रोहित कुमार
दर्शन और विचार के क्षेत्र में ऐसा यश कम ही लोगों को प्राप्त है कि उनकी बातें आमलोगों की स्मृतियों में प्रेरक उक्तियों के तौर पर शामिल हो गई हों। यह सफलता तब तो और भी बड़ी हो जाती है जब विचार और दर्शन का दायरा आध्यात्मिक सूक्ष्मता तक पहुंच जाता है। इस लिहाज से आदि शंकर एक आदर्श नाम है। इस नाम के साथ जुड़े सारस्वत कृतित्व ने समय की लंबी यात्रा की है। उन्हें आचार्य की पदवी अपने समय में ही मिल गई थी। उन्होंने अद्वैत वेदांत को ठोस आधार प्रदान किया। गीता, उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी उनकी टीकाएं आज तक अपनी अर्थवत्ता के बूते टिकी हैं। उन्होंने सांख्य दर्शन का प्रधानकारणवाद और मीमांसा दर्शन के ज्ञान-कर्मसमुच्चयवाद का खंडन किया।

इसके अलावा उन्होंने भारतवर्ष में चार कोनों में चार मठों की स्थापना की, जो आज भी काफी प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं। ये चारों स्थान हैं- ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, शृंगेरी पीठ, द्वारिका शारदा पीठ और पुरी गोवर्धन पीठ। इन पीठों के आध्यात्मिक प्रमुखों को शंकराचार्य कहा जाता है, जिनका सनातनी हिंदू परंपरा में अन्यतम सम्मान है। शंकर की एक बड़ी खूबी या कामयाबी यह भी रही है कि धर्म और दर्शन की गूढ़ व्याख्याओं की दुनिया से आगे उनकी गहरी लोक व्याप्ति रही है। वे लंबे समय से लोक विमर्श का हिस्सा हैं। अलग-अलग संदर्भों और आशयों के साथ समय-समय पर उनकी बातें लोग याद करते हैं, दोहराते हैं। मसलन, वे कहते हैं कि मंदिर वही पहुंचता है जो धन्यवाद देने जाता है, कुछ मांगने नहीं। यह भक्त और ईश्वर के संबंध की ऐसी व्याख्या है, जिसमें न तो अवांछित व कोरी भावुकता है और न ही ईश्वरीय आभा या दीप्ति के सामने दीनता जैसी कोई स्थिति। चूंकि शंकर द्वैत को नहीं अद्वैत को मानते हैं, इसलिए उनके लिए भक्ति का मतलब भी रचना और संरचना के बीच का आत्मिक व्यवहार और संवाद है।

ज्ञान मनुष्य का हासिल नहीं है बल्कि उसकी यात्रा है। यह बात अलग-अलग समय में विचारकों और दार्शनिकों ने अपने-अपने तरीके से कही है। यह बात जब शंकर करते हैं तो वे कहते हैं कि मोह से भरा हुआ जीवन एक सपने की तरह है, यह तब तक ही सच लगता है जब तक आप अज्ञान की नींद में सो रहे होते है। जब नींद खुलती है तो इसकी कोई सत्ता नहीं रह जाती है। शंकर जब यह कहते हैं तो जो एक बात ज्यादा गौर करने की है, वह यह कि वे मनुष्य और ज्ञान के बीच कोई विभक्ति नहीं देखते हैं। उनके लिए ज्ञान और मनुष्य अलग-अलग नहीं हैं। यह भी कि ज्ञान के बिना मनुष्य की किसी तरह की अस्मिता की बात नहीं की जा सकती है। यह भी कि ज्ञान और कुछ नहीं बल्कि मोहभंग की आत्मीय प्रतीति है। मोह और भोग के साथ जीवन को देखना, जागरण के उजाले को नींद में गंवा देने जैसा है।

शंकर ने आत्मा की जितनी सुंदर व्याख्या की है, वह अन्यत्र देखने को नहीं मिलती है। वे कहते हैं कि जिस तरह एक प्रज्वलित दीपक के चमकने के लिए दूसरे दीपक की जरूरत नहीं होती है। उसी तरह आत्मा जो खुद ज्ञान स्वरूप है, उसे और किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती है, अपने खुद के ज्ञान के लिए। दरअसल, आत्मा की यह व्याख्या उस सत्ता और सामर्थ्य की व्याख्या है, जो न बाहरी है और न परावलंबी। अंतर्जगत के सामने बहिर्जगत का न तो कोई मोल है और न ही कोई सार्थक दरकार। और भला ऐसा हो भी क्यों नहीं जबकि ज्ञान और आत्मा एक दूसरे के सीधे-सीधे पर्याय हों, एक-दूसरे के पूर्ण द्योतक हों।

सनातनी हिंदू परंपरा में कर्मकांडों के लिए कोई जगह नहीं है। यह समझ कमजोर न पड़े इसके लिए कुछ बातें शंकर ने दो टूक रूप में कही हैं। वे कहते हैं कि तीर्थ करने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है। सबसे अच्छा और बड़ा तीर्थ आपका अपना मन है, जो पहले से शुद्ध है। मन का दोष या भीतरी अशुद्धता और कुछ नहीं बस हमारा भटकाव है, हमारा अज्ञान है। एक तो ऐसी स्थिति होनी ही नहीं चाहिए और अगर हो भी ऐसा तो इससे उबड़ने की तत्परता होनी चाहिए। शंकर कहते भी हैं कि जब मन में सच जानने की जिज्ञासा पैदा हो जाए तो दुनिया की चीजें अर्थहीन लगने लगती हैं।

शरीर और उसकी रचना के संबंध में नौतिक सीख की बात करते हुए पंच ज्ञानेंद्रियों की बात बार-बार कही गई है। शंकर इस बात को थोड़ा और आगे ले जाते हैं और इस सीख में आत्मा को भी शामिल करते हैं। वे समझाने के अंदाज में कहते हैं कि हर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि आत्मा एक राजा के समान है जो शरीर, इंद्रियों, मन, बुद्धि से बिल्कुल अलग है। आत्मा इन सबका साक्षी स्वरूप है। साफ है कि वे आत्मा और ज्ञान की सर्वसत्ता की बात फिर से कह रहे हैं। यहां जो बात समझने की है वह यह कि आत्मा का बोध ज्ञान का बोध है और इस बोध के बाद कहीं कोई दुविधा नहीं रह जाती है, कहीं कोई द्वैत शेष नहीं रह जाता है। मोह-माया की व्याप्ति का आधार ही यह है कि वह हमें ज्ञान से दूर ले जाता है।

ज्ञान और मोह एक साथ नहीं रह सकते। शंकर इस संबंध में आगाह करते हैं कि अज्ञान के कारण आत्मा सीमित लगती है, लेकिन जब अज्ञान का अंधेरा मिट जाता है, तब आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। यह तकरीबन वैसे ही होता है जैसे बादलों के हट जाने पर सूर्य दिखाई देने लगता है। लिहाजा आत्मा को परमात्मा की तरह सार्वभौम देखना मनुष्य की एकमेव सार्थक नियति है।