भारत के आधुनिक इतिहास में बंगाल का जिक्र और उसकी देन कई मायनों में बड़ी है। ज्ञान, संस्कृति और आधुनिकता का साझा अलख जगाते हुए एक तरफ जहां इस धरती ने नवजागरण की फिजा रंगी, वहीं विज्ञान और साहित्य के क्षेत्र में यहां से कई ऐसी प्रतिभाएं सामने आईं, जिसने स्वाधीनता से पहले ही भारत के लिए दुनिया में भरपूर सम्मान अर्जित किया। बात अकेले विज्ञान की करें तो दुनिया आज जिन वैज्ञानिक संभावनाओं, और जिज्ञासाओं के बीच कुछ चामत्कारिक हासिल करने में जुटी है, उसका एक सिरा देश की सारस्वत धरा से भी जुड़ता है।

दिलचस्प है कि 2008 में एक तरफ जहां दुनिया एक भ्रम के कारण खौफ में थी तो वहीं दूसरी ओर विज्ञान उस महाप्रयोग की शुरूआत करने जा रहा था, जो जीवन के सच की खोज से जुड़ा था। अस्तित्व से जुड़ा यह वैज्ञानिक मंथन लार्जन हाइड्रेन कोलाइडर (एलएचसी) था। भ्रम था कि इस प्रयोग से दुनिया नष्ट हो सकती है। चार साल तक चले इस मंथन में जो निकलकर सामने आया वह देश के लिए गौरव का क्षण था।

वैज्ञानिकों को वह मिल गया था जिसकी तलाश मानव सभ्यता शुरूआत से कर रही थी। गार्ड पार्टिकल यानी ईश्वरीय कण। जब यह मिला तो इसे नाम दिया गया हिग्स बोसोन। यह दो महान वैज्ञानिकों के नाम हैं- पीटर हिग्स और सत्येंद्र नाथ बोस। सुखद है कि साल के पहले दिन की शुरुआत इस महान वैज्ञानिक की प्रेरक स्मृति से होती है।

सत्येंद्रनाथ ने छह दशक पहले अपने शोध पत्रों में उजो विवेचना की, उन्हीं के आधार पर एलएचसी का प्रयोग सफल हो सका था। लिहाजा ईश्वरीय कण को उनका नाम दिया गया। एक जनवरी 1894 को कोलकाता में जन्मे सत्येंद्रनाथ बोस को 1920 के दशक में क्वांटम फिजिक्स में किए गए उनके काम के लिए दुनिया भर में जाना जाता है।

उनके पिता सुरेंद्रनाथ बोस ईस्ट इंडियन रेलवे के अभियांत्रिकी विभाग में काम करते थे। सत्येंद्रनाथ उनके सात बच्चों में सबसे बड़े थे। उनकी शुरुआती पढ़ाई नदिया जिले के बाड़ा जगुलिया गांव में हुई। उन्होंने कोलकाता के प्रेजिडेंसी कालेज से इंटर किया जहां जगदीश चंद्र बोस और प्रफुल्ल चंद्र रे जैसे विद्वानों ने उन्हें पढ़ाया। सत्येंद्रनाथ ने 1915 में अप्लाइड मैथ्स से एमएससी पूरी की। वे एमएससी में में सर्वोच्च आए।

1924 में ढाका यूनिवर्सिटी में भौतिकी विभाग में रीडर के तौर पर उन्होंने क्वांटम स्टेटिक्स पर एक शोध आलेख लिखा और इसे मशहूर वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के पास भेजा। आइंस्टीन इससे खासे प्रभावित हुए और इसका जर्मन में अनुवाद करके उसे एक जर्मन साइंस जर्नल में छपने भेजा।

इसी पहचान के आधार पर सत्येंद्रनाथ को यूरोप की साइंस लैब में काम करने का मौका मिला। इस तरह सत्येंद्रनाथ ने जहां एक तरफ प्रतिभा का लोहा दुनिया में मनवाया, वहीं वे खासतौर पर भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में कई ऐसे उपयोगी प्रस्थान और स्थापनाएं लेकर आए, जो वैज्ञानिक उपलब्धियों की आज भी मजबूत पीठिका है।

भारत सरकार ने सत्येंद्राथ बोस को देश के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से 1954 में सम्मानित किया था। उनकी मृत्यु 1974 में हुई। उनकी विद्वता की चर्चा के अलावा उन्हें इस बात के लिए भी याद किया जाता है कि उन्हें उनके कार्य और उपलब्धियों के अनुरूप सम्मान नहीं मिला। उनके खोजे गए पार्टिकल बोसान पर काम करने के लिए कई वैज्ञानिकों को नोबेल मिला है पर खुद सत्येंद्रनाथ नोबेल पुरस्कार नहीं पा सके। अलबत्ता बड़ी बात यह है कि विज्ञान जगत आज भी उनके कार्यों का लाभ उठा रहा है और वैज्ञानिक जगत उन्हें खासे सम्मान के साथ देखता है।