रोहित कुमार
नीति और आस्था से जुड़े प्रतिबद्ध रचनात्मक सरोकार कैसे मूल्य निर्माण की सामाजिक प्रक्रिया का अटूट हिस्सा बन जाते हैं, इसकी कई मिसाल भक्त कवियों के जीवन और काव्य में देखने को मिलती है। यही कारण है कि न सिर्फ हिंदी साहित्य के सफरनामे में बल्कि भारतीय साहित्य के इतिहास में भी भक्तिकाल का महत्व सर्वाधिक है। देश की अलग-अलग भाषा-संस्कृतियों में एक साथ इस दौर के कवियों ने मूल्य और आस्था को रचनात्मक शक्ल दी। इस लिहाज से कई तरह की दीक्षा और समझ के कवि सामने आए। ऐसे कवियों में अष्टछाप के कवियों की चर्चा अक्सर होती है। सूरदास जैसे कवि इसमें शामिल रहे हैं। अष्टछाप के एक और अहम कवि हैं कुंभनदास। वे परमानंददास के समकालीन थे। कुंभनदास के बारे में जानकारी का मूल स्रोत ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ है। उनके कुछ पदों ने बातचीत में मुहावरे जैसी स्वीकृति प्राप्त की है।
कुंभनदास ब्रज में गोवर्धन पर्वत से कुछ दूर जमुनावतौ गांव में रहा करते थे। उनके घर में खेती-बाड़ी होती थी। अपने गांव से पारसोली चंद्रसरोवर होकर वे श्रीनाथ जी के मंदिर में कीर्तन करने के लिए जाया करते थे। उनका जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ था। उनके सात पुत्र थे, जिनमें चतुर्भजदास को छोड़कर अन्य सभी कृषि कार्य में लगे रहते थे। उन्होंने 1492 में महाप्रभु वल्लभाचार्य से दीक्षा ली। इसके बाद वे पूरी तरह से विरक्त रहे। धन और मान-मर्यादा की इच्छा से कोसों दूर जा चुके कुंभनदास ने कई अवसरों पर अपनी विरक्ति को दिलचस्प अंदाज में बयां किया है।
विरक्त मन उदास होता है, ऐसा मानना विरक्ति भाव के प्रति एक बड़ी नासमझी है। दरअसल, विरक्ति की यात्रा सांसारिकता से अलौकिकता की यात्रा है। यह यात्रा उदास मन से नहीं पूरी हो सकती। इस राह का राही तो वही होगा जो इस सफर के लिए पूरे और रमे मन से तैयार हो। वैसे भी यह यात्रा तो एक तरह की अंतर्यात्रा है, जहां पाने और खोने का संकट नहीं, बस अखिल आनंद है। जो कुछ बातें कुंभनदास के बारे में पढ़ी-बताई जाती हैं, उनके मुताबिक गुरु वल्लभाचार्य से दीक्षित होने के बाद जब उन्हें श्रीनाथ जी के मंदिर में भजन-कीर्तन गाने का मौका मिला तो उनकी खुशी का ठिकाना ही नहीं था। वे नित्य नए पद गाकर सुनाने लगे। वे पुष्टिमार्गी थे तो उन्हें कीर्तन की ही सेवा दी गई थी।
कुंभनदास भगवद्कृपा को सर्वोपरि मानते थे। जीवन में बड़े-से-बड़े घरेलू संकट में भी वे अपने आस्था-पथ से कभी विचलित नहीं हुए। श्रीनाथ जी के शृंगार संबंधी पदों की रचना में उनकी खास दिलचस्पी थी। कहते हैं कि एक बार वल्लभाचार्य ने उनके युगल लीला संबंधी पद से प्रसन्न होकर कहा कि तुम्हें तो निकुंज लीला के रस की अनुभूति हो गई है। कुंभनदास महाप्रभु की कृपा से गदगद होकर बोल उठे कि मुझे तो इसी रस की नितांत आवश्यकता है।
बड़े-बड़े राजा-महाराजा आदि कुंभनदास का दर्शन करने में अपना सौभाग्य मानते थे। वृंदावन के बड़े-बड़े रसिक और संत-महात्मा उनके सत्संग की हसरत लिए फिरते थे। उन्होंने भगवद्भक्ति का यश सदा अक्षुण्ण रखा, आर्थिक संकट और दीनता से उसे कभी कलंकित नहीं होने दिया।
कुंभनदास की अटूट विरक्ति को लेकर जिस एक घटना की चर्चा खूब होती है, वह मुगल बादशाह अकबर से जुड़ी है। एक बार बादशाह अकबर के दरबार में एक गायक ने कुंभनदास का पद गाया। बादशाह ने उस पद पर मोहित होकर कुंभनदास को फतेहपुर सीकरी बुलाया। पहले तो कुंभनदास जाना नहीं चाहते थे, पर सैनिक और दूतों का विशेष आग्रह देखकर वे पैदल ही गए। श्रीनाथ जी के सभा के इस अनूठे नगीने को अकबर का ऐश्वर्य दो कौड़ी का लगा।
कुंभनदास की पगड़ी फटी हुई थी, कपड़े मैले थे। फिर भी वे इस आत्मग्लानि में डूब रहे थे कि किस पाप के कारण उन्हें एक बादशाह के दरबार में जाना पड़ रहा है। बादशाह ने उनकी बड़ी आवभगत की, पर कुंभनदास को तो ऐसा लगा कि किसी ने उनको नरक में लाकर खड़ा कर दिया है। वे सोचने लगे कि राजसभा से तो कहीं उत्तम ब्रज है, जिसमें स्वयं श्रीनाथ जी खेलते रहते हैं, अनकों क्रीड़ाएं करते रहते हैं। बादशाह अकबर ने उनसे पद गाने की प्रार्थना की। कुंभनदास तो भगवान श्रीकृष्ण के ऐश्वर्य-माधुर्य के कवि थे, उन्होंने पद गाया- ‘भक्तन को कहा सीकरी सों काम/ आवत जात पन्हैयां टूटी, बिसरि गयो हरिनाम।’ कुंभन के गायन के साथ उनके मन-भाव का बादशाह अकबर पर असर हुआ। उनको उनके साथ किसी तरह की ज्यादती करना मुनासिब हीं लगा और उन्होंने आदरपूर्वक उनको वापस भेज दिया।
ऐसे मौके कुंभनदास के जीवन में कई आए। एक बार महाराजा मानसिंह ब्रज आए थे। उन्होंने श्रीनाथ जी के दर्शन किए। उस समय मृदंग और वीणा के साथ कुंभनदास कीर्तन गा रहे थे। मानसिंह उनकी पद-गान शैली से बहुत प्रभावित हुए। वे उनसे मिलने जमुनावतो गए तो इस भक्त कवि की दीनता देखकर विह्वल हो गए। मान सिंह ने उनकी स्थिति को देखकर कई तरह के प्रस्ताव रखे पर कुंभनदास ने सबको समान भाव के साथ अस्वीकार कर दिया। राजा मानसिंह को भी कहना पड़ा कि आसक्ति तो दुनिया में खूब देखी है पर इस तरह की विरक्ति दुर्लभ है।