रूपा

यह बहुत पुरानी समस्या है। हर किसी के साथ है। हर कोई परेशान है कि उसके मन की चंचलता थमती नहीं, काबू में नहीं आती, सम पर नहीं चलती। सामान्य मनुष्य तो सामान्य, साधु-संत भी इससे परेशान हैं, परेशान रहे हैं। संतों-योगियों ने इससे पार पाने की अनेक युक्तियां निकालीं।

अनेक साधना पद्धतियां विकसित की, मगर कोई आसान फार्मूला, कोई सहज विधि नहीं कि उसे अपना कर मन को काबू में किया जा सके। आधुनिक चिकित्सा पद्धति ने मन को समझने के लिए सूक्ष्म से सूक्ष्म अध्ययन किए हैं, मगर वह भी कोई ऐसी टिकिया, कोई ऐसा टीका नहीं बना सका, जिससे मन की चंचलता को रोका जा सके। मन दिन पर दिन जटिल होता गया है, इसकी गुत्थियां कठोर होती गई हैं। इसलिए मन आदमी के शरीर में तरह-तरह की, दिन-ब-दिन नई रुग्णताएं पैदा कर रहा है।

दरअसल, मन की चंचलता को लेकर जितने अध्ययन हो रहे हैं, उसे रोकने के जितने उपाय तलाशे जा रहे हैं, उतने शायद किसी समय में नहीं तलाशे गए। विचित्र है कि चिकित्सा विज्ञान दिन पर दिन तरक्की कर रहा है, जटिल से जटिल बीमारियों का निदान तलाश रहा है, पर मन की चंचलता बढ़ती जा रही है।

मन की चंलता बढ़ रही है, तो समाज में विकृतियां भी बढ़ रही हैं। रुग्ण मन समाज में अपराध की दर बढ़ा रहा है। जघन्य से जघन्यतम अपराध घटित हो रहे हैं। मनुष्य की मनुष्य से दूरी बढ़ रही है। मनुष्य से मनुष्य की दुश्मनी बढ़ रही है।

एक-दूसरे पर शक और एक-दूसरे से भय बढ़ रहा है। ज्ञान-विज्ञान के सूक्ष्मातिसूक्ष्म क्षेत्र विकसित हो रहे हैं। मनुष्य बारीक से बारीक चीजों को जानने-समझने के यंत्र विकसित कर चुका है, पर मन का संकुचन बढ़ रहा है। इस संकुच से विकृतियां बढ़ रही हैं। हर तरह की विकृति बढ़ रही है।

नई-नई विकृतियां पैदा हो रही हैं। इसलिए मन की शांति के लिए लोगों में बेचैनी भी बढ़ रही है। तमाम चिकित्सा पद्धतियों में इसके उपचार उपलब्ध कराए जा रहे हैं, पर अपेक्षित नतीजे नहीं निकल पा रहे। दरअसल, मन हमारे शरीर की गति से अलग कोई चीज नहीं है, जिसे अकेले पकड़ कर ठीक कर दिया जाए।

वह कोई तन्हा अंग नहीं, जिसे बांध कर रख लिया जाए। मन तो हमारे शरीर की गतियों से ही संचालित होता है। शरीर को भोजन चाहिए, मन संकेत देना शुरू कर देगा कि भोजन कहां मिलेगा। जेब में पर्याप्त पैसे हैं, तो मन तरह-तरह के भोजन का विकल्प भी सुझाना शुरू कर देगा। शरीर को आराम चाहिए तो वह आराम की प्रकृति का विश्लेषण कर विकल्प सुझना शुरू कर देगा। फिर हमारे दिमाग में जितने तरह की सूचनाएं जमा होती हैं, उन सूचनाओं को पकड़ कर मन विकल्प सुझाना शुरू कर देता है।

जैसे हमारे मन में भोजन संबंधी जितनी सूचनाएं दर्ज होंगी, उनमें से बेहतर से बेहतर विकल्प सुझाना शुरू कर देता है। जैसे, जिस भोजन के बारे में हमारे दिमाग में सूचना ही नहीं है, जिसे हमने देखा-सुना ही नहीं कभी, उसके बारे में सूचना देगा ही नहीं। जैसे जितने तरह के स्वाद की सूचनाएं दर्ज हैं, उनमें से विकल्प सुझाएगा। इसी तरह आराम के विकल्प सुझाएगा। मनोरंजन के विकल्प सुझाएगा। पैसे कमाने के तरीके सुझाएगा।

दरअसल, हमारे मन की जटिलता सूचनाओं के जंजाल की वजह से ज्यादा बढ़ रही है। इतने तरह की सूचनाएं हमारे आसपास बरस रही हैं कि मन उन्हें पकड़ कर भागता फिरता है। मन की गति तो सदा से एक ही रही है, मगर सूचनाओं ने उसे लगातार बढ़ाया है। सूचनाएं बाजार का औजार हैं, बाजार विस्तार चाहता है, इसलिए सूचनाओं का निर्माण करता रहता है।

वे सूचनाएं हमारे मन को विचलित करती रहती हैं। मन को जितना ढीला छोड़ेंगे, उतना वह सूचनाओं को पकड़ कर आपको उद्वेलित करता रहेगा, आपको भगाता रहेगा। मन को लगाम लगती है तर्क से। सूचनाओं को जैसे ही तर्क पर तोलना शुरू करते हैं, किसी भी सूचना के नकारात्मक पक्षों को उजागर करना शुरू कर देते हैं, मन की गति काबू में आने लगती है।

जैसे ही मन सूचनाओं की डोर पकड़ भागना शुरू करता है, अगर हम तर्क करने लगते हैं कि आखिर जिस चीज के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है, उसकी जरूरत क्या है। उसके बिना क्या काम नहीं चल सकता। क्या उसके बिना जीवन में ठहराव आ जाएगा। क्या घर में सजावट के नाम पर जो बाजार से तरह-तरह की अनावश्यक चीजें लाकर भर रहे हैं, उनका हमारे जीवन के सुख से वास्तव में कोई रिश्ता है।

क्या वे चीजें घर में नहीं होंगी, तो हमारी भूख, हमारी नींद, हमारे आराम, हमारी रोजमर्रा पर कोई असर पड़ेगा। जैसे ही आप उन्हें नकारना शुरू करते हैं, जैसे ही उन्हें अनावश्यक करार दे देते हैं, मन की गति थम जाती है। इसीलिए कहा गया कि संतोषम् परम सुखम्, जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान।

जहां संतोष है, मन की चंचलता भी वहां कम हो जाती है। मगर हमें संतोष ही नहीं है। हमें तो दुनिया की हर चीज चाहिए, चाहे जिस भी तरह पा लें। अपराध करके पाएं या गलत तरीके से धन इकट्ठा करके पाएं। संतोष कोई चिकित्सा पद्धति हमारे भीतर नहीं भर सकती।

उसे खुद अर्जित करना पड़ता है। अगर केवल तर्क करना शुरू कर दें, कि क्यों कोई चीज चाहिए। जब तक अपरिहार्य न हो, किसी साधन, किसी वस्तु का संग्रह करना छोड़ दें, तो मन की चंचलता कम होनी शुरू हो जाती है।

जैसे ही दूसरों से होड़ करना बंद कर देते हैं कि उनसे बेहतर आपका घर हो, घर की सजावट हो, बच्चों के साज-सरंजाम हों, महंगी से महंगी गाड़ियां हों वगैरह-वगैरह, वैसे ही मन की चंचलता धीमी हो जाती है। इतना करना कोई कठिन काम तो नहीं।