जिसे आज हम स्वाधीन या आधुनिक भारत कहते हैं, इतिहास के पन्नों में उस भारत की यात्रा काफी लंबी और दिलचस्प है। खासतौर पर औपनिवेशिक दौर को लेकर श्याम-श्वेत में विभाजित समझ के कारण इस यात्रा की उपलब्धि और विलक्षणताओं के बारे में जानने-समझने में कठिनाई होती है। दिलचस्प है कि जीवन और प्रकृति से जुड़ी कई ऐसी चिंताएं हैं, जिस ओर हमारा ध्यान पहली बार इसी दौरान गया। इस लिहाज से एक अहम नाम है- जिम कॉर्बेट। पर इस नाम से जुड़ी अन्य जानकारियां उस नामकरण तक जाकर सिमट जाती हैं, जो भारत के पहले सुरक्षित राष्ट्रीय उद्यान से जुड़ा है। जबकि ऐसा नहीं है। जिम का जीवन रोमांच और प्रेरणा से भरा है।
जिम का पूरा नाम है जेम्स एडवर्ट जिम कॉर्बेट। उनका जन्म 25 जुलाई, 1875 में नैनीताल में हुआ था। उन्हें ब्रिटिश इंडियन आर्मी में कर्नल की रैंक हासिल थी। पहाड़ और जंगल में रहने की वजह से वे जानवरों को उनकी आवाज से पहचान लेते थे। उन्हें पशु-पक्षियों से काफी लगाव था। जिम को फोटोग्राफी का भी बेहद शौक था। भारत के वन्य जीवन के बारे में उनकी जानकारी अद्भुत थी। सेवानिवृत्त होने के बाद जिम ने ‘मैन इटर्स ऑफ कुमायुं’ नाम की प्रसिद्ध पुस्तक लिखी। दिलचस्प है कि ब्रितानी सरकार द्वारा जिम को आदमखोर बाघों को मारने के लिए बुलाया जाता था। गढ़वाल और कुमाऊं में उस वक्तआदमखोर शेरों का आतंक था, जिसे खत्म करने का श्रेय जिम को जाता है। दस्तावेजों में जिम के नाम तकरीबन 12 शेर और तेंदुओं को मारने का बात है, लेकिन वास्तविकता में यह गिनती इससे कहीं ज्यादा है।
अलबत्ता जंगली जीवों का शिकार करने वाले जिम को यह समझते देर नहीं लगी कि आखेट का यह खूनी रोमांच प्रकृति के सहअस्तित्ववादी सिद्धांत के खिलाफ है। यही कारण है कि देश में शेरों को संरक्षित करने का सुझाव उन्होंने दिया। यह पहला कदम था भारत में दुर्लभ पशुओं के संरक्षण की दिशा में। देश के पहले नेशनल पार्क की स्थापना आठ अगस्त, 1936 को हेली नेशनल पार्क के तौर पर की गई।
1952 में जिम के प्रति सम्मान जाहिर करते हुए इसका नाम उनके नाम पर रखा गया। इससे पहले 1928 में केसर-ए-हिंद की उपाधि से उन्हें नवाजा जा चुका था। जिम बाघों को ‘बड़े दिल वाला सज्जन’ कहते थे। उनके ही शब्दों में, ‘मैं उस दिन की कल्पना करता हूं, जब भारत के जंगलों में ये शानदार जानवर नहीं रहेगा और सच में वह दुर्भाग्यपूर्ण दिन अधिक दूर नहीं है।’
दिलचस्प है कि जब भारत में ब्रितानी शासन के दिन गिने-चुने ही बचे थे तो लॉर्ड बेबेल 1946 की क्रिसमस मनाने नैनीताल आए थे। उनकी इच्छा थी कि जिम बाघ के शिकार में उनके साथ चलें। पर तब तक जिम बाघों और परिंदों के शिकार से घृणा करने लगे थे। लेकिन देश के गवर्नर जनरल को इस तरह से मना करना जिम को मुश्किल लगा। वो साथ तो गए लेकिन बेमन से। सौभाग्य से बेबेल को बाघ नहीं मिला। जिम खुश थे। बेबेल ने अपने संस्मरण में लिखा, ‘जंगलों और बाघों पर जिम कॉर्बेट से बात करना एक शानदार अनुभव था।
मेरी इच्छा हुई काश, मैं भी जंगलों को इतना जानता। लेकिन वह इस देश में बाघों के भविष्य को लेकर बड़े चिंतित बल्कि कहूं कि निराशावादी दिखे। उनके हिसाब से देश में करीब तीन से चार हजार बाघ ही बचे थे और वो भी अगले दस से पंद्रह सालों में खत्म हो जाने वाले थे।’ जीवन के आखिरी दिनों में जिम केन्या चले गए थे। पर भारत और यहां के जंगलों के लिए उनका दिल आजीवन धड़कता रहा।