भारत पर विदेशी संस्कृति और धर्म के प्रभाव की बात खूब की जाती है। पर ऐसी कोई भी बात तथ्य और इतिहास को देखने का इकहरा नजरिया है। आगे हम जिस शख्सियत की बात करने जा रहे हैं, उनके बारे में और बातें जानने से पहले यह समझना जरूरी है कि ज्ञान और दर्शन की सांस्कृतिक यात्रा हर दौर में हमेशा अंधकार से प्रकाश की ओर रही है।
मीरा अल्फासा की जीवन के प्रति समझ और प्राथमिकता से यह बात अच्छे से पुष्ट होती है। उस दौर में जब भारत गुलाम था और भारतीय समाज के दकियानूस होने के कई साक्ष्य सामने रखे जा रहे थे, उसी दौरान भारतीय समाज और संस्कृति पुनर्निर्माण और पुनर्जागरण की प्रक्रिया से भी गुजर रहा था। इस प्रक्रिया से जुड़े नामों का सम्मान और उनका सांस्कृतिक महत्व एक विरासत के तौर पर आज भी बहाल है। ऐसा ही एक नाम है महर्षि अरविंद का। मीरा अल्फासा के बारे में कोई भी बात बगैर इस नाम की चर्चा के पूरी नहीं हो सकती।
एक क्रांतिकारी से साधक बने अरविंद ने सत्य और अध्यात्म की आधुनिक व्याख्या तो प्रस्तुत की ही, उन्होंने जीवन और साधना के साझे को एक बड़े उदाहरण के तौर पर भी दुनिया के सामने रखा। इस उदाहरण के सम्मोहन में मीरा अल्फासा सात समंदर पार से खिंची-खिंची भारत आ गई थीं।
मीरा अल्फासा का जन्म 21 फरवरी,1878 को पेरिस में हुआ और मृत्यु 17 नवंबर 1973 को पांडिचेरी में। उनका जीवन भटकाव से एक प्रकाशित दिशा में निरंतर बढ़ते जाने की सुंदर दास्तान है। मीरा का जन्म तो यहूदी धर्म में हुआ पर बाद में उन्होंने हिंदू धर्म अपना लिया। मीरा के जीवन और ज्ञान के प्रति श्रद्धा रखने वाले उन्हें श्रीमां के नाम से जानते-बुलाते हैं।
भारत में वे महान आध्यात्मिक गुरु और संत बनकर उभरीं और महर्षि अरविंद की गीता और वेद की व्याख्या को आगे प्रसारित किया। बाल्यकाल के अनुभव के बारे में मीरा ने खुद बताया है कि पांच वर्ष की उम्र में वो खुद को दूसरी दुनिया से आई मानती थी। 13 वर्ष तक आते-आते वो अलौकिक विद्या से जुड़े कई अभ्यास को सीखने लगी थीं। 20 वर्ष की उम्र तक आते-आते मीरा जीवन से जुड़े कई रहस्यों को लेकर एक निष्कर्ष जैसी स्थिति तक पहुंचने के करीब आ चुकी थीं। उसी दौरान उनको स्वामी विवेकानंद की लिखी एक पुस्तक मिली। यहां से उनकी दिशा भारत की तरफ जो मुड़ी, वह फिर कभी न बदली।
मीरा की एक दूर की संबंधी शेलोमो अल्फासा उनके बारे में बताती हैं कि 26 वर्ष की उम्र में मीरा एक सपना देखती हैं, जिसमे वो कहती हैं कि उसने एक काले एशियाई पुरुष की आकृति दिखती है। उसे वो कृष्णा कहती हैं। वो कहती हैं कि कृष्ण मेरी अंतर्मन की यात्रा को दिशा देते हैं। कृष्ण के प्रति बढ़ी आसक्ति के बीच मीरा अल्फासा ने कई हिंदू ग्रंथों का विस्तार से अध्ययन किया।
अध्ययन का यह सिलसिला आगे भी बना रहा। वो यहूदी धर्म के बारे में कहती हैं कि इसमें भगवान को मूल रूप से एक न्यायधीश के रूप में वर्णित किया गया है पर हिंदू धर्म में ऐसा नहीं है।
मीरा को महर्षि अरविंद माता कहकर संबोधित करते थे। बाद में यही संबोधन उनके अनुयायियों तक पहुंचा और सब उन्हें श्रीमां कहने लगे। 29 मार्च, 1914 को श्रीमां पांडिचेरी स्थित आश्रम पर महर्षि अरविंद से मिलीं। उन्हें वहां का गुरुकूल जैसा माहौल काफी अच्छा लगा। प्रथम विश्वयुद्ध के समय उन्हें पांडिचेरी छोड़कर जापान जाना पड़ा था। वहां उनकी मुलाकात रवींद्रनाथ ठाकुर से हुई और उन्हें हिंदू धर्म और भारतीय दर्शन-संस्कृति का और सहजता से अहसास हुआ। 24 नवंबर, 1926 में मीरा फिर पांडिचेरी लौट आईं और महर्षि अरविंद की अनन्य शिष्या बन गईं। महर्षि अरविंद के ज्ञान के प्रसार और उनके आश्रम की विश्वप्रसिद्धि में श्रीमां का बहुत बड़ा योगदान है।