रामबहादुर राय
देर से ही सही, रघु ठाकुर ने ठोस तथ्यों और तर्कों से अरुंधति राय की अपमानजनक, जहरीली किताब का तोड़ लिख दिया है। यहां अरुंधति राय का परिचय देने की जरूरत नहीं है। रघु ठाकुर भी किसी परिचय के मोहताज नहीं। पिछले पांच दशक से ज्यादा समय से वे अपनी मेधा से चकित करते रहे हैं। अरुंधति राय ने विभिन्न आंदोलनों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर और विख्यात अंग्रेजी लेखिका के रूप में देश-विदेश में अपना स्थान बनाया है। उनके प्रशंसकों की कोई कमी नहीं है। फिर भी मैंने दो विशेषण उनकी किताब से यहां नत्थी किया है- अपमानजनक और जहरीली। उन्होंने कई उपन्यास और वैचारिक टिप्पणियों वाली किताबें लिखी हैं। पर यहां जिस किताब का उल्लेख किया जा रहा है, उसका नाम है- ‘एक था डॉक्टर एक था संत’।

डॉक्टर यानी डॉक्टर भीमराव आंबेडकर, जिन्हें बहुत आदर पूर्वक बाबासाहब आंबेडकर के नाम से जाना जाता है। उनकी ख्याति दिनोंदिन बढ़ रही है। उनके व्यक्तित्व और उनके विचारों के सकारात्मक पक्ष पर शोध हो रहे हैं। समाज में उनका स्थान निरंतर ऊंचा होता जा रहा है। ऐसे महापुरुष को किसी किताब में क्या इस तरह कहना उचित है कि ‘एक था डॉक्टर’! इसी तरह देश ने जिन्हें उनके जीवनकाल में ही महात्मा कह कर पुकारना शुरू कर दिया था और अशरीरी हो जाने पर राष्ट्रपिता माना, उन्हें किताब के मुखपृष्ठ पर ‘एक था संत’ संबोधन दुखी करने वाला है। लेखिका के भाव से मन प्रफुल्लित नहीं होता। मुदिता का तो प्रश्न ही नहीं उठता। हां, एक उदासी जरूर मन को घेर लेती है। उदास मन स्वयं से प्रश्न करता है कि क्या भाषा का इतना भी संस्कार जिसमें नहीं है, उसकी किताब को पढ़ें या एक तरफ रख दें।

क्या किसी लेखक या लेखिका को भारत के समकालीन दो सपूतों का अपमान करना चाहिए? यहां अरुंधति राय के अधिकार पर मैं प्रश्न नहीं उठा रहा हूं। अभिव्यक्ति की उन्हें स्वतंत्रता है। संविधान ने दी है। वह उन्हें आजीवन मिलनी चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अगर वे दुरुपयोग करना चाहती हैं, तो इसका भी उन्हें अधिकार मिलना चाहिए। पर नैतिक प्रश्न तो पूछा ही जा सकता है। क्या उनकी लेखकीय नैतिकता का यही स्वधर्म है, जो उन्होंने अपनाया है? यह मात्र एक दृष्टिकोण का विषय नहीं है। इसी दृष्टि से रघु ठाकुर की पुस्तक को पढ़ना चाहिए। उनकी पुस्तक है- ‘गांधी-आंबेडकर : कितने दूर कितने पास’। सबसे पहले उनकी पुस्तक के शीर्षक को समझ लें तो उनके तथ्य और तर्क को हृदयंगम करने में सुविधा होगी। रघु ठाकुर ने सही शीर्षक दिया है।

जब ‘गांधी’ कहते हैं तो उससे एक विचार की ध्वनि पैदा होती है। उसी तरह ‘आंबेडकर’ से भी विचार का प्रतीक उभरता है। कोई भी महापुरुष व्यक्ति के रूप में प्रसंगवश याद किया जाता है। लेकिन उसका स्थायी और ऐतिहासिक महत्त्व इसमें ही होता है कि उसने किस विचार को पगडंडी से राजमार्ग बना दिया। रघु ठाकुर की किताब इसी बात को समझाती है। दूसरी तरफ अरुंधति राय ने इन दोनों महापुरुषों को व्यक्ति रूप में दिखाया है। जैसे ही किसी महापुरुष को एक व्यक्ति में बदल कर घटनाओं और प्रसंगों को परिभाषित किया जाता है, वैसे ही वह राग-द्वेष पर चाहे-अनचाहे केंद्रित हो जाता है।

यही प्रभाव अरुंधति की किताब का है। ऐसी किताब की क्या उपयोगिता है? बौद्धिक विमर्श ही किसी किताब को उपयोगी बनाता है। अगर ऐसा वह नहीं कर पाती, तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है? बेशक अरुंधति ही हैं। भाषा, शैली, शब्द और उससे निकलते विचार को उन्होंने द्वंद्वात्मक ढंग से लिखा है। एक साथ कई कहानियां कहते हुए वे पाठक को उलझाती ज्यादा हैं और समझाती कम हैं। उनकी भाषा में आरोप है। आक्षेप भी है। उसी से निंदा और नफरत का भाव भी वे गांधीजी के प्रति जगा रही हैं।

यह भ्रम निरर्थक है कि उनकी किताब बाबा साहब आंबेडकर को महिमामंडित कर सकेगी। यह समझ का फेर है। डॉक्टर आंबेडकर की महिमा प्रकट करने के लिए उन्हें गांधीजी के प्रति आभार जताना चाहिए। संविधान सभा में डॉक्टर आंबेडकर का पुन: प्रवेश गांधीजी के आशीर्वाद से ही संभव हो सका था। उन्होंने भी संविधान के मूल प्रारूप में संशोधन स्वीकार कर पंचायत को नीति निदेशक तत्त्वों में जगह दी और महात्मा गांधी के प्रति बिना ढोल बजाए अपनी विनम्र श्रद्धांजलि दी। रघु ठाकुर की भाषा में तथ्यों पर जोर है। एक सत्य को प्रकट करने का प्रयास है।

उनकी किताब में दो आमुख हैं। पहला आमुख राजमोहन गांधी ने लिखा है। वे देवदास गांधी के बेटे और महात्मा गांधी के पौत्र हैं। यह अगर मैं न बताऊं तो भी ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि राजमोहन गांधी का गांधीपथ पर एक इतिहासकार के रूप में चलने का ऐसा रिकार्ड है, जो किसी भी लेखक के लिए अनुकरणीय है। उन्होंने इसे कहना जरूरी समझा कि ‘महात्मा गांधी के जाति, वर्ण, छुआछूत और पृथक मताधिकार के विचारों की विकृत प्रस्तुति को सही रूप में सामने रखने का प्रयास किया है।’ किसने किया है? रघु ठाकुर ने। विकृत प्रस्तुति किसकी है? अरुंधति राय की। इसे लिख कर यह बात कौन कह रहा है? मोहनदास के लेखक राजमोहन गांधी कह रहे हैं। उनके आमुख की सबसे महत्त्वपूर्ण पंक्ति है- ‘रघु ठाकुर की मोहनदास करमचंद गांधी के बारे में गहरी और पैनी समझ से आश्चर्यचकित हूं।’

रघु ठाकुर की किताब एक सौ छत्तीस पृष्ठों की है। इसमें सात अध्याय हैं। दूसरी तरफ अरुंधति राय की किताब एक सौ चौरासी पृष्ठों की है। अरुंधति राय की किताब में ‘झूठ और बेइमानी के मिथक’ को ध्वस्त करने का दावा है। महात्मा गांधी के बारे में वे समझती हैं कि मिथककारों ने झूठ का पहाड़ बनाया है। उस पर गांधीजी को बैठा दिया है। क्या इससे डॉक्टर आंबेडकर का महिमामंडन होता है? क्या इसे डॉक्टर आंबेडकर स्वयं मानते? ये प्रश्न पूछे जाने चाहिए। रघु ठाकुर की किताब इसका जवाब देती है। वे सक्रिय राजनीति में हैं। कोरोना महामारी में उन्हें समय मिला, जिससे वे अपनी किताब लिख सके। वे उन प्रश्नों को छान कर निकाल सके हैं, जो गांधीजी पर उठाए जाते हैं।

उन्होंने लिखा है कि ‘महात्मा गांधी की आलोचना आमतौर पर आंबेडकरवादी और अन्य लोग जिन तीन-चार मुद्दों को लेकर विशेषत: करते हैं, उनका उत्तर दूंगा-
– गांधीजी वर्ण और जाति मानते थे, इसलिए जातिवादी और दलित विरोधी थे।
– गोलमेज सम्मेलन में गांधीजी ने बाबा साहब का विरोध किया था।
– गांधीजी ने अनशन कर पृथक मताधिकार को लागू नहीं होने दिया इससे दलितों को नुकसान हुआ।
– गांधीजी धर्मशास्त्रों को मानते थे और हिंदू धर्मशास्त्र जाति-व्यवस्था के जनक हैं।

इन मुद्दों पर रघु ठाकुर ने बाबा साहब आंबेडकर के कहे और लिखे को उद्धरण देकर समझाया है कि एक अद्वैत की दृष्टि भी गांधी-आंबेडकर में खोजी जा सकती है। उदाहरण के तौर पर यह अंश- “यह तो इतिहास का तथ्य है कि 1925 के बेलगांव में आयोजित बहिष्कृत परिषद के सम्मेलन में डॉक्टर आंबेडकर ने कहा था, ‘जब कोई भी तुम्हारे निकट नहीं आ रहा है तब महात्मा गांधी की सहानुभूति कोई छोटी बात नहीं है तथा 1927 में महाण में आयोजित सत्याग्रह परिषद के सम्मेलन में मंच पर बाबा साहब की प्रेरणा से ही महात्मा गांधी का चित्र लगाया गया था’।” रघु ठाकुर की किताब इस उम्मीद पर पूरी होती है कि अरुंधति राय फिर से सोचेंगी और अपनी भूल स्वीकार करेंगी।