भारत में साम्यवाद की राजनीतिक विदाई को लेकर राजनीतिक पंडितों ने एक के बाद एक कई शोक प्रस्ताव पारित किए हैं। राजनीति और विचार की दुनिया में इस शोक की स्वीकृति के बारे में आज ज्यादा बहस की स्थिति बची भी नहीं है। पर वाम को अंतिम प्रणाम से पहले इसके इतिहास से गुजरना जरूरी है। भारत में राजनीतिक विचारधारा के भावनात्मक सर्गों से बाहर निकलकर अगर तार्किक और सैद्धांतिक तौर पर विचार करें तो मानवेंद्रनाथ रॉय की भूमिका और उनके योगदान का तीरीखी महत्व समझ में आता है। रॉय की वैचारिक प्रतिबद्धता को किसी खास झुकाव के साथ समझना मुश्किल है।
वे एक तरफ स्वाधीनता आंदोलन में क्रांतिकारी प्रतिबद्धता के साथ खड़े दिखते हैं तो वहीं दूसरी तरफ रूसी क्रांति के जनक लेनिन तक से उनके संबंध थे। बाद में वे मार्क्सवाद के भी प्रबल आलोचक रहे। समाज और राजनीति की दुनिया को नव-मानवतावाद का सिद्धांत देनेवाले रॉय ने भारतीय के साथ वैश्विक यथार्थ को नए तरीके से समझा और भविष्य के लिए मानवता को स्पष्ट तार्किक दृष्टि दी। भारतीय राजनीति में हर तरह की प्रतिबद्धता को भावना से ज्यादा सैद्धांतिक कसौटी पर खरे होने का दबाव अगर आज भी कहीं नैतिक तौर पर बचा है तो रॉय इस दरकार के सबसे बड़े तारीखी पैरोकार माने जाएंगे।
रॉय का जन्म कोलकाता के निकट एक गांव में हुआ था। उनका मूल नाम नरेंद्रनाथ भट्टाचार्य था, जिसे बाद में बदलकर उन्होंने मानवेंद्रनाथ रॉय कर लिया। वैसे एमएन रॉय के रूप में उन्हें लोग ज्यादा जानते हैं। तरुणाई के दिनों में वे सबसे पहले राष्ट्रवादी विचारों के संपर्क में आए। उन पर स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ और स्वामी दयानंद का बहुत प्रभाव रहा। बाद में यह प्रभाव क्रांतिकारी रूझान में तब्दील होने लगा।
रॉय का स्मरण भारत ही नहीं बल्कि विश्व में साम्यवाद के उभार के शुरुआती दिनों से जुड़ा है। लिहाजा उन्हें भारत का पहला साम्यवादी तो कहा ही गया, विश्व के साम्यवादी संघर्ष की अग्रिम पंक्ति के नेताओं में भी वे शुमार किए गए। 1917 की रूसी क्रांति के बाद रॉय वहीं चले गए। लेनिन से उनकी घनिष्ठता इतनी रही कि वे उनके सर्वाधिक करीब और विश्वस्त माने गए। वैश्विक संपर्क और पहचान के लिहाज से नेहरू और सुभाष से ज्यादा बड़ा नाम है एमएन रॉय का क्योंकि वैश्विक परिदृश्य में वे एक बड़े हस्तक्षेप के तौर पर सबसे पहले उभरते हैं। लेनिन के साथ रॉय के विचारों में कई साम्य के अलावा एक बुनियादी फर्क भी था। लेनिन राष्ट्रवाद के हिमायती थे, तो वहीं रॉय को लगता था कि राष्ट्रवाद महज भावनात्मक उभार से ज्यादा कुछ नहीं है और उसका न कोई राजनैतिक आधार है, न सांस्कृतिक।
1930 में लौटकर रॉय जब भारत आए तो वे एक नई वैचारिक समझ से लैस थे। उन्होंने भारत की स्थिति का गहराई से अध्ययन किया और कुछ समय बाद नव-मानववाद का सिद्धांत दिया। इस सिद्धांत ने पूरी दुनिया में उन्हें बड़ी पहचान दी। उन्होंने विचारों की भौतिकवादी आधारभूमि और मानव के अस्तित्व के नैतिक प्रयोजनों के बीच समन्वय करना जरूरी माना। रॉय ने संपूर्ण मानवीय दर्शन की खोज के प्रयत्न के क्रम में यह निष्कर्ष निकाला कि विश्व की प्रचलित आर्थिक और राजनीतिक प्रणालियां मानव के समग्र कल्याण को सुनिश्चित नहीं करतीं। रॉय ने अपने नए मानववादी दर्शन में मनुष्य को स्वयं अपना केंद्र बताकर मानवीय स्वतंत्रता और व्यक्तित्व की गरिमा का प्रबल समर्थन किया है।