। उन्होंने उस व्यक्ति से अपने किए के लिए क्षमा मांगी।