रोहित कुमार
निबंध लेखन और आलोचना, दोनों ही दृष्टि से आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी के सरताज हैं। साहित्य की आलोचनात्मक समझ के साथ मनोभावों और मनोविकारों के बारे में वे जिस गहराई से बात करते हैं, वह अद्वितीय है। कमाल यह कि वे उस दौर में निबंध लिख रहे थे, जब विषय, विचार और विमर्श की दृष्टि से हिंदी साहित्य अपनी समृद्धि के शुरुआती दौर में था। ऐसे में भाषा से लेकर विचार और दृष्टि तक वे हिंदी को ऐसा बहुत कुछ सौंप रहे थे, जो लेखकों-पाठकों का दूर तक मार्गदर्शन करते हैं।

उनका एक प्रसिद्ध निबंध है- क्रोध। इस निबंध की चर्चा मौजूदा समय में इसलिए जरूरी है क्योंकि निराशा और तपाकीपने के कारण परिवार और समाज में कई तरह की स्फीतियां देखने को मिल रही हैं। और यह स्थिति सिर्फ अपने देश में नहीं है बल्कि पूरी दुनिया में है। आमतौर पर इस बारे में बात करते हुए हम प्रेम और सद्भाव जैसे शाश्वत मूल्य और आचरण की बात करते हैं। पर ऐसा करने में सोच-विचार का यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है कि आखिर क्रोध पैदा ही क्यों होता है। इसकी निर्मिति की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया क्या है। इस निबंध के आरंभ में ही आचार्य शुक्ल एक सूत्र देते हैं- ‘क्रोध दुख के चेतन कारण से साक्षात्कार या अनुमन से उत्पन्न होता है।’ अपनी बात को पुष्ट करने के लिए वे एक उदाहरण की मदद लेते हैं। वे कहते हैं- ‘तीन-चार महीने के बच्चे को कोई हाथ उठाकर मार दे, तो उसने हाथ उठाते तो देखा है पर अपनी पीड़ा और उस हाथ उठाने से क्या संबंध है, यह वह नहीं जानता है। अत: वह केवल रोकर अपना दुख मात्र प्रकट कर देता है। दुख के कारण की स्पष्ट धारणा के बिना क्रोध का उदय नहीं होता।’

आमतौर पर क्रोध के बारे में समझी-बताई गई सीख यही है कि इस मनोविकार से दूर रहना ही हितकर है। ऐसा कहते या बताते हुए क्रोध के प्रति एक नकारत्मक भाव मन में पैदा होता है। लगता है कि क्रोध का होना मनुष्य की संवेदना के खिलाफ तो है ही, सहयोग और सद्भाव पर आधारित समाज-रचना की प्रक्रिया को भी कमजोर करने वाला है। इस तरह के रूढ़ व आदर्शवादी कलेवर की सोच से बचते हुए आचार्य शुक्ल इस बारे में गूढ़ तरीके से विचार करते हैं। इस बारे में अपनी राय रखते हुए वे जोखिम की हद तक जाते हैं।

वे कहते हैं, ‘सामाजिक जीवन में क्रोध की जरूरत बराबर पड़ती है। यदि क्रोध न हो तो मनुष्य दूसरों के द्वारा पहुंचाए जानेवाले बहुत से कष्टों की चिर निवृत्ति का उपाय ही न कर सके। कोई मनुष्य किसी दुष्ट के नित्य दो-चार प्रहार सहता है। यदि उसमें क्रोध का विकास नहीं हुआ है तो केवल आह-ऊह करेगा जिसका उस दुष्ट पर कोई प्रभाव नहीं। उस दुष्ट के हृदय में विवेक, दया आदि उत्पन्न करने में बहुत समय लगेगा। संसार किसी को इतना समय ऐसे छोटे-छोटे कामों के लिए नहीं दे सकता। भयभीत होकर प्राणी अपनी रक्षा कभी-कभी कर लेता है; पर समाज में इस प्रकार प्राप्त दुख निवृत्ति चिरस्थायिनी नहीं होती। हमारे कहने का अभिप्राय यह नहीं है कि क्रोध के समय क्रोध करनेवाले के मन में सदा भावी कष्ट से बचने का उद्देश्य रहा करता है। कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि चेतन सृष्टि के भीतर क्रोध का विधन इसीलिए है।’

क्रोध की स्वाभाविकता या उससे जुड़े नैतिक-सामाजिक सरोकारों की चर्चा करने के क्रम में आचार्य शुक्ल उस हानि की चर्चा करना नहीं भूलते जिस कारण क्रोध भाव से बचने की सलाह दी जाती रही है। पर यह बात भी वे सिर्फ नैतिक आधार पर नहीं कहते हैं बल्कि इसके लिए ठोस मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं। उनके शब्द हैं, ‘क्रोध करनेवाला जिस ओर से दुख आता है उसी ओर देखता है; अपनी ओर नहीं। जिसने दुख पहुंचाया उसका नाश हो या उसे दुख पहुंचे, क्रोध का यही लक्ष्य होता है। न तो वह यह देखता है कि मैंने भी कुछ किया है या नहीं, और न इस बात का ध्यान रहता है कि क्रोध के वेग में मैं जो कुछ करूंगा उसका परिणाम क्या होगा। यही क्रोध का अंधापन है। इससे एक तो मनोविकार ही एक दूसरे को परिमित किया करते हैं, ऊपर से बुद्धि या विवेक भी उन पर अंकुश रखता है। यदि क्रोध इतना उग्र हुआ कि मन में दुखदाता की शक्ति के रूप और परिणाम के निश्चय, दया, भय आदि और भावों के संचार तथा अनुचित विचार के लिए जगह ही न रही तो बड़ा अनर्थ खड़ा हो जाता है, जैसे यदि कोई सुने कि उसका शत्रु बीस-पचीस आदमी लेकर उसे मारने आ रहा है और वह चट क्रोध से व्याकुल होकर बिना शत्रु की शक्तिका विचार और अपनी रक्षा का पूरा प्रबंध किए उसे मारने के लिए अकेले दौड़ पड़े, तो उसके मारे जाने में बहुत कम संदेह समझा जाएगा। अत: कारण के यथार्थ निश्चय के उपरांत, उसका उद्देश्य अच्छी तरह समझ लेने पर ही आवश्यक मात्रा और उपयुक्त स्थिति में ही क्रोध वह काम दे सकता है, जिसके लिए उसका विकास होता है।’

साफ है कि आचार्य शुक्ल क्रोध मात्र के निषेध की नैतिक राह नहीं पकड़ते बल्कि वे इस मनोविकार की पूरी प्रकृति को समझते हुए इससे जुड़े गुण-दोष का तार्किक आधार तय करते हैं। इसलिए वे क्रोध से ज्यादा उसकी अतिशयता और वेग से बचने की बात जोर देकर कहते हैं। साफ है कि विवेकहीनता की कोई भी स्थिति अकल्याणकारी है और क्रोध इस स्थिति तक पहुंचाने वाला एक प्रबल मनोवैज्ञानिक कारक है।