चाणक्य की एक श्रेष्ठ नीतिशास्त्री के रूप में काफी प्रतिष्ठा थी। इस कारण उनसे लोग दूर-दूर से मिलने आते रहते थे। एक दिन उनसे एक चीनी दार्शनिक मिलने आया। जब वह चाणक्य के घर पहुंचा तो काफी अंधेरा हो चुका था।

घर में प्रवेश करते समय उसने देखा कि तेल से दीप्यमान एक दीपक के प्रकाश में चाणक्य कुछ लिखने में व्यस्त हैं।

चाणक्य की दृष्टि जब आगंतुक पर पड़ी, तो उन्होंने मुस्कराते हुए उनका स्वागत किया और उन्हें अंदर विराजमान होने को कहा। फिर शीघ्रता से अपना लेखन कार्य समाप्त कर उन्होंने उस दीपक को बुझा दिया, जिसके प्रकाश में वे आगंतुक के आगमन तक कार्य कर रहे थे।

जब दूसरा दीपक जलाकर वे उस चीनी दार्शनिक से बातचीत करने लगे, तो उस दार्शनिक के हैरत की कोई सीमा न रही। उसने सोचा कि अवश्य ही भारत में इस तरह का कोई रिवाज होगा।

उसने जिज्ञासावश चाणक्य से पूछा, ‘मित्र, मेरे आगमन पर आपने एक दीपक बुझा कर ठीक वैसा ही दूसरा दीपक जला दिया। दोनों में मुझे कोई अंतर नहीं दिखता। क्या भारत में आगंतुक के आने पर नया दीपक जलाने का कोई रिवाज है?’

प्रश्न सुनकर चाणक्य थोड़ा मुस्कराए और उत्तर दिया, ‘नहीं बंधु, ऐसी कोई बात नहीं है। जब आपने मेरे घर में प्रवेश किया, उस समय मैं राज्य का कार्य कर रहा था। इसलिए वह दीपक जला रखा था, जो राजकोष के धन से खरीदे हुए तेल से दीप्यमान था। पर अब मैं आपसे वार्तालाप कर रहा हूं।

यह मेरा व्यक्तिगत वार्तालाप है। अत: मैं उस दीपक का उपयोग नहीं कर सकता क्योंकि ऐसा करना राजकोष का दुरुपयोग होगा। बस यही कारण है कि मैंने दूसरा दीपक जला लिया।

स्वदेश प्रेम का अर्थ है- अपने देश की वस्तु की अपनी वस्तु के समान रक्षा करना।’ चाणक्य का देशप्रेम देखकर चीनी दार्शनिक उनके समक्ष नतमस्तक हो गया।