हिंदी साहित्य के काल निर्धारण की चुनौती से जब आचार्य रामचंद्र शुक्ल जूझ रहे थे तो उन्होंने वीरता के प्रति काव्यात्मक आकर्षण को सबसे पहले कालखंड की प्रवृत्ति के तौर पर चिह्नित किया। इस प्रवृत्ति के आदि उत्स को समझने की जटिलता से ज्यादा आकर्षक है, यह जानना-समझना कि लंबे दौर की दासता ने भारतीय मन को न सिर्फ सशक्त बनाया, बल्कि काल और परिस्थिति के कई मोर्चों पर भारतीय शौर्य ने अपना लोहा भी मनवाया।

आज हम जब आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो शौर्य की ये गाथाएं हमें नए सिरे से रोमांच और प्रेरणा से भर रही हैं। ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ पहले विद्रोह से लेकर मौजूदा दौर तक भारतीय सेना ने बहादुरी और सर्वस्व उत्सर्ग के कई यशस्वी सर्ग रचे हैं। स्वाधीन भारत में बलिदान की यह गाथा जिस अमर सैनिक के नाम से शुरू होती है, वे हैं मेजर सोमनाथ शर्मा। वे भारतीय सेना की कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के कमांडर थे।

1947 में भारत पाकिस्तान के बीच हुए पहले संघर्ष के दौरान मेजर सोमनाथ मध्य कश्मीर के बडगाम जिले में पेट्रोलिंग कंपनी में तैनात थे। इसी दौरान करीब 700 पाकिस्तानी सैनिकों ने हमला कर दिया। पाकिस्तानी सैनिकों के पास भारी मोर्टार और आटोमेटिक मशीन गन मौजूद थी। शत्रु सेना के मुकाबले मेजर सोमनाथ की कंपनी में बेहद कम सैनिक थे।

इसके बावजूद तीन तरफ से घिर गई उनकी बटालियन लगातार दुश्मनों से मुकाबला करती रही। पाकिस्तान के हमले में अपनी बटालियन के सैनिकों की जान जाते देख मेजर सोमनाथ ने खुद आगे आकर दुश्मन से मोर्चा लेना शुरू किया और अपनी बटालियन से भी ललकार के साथ दुश्मनों के खिलाफ पूरी वीरता से लड़ने की बात कही। 

आलम यह रहा कि जहां मेजर सोमनाथ ने अपने सैनिकों के साथ पाकिस्तानी सेना का डटकर मुकाबला किया, वहीं सैकड़ों की तादाद में आए सैनिकों को मुंह की खानी पड़ी। इस संघर्ष के दौरान पाकिस्तान की ओर से दागा गया मोर्टार का एक गोला मेजर सोमनाथ के पास गिरा, जिसके धमाके में वे शहीद हो गए। 

अपनी शहादत के पहले अपने साथियों से मेजर सोमनाथ ने कहा था कि दुश्मन हमसे महज 50 मीटर की दूरी पर है और हमें उससे बची हुई अंतिम गोली और अंतिम फौजी तक मुकाबला करना ही होगा। यह भी एक संयोग ही है कि भारत के मान-मुकुट कश्मीर की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले मेजर सोमनाथ का जन्म भी 31 जनवरी, 1923 को जम्मू में हुआ था।

उनके पिता का नाम अमरनाथ शर्मा था। उनके पिता सेना में डॉक्टर थे और आर्मी मेडिकल सर्विस के महानिदेशक पद से सेवामुक्त हुए थे। साफ है कि देश की हिफाजत का बेखौफ जज्बा उनकी परवरिश में शामिल था।

उनकी शुरुआत की तालीम अलग-अलग जगहों पर होती रही, जहां-जहां उनके पिता की तैनाती होती थी। वे बचपन से ही एथलेटिक्स सहित अलग-अलग खेलों में रुचि रखते थे। उन्होंने शेरवुड कालेज, नैनीताल और प्रिंस आफ वेल्स रेल अकादमी, देहरादून से उच्च शिक्षा प्राप्त की थी।

मेजर सोमनाथ ने अपने सैनिक करियर की शुरुआत 22 फरवरी, 1942 को की जब उन्होंने चौथी कुमायूं रेजिमेंट में बतौर कमीशंड आफिसर प्रवेश लिया। दुश्मनों के नापाक मंसूबों को नाकाम करते हुए मोर्चे पर ही दी गई उनकी शहादत को देश आज भी भूला नहीं है। उनके महान बलिदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें मरणोपरांत प्रथम परमवीर चक्र की उपाधि से सम्मानित किया।

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