पन्नालाल घोष आधुनिक बांसुरी के जन्मदाता माने जाते हैं। उन्होंने बांसुरी जैसे लोकवाद्य को शास्त्रीय वाद्ययंत्र के रूप में स्थापित किया। उन्हीं के प्रयास से बांसुरी का आज के फ्यूजन संगीत में भी अहम स्थान है। पन्नालाल घोष ने कई फिल्मों में भी बांसुरी बजाई थी, जिन्हें आज भी अद्वितीय माना जाता है। ‘मुगले आजम’, ‘बसंत बहार’, ‘बसंत’, ‘दुहाई’, ‘अंजान’ और ‘आंदोलन’ जैसी कई प्रसिद्ध फिल्मों में उन्होंने संगीत दिया।
उनका जन्म बांग्लादेश के बारिसाल में हुआ था। उनका असली नाम अमल ज्योति घोष था। उनके दादा हरि कुमार घोष और पिता अक्षय कुमार घोष कुशल संगीतकार थे। उनकी मां सुकुमारी एक प्रसिद्ध गायिका थीं। उनकी प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता अक्षय कुमार घोष की देखरेख में हुई, जो कि सुपरिचित सितार वादक थे। पन्नालाल घोष ने भी अपनी संगीत की शिक्षा सितार वादन से शुरू की थी। बाद में वे बांसुरी की ओर आकर्षित हुए तथा उस्ताद अलाउद्दीन खां से बांसुरी की शिक्षा ग्रहण की। उन्होंने विख्यात हारमोनियम वादक उस्ताद खुशी मोहम्मद खां से भी दो साल तक संगीत का प्रशिक्षण लिया।
अपने करिअर के दौरान पन्नालाल घोष उस समय के दो महापुरुषों गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर और काजी नजरूल इस्लाम के प्रभाव में आए। उस समय उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान देने के अलावा बंगाल के समकालीन संगीत और कविता में पुनर्जागरण का भी नेतृत्व किया।
इन्होंने बांसुरी में परिवर्तन कर उसे लोक से शास्त्रीय संगीत में बजाने के अनुकूल बनाया तथा इसकी लंबाई और आकार (7 छेदों के साथ 32 इंच) पर विशेष ध्यान दिया। पन्नालाल घोष ने कुछ नए रागों की भी रचना की थी, जैसे- चंद्रमौली, दीपावाली, जयंत, कुमारी, नूपुर-ध्वनि, पंचवटी, रत्ना-पुष्पिका, शुक्लापलासी आदि।
इनके प्रमुख शिष्यों में हरिप्रसाद चौरसिया, अमीनुर रहमान, फकीरचंद्र सामंत, सुधांशु चौधरी, पंडित रासबिहारी देसाई, बीजी कर्नाड, चंद्रकांत जोशी, मोहन नादकर्णी, निरंजन हल्दीपुर आदि हैं। न्यू थिएटर्स लिमिटेड के साथ काम करते हुए कलकत्ता में रहते हुए संगीत निर्माण में सहायता करने के बाद 1940 में वे अपने संगीत करिअर को और आगे बढ़ाने के लिए मुंबई आ गए। फिल्म ‘स्नेह बंधन’ (1940) में एक स्वतंत्र संगीतकार के रूप में योगदान किया।
फिल्म के लोकप्रिय गाने ‘आबरू के कामों में’ और ‘स्नेह बंधन में बंधे हुए’ थे, जिन्हें खान मस्तान और बिब्बो ने गाया था। पन्नालाल घोष ने 1952 में उस्ताद अली अकबर खान और पंडित रविशंकर के साथ संयुक्त रूप से फिल्म ‘आंधियां’ के लिए पृष्ठभूमि बनाई। वे सात-छेद वाली बांसुरी की शुरुआत करने वाले पहले व्यक्ति थे। इस नए छेद को तीव्र-मध्यम होल के रूप में जाना जाता है, जो बांसुरी के नीचे, उंगली के छेद की केंद्र-रेखा से दूर रखा जाता है। छोटी उंगली को इस छेद तक पहुंचने में सक्षम बनाने के लिए पकड़ को भी बदल दिया गया था।
दरबारी जैसे रागों के लिए जहां निचले सप्तक (मंद्र सप्तक) का विस्तार से पता लगाया जाता है। पन्नालाल घोष ने सिर्फ चार छेदों के साथ एक और बांस बांसुरी का आविष्कार किया, जो लगभग 40-42 इंच लंबी थी। यह अतिरिक्त छेद भारतीय बांसुरी को लगभग पश्चिमी रिकार्डर की तरह बजाने योग्य बनाता है, जिसमें केवल एक और अतिरिक्त रियर होल होता है, जो माउथपीस की ओर ऊपर रखा जाता है, जो बाएं अंगूठे के पास रहता है। उनके द्वारा तैयार की गई लंबी बांस की बांसुरी को बाद के बांसुरीवादकों द्वारा हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के लिए लोकप्रिय रूप से बजाया जाता है।